……लो मैंने फिर डरा दिया अपनी मासूम बच्ची को लड़कों से..
खुली छतों.. खुली हवाओं.. खुली सड़कों से…
तीन बरस की उम्र से एहतियात से रह…
बता रही हूँ…
मैं मजबूर हूँ..
उसे डर-डर के जी.. सिखा रहीं हूँ…
सुन तू ड्राइवरों.. सर्वेंटों… मेल टयूशन टीचरों.. से बच.. सतर्क रह…
खोल दे गंदे से गंदा सच…
उसे रिश्तेदारों से घुलने-मिलने की इजाज़त नहीं है..
इस दौर की बच्ची है गोदियों की भी आदत नहीं है…
आठ बरस तक आते आते मैंने उसे रेप समझा दिया…
बरस दो बरस ऊपर हुए मास्टरबेट का अर्थ भी बता दिया…
कच्ची उम्र थी कच्चा नहीं रहने दिया.. उस मासूम को…
मैंने कभी बच्चा नहीं रहने दिया…
बराबर निगाह रखती हूँ उसके दोस्ताना ताल्लुकात पर…
हज़ार मर्तबा कहती हूँ हो लड़की…
रहो तुम लड़की की जात पर…
यूँ खिलखिला कर ना हँसो..
आ जाओगी निगाह में…
काश ता उम्र छुपा सकती उसे मैं अपनी पनाह में..
पुराना दौर था.. मेरी माँ ने कहा था… ज़माना ख़राब है..
सुन गुड़िया बदक़िस्मत मुल्क है यह… यहाँ तेरी पैदाइश अज़ाब है…
तौबा यह गली मुहल्ले की फब्तियां सीटियाँ…
बरस दर बरस बढ़ रही है तू…
अब सीख सेफ्टियां…
पुलिस कन्ट्रोल नम्बर…
पर्स में ऊपर ऊपर रखो..
फँस जाओ कहीं तो मिर्च की पुड़ियों से… बचो…..

उफ्फ…
घर से ज़रा सी दूरी पे निकले तो दूँ… सौ-सौ हिदायतें…
मैं ख़ौफ़ की मारी माँ हूँ…
खाक समझूँगी.. तरक़्क़ी की क़वायदें..
हाँ जाहिल हूँ, खुदा-खुदा करके दिन रात डरती हूँ…
जब तक ना लौटे वो तब तलक सूरतें पढ़ती हूँ…
वो उड़ना चाहती है…
सपनों में रंग भरने है.. अड़ी है…
मगर इस मुल्क में इल्म की किताबें तो रेप के रस्तों पे पड़ी हैं…
डॉ. कविता अरोरा
Tribute to Disha by Dr. Kavita Arora
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