ब्याह कर क्या आई, सब पीछे ही छूट गया
अम्मा पुकारती थी मुझे उनकी चिड़िया,
तो बाबुल का तो
कलेजा ही थी मैं, उनकी रानी बिटिया!
हरदम जेहन में रहता मेरे,
वो मिट्टी की मुंडेरे,
और टूटा – फूटा सा वो छज्जा।
हाँ, लेती आई थी मैं
दो मुट्ठी मिट्टी, उस आँगन की मेरे साथ
लेकर पूरा सा विश्वास, कि रास आ जाए उसे
नयी हवा, धूप, पानी और आकाश !
बड़ी उमंगों से फैलाया मैंने
उस मिट्टी को, यहाँ की बीच अँगनियां
फतह हासिल कर मैंने,
या
गोल्ड मेडल कोई मुझे मिल गया ?
क्या ही कहना, जो गुलमोहर के पौधे सा दिल मेरा,
उसमें, आज
यहाँ आखिरकार खिल गया!
मोना अग्रवाल
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