वो माँ ही तो थी,
जो तुरपती रहती थी,
अपना फटा पल्लू बार-बार,
ताकि हम पहन सकें,
नया कपड़ा, हर त्यौहार।
वो माँ ही तो थी,
जो खा लेती थी,
बासी रोटी चुपचाप,
ताकि टिफ़िन हम ले जा सकें
फ़र्स्ट क्लास॥
वो माँ ही तो थी,
जो सो जाती थी
गीले गद्दे पर हर बार,
ताकि नींद हमारी ना टूटे
इक भी बार।
वो माँ ही तो थी,
जो पूजा खुद करती घंटों-घंटों,
और दुआओं में, बसा जाती थी,
हमारा ही घर संसार॥
वो माँ ही तो थी,
जो घर पर कदम रखते ही,
फ़ौरन चौके में मुड़-मुड़ जाती,
कि क्या-क्या खाओगे
मेरे राजदुलार॥
हाँ वो माँ ही तो है,
जो आज भी उसी चाव से,
अपनी गोद में रख कर सिर हमारा,
चूम-चूम ले माथा,
और पहना दे अपनी बाहों का हार॥
मोना अग्रवाल