अपनी-अपनी जगह सही
पता नहीं किसी बात पर दो झूठे,
बहुत देर से अड़े हुए थे
सही और सच के लिए पूरी ताकत से खड़े हुए थे
मन से, दिमाग से,
चुपचाप दोनों को अलग-अलग सुन रही थी
आमतौर पर लोग सच से हारते नहीं हैं,
क्योंकि वो इतने बहादुर नहीं होते,
इसलिए लोग अपने झूठ से हार जाते हैं, अक्सर
कुछ देर बाद
दोनों एक दूसरे से हंसते हुए बोले
भाई !
आप अपनी जगह सही हो, और मैं अपनी जगह,
हम इस बहस में किस लिए फंसे हुए हैं?
दोस्त होकर, टाइम खराब कर रहे हैं
मैं डर गई और सोचने लगी उन्हें देखकर,
इन दोनों ने मिलकर सच को मार तो नहीं डाला
मैंने कहा उनसे
आप दोनों की ये सही जगह
अलग-अलग और एक साथ
दोनों तरह से, देखना चाहती हूं
यह सुनकर वह दोनों मुझे देखते हुए यूं उठे, कि जैसे
ना मैं समाज का हिस्सा हूं ना नागरिक
इसलिए भूख, प्यास और बेरोज़गारी, मेरी ज़रूरतों पर
सरकार की कोई जवाबदेही बनती ही कहां है?
सारा मलिक
हमें गूगल न्यूज पर फॉलो करें. ट्विटर पर फॉलो करें. वाट्सएप पर संदेश पाएं. हस्तक्षेप की आर्थिक मदद करें