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आबादी नियंत्रण : संघ के सांप्रदायिक तरकश का एक और तीर

दिल्ली दंगा : एक पूर्व-घोषित नरसंहार का रोजनामचा, गुजरात-2002 की पुनरावृत्ति

Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।

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श्रीलंका के संकट का, जो राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफे (Sri Lankan President Gotabaya Rajapaksa resigns) और कामचलाऊ राष्ट्रपति सह प्रधानमंत्री, रनिल विक्रमसिंघे के अवश्यंभावी इस्तीफे के बाद भी, आसानी से हल होता नजर नहीं आता है, एक सबक भुक्तभोगी और प्रेक्षक, सभी लगभग एक राय से मान रहे हैं। सबक यह है कि मजबूत तथा ताकतवर राष्ट्र बनाने और उसका गौरव बढ़ाने की सारी लफ्फाजी के बावजूद, आम जनता के हितों की रक्षा करने तथा उन्हें आगे बढ़ाने के बजाए, अवाम को बांटने और उसके बहुसंख्यक हिस्से को, अपेक्षाकृत कमजोर अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ उकसाने के आधार पर गोलबंद करने की राजनीति, न सिर्फ किसी भी वास्तविक समस्या का समाधान निकालने में नाकाम रहती है बल्कि हरेक समस्या को और बदतर बनाने का और राष्ट्र-राष्ट्र का जाप करते-करते, कुल मिलाकर देश को असाध्य संकट में फंसाने का ही काम करती है। और यह इसलिए कि इस तरह की विभाजनकारी राजनीति, राष्ट्र के नाम का माला जाप, राष्ट्र और उसके नागरिकों के साथ वह वास्तव में जो कर रही होती है उसे और इसे भी कि इस सबके बीच वास्तव में किन वर्गों के हितों की सेवा की जा रही है, ढांपने वाले पर्दे के तौर पर करती है।

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राष्ट्रप्रेम और राष्ट्र-गौरव की चिंता का यह पाखंड (इस शब्द को एकदम हाल ही में भारत में असंसदीय घोषित किया गया है), वास्तव में राष्ट्र को कमजोर करने और उसका सिर झुकाने का ही काम करता है। इसका वर्तमान श्रीलंका से बड़ा उदाहरण क्या होगा?

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लेकिन, क्या भारत में इस सचाई को समझने के लिए हमें वाकई श्रीलंका के उदाहरण की जरूरत है?

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ऐसे किसी उदाहरण की जरूरत पर तो फिर भी बहस हो सकती है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि भारत में इस समय सत्ता पर काबिज आरएसएस-भाजपा जोड़ी और उसका राज अपनी कथनियों से बढ़कर करनियों से, इस सचाई को उजागर करने में कोई कसर नहीं रख रहे हैं। इस सिलसिले में इस सत्ताधारी जोड़ी और उसके राज की रीति-नीति की दो बुनियादी खासियतें, उनके ‘भक्तों’ को छोड़कर, बाकी सब आसानी से देख-समझ सकते हैं। पहली, हरेक सवाल को जान-बूझकर सांप्रदायिक गोलबंदी के हथियार में तब्दील करना। दूसरी, हरेक सवाल के तानाशाहाना, जनता की इच्छा को पांवों तले कुचलने वाले जवाब लादने की कोशिश करना। हम आज आबादी की चिंता को भी, मौजूदा निजाम की इसी रीति-नीति का हथियार बनते हुए देख रहे हैं।

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आरएसएस के अल्पसंख्यकविरोधी प्रचार का एक प्रमुख हिस्सा रहा है आबादी का सवाल

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वैसे आबादी के सवाल को संघ तथा उसके राजनीतिक बाजू द्वारा हथियार बनाया जाना कोई नया नहीं है।

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वास्तव में आबादी का सवाल स्वतंत्रता के बाद से ही संघ के अल्पसंख्यकविरोधी प्रचार का एक प्रमुख हिस्सा रहा है। इस सिलसिले में उनके प्रचार की मुख्य थीम यही रही है कि देश की आबादी में हिंदुओं का हिस्सा घट रहा है, जबकि अल्पसंख्यकों तथा खासतौर पर मुसलमानों का हिस्सा बढ़ रहा है। वह दिन दूर नहीं है जब देश पर मुसलमान छा जाएंगे और हिंदू संख्या घटने से अपने ही देश में दूसरे नंबर के नागरिक बनकर रह जाएंगे, आदि! इस प्रचार को, शिक्षित व संपन्नतर हिंदू मध्य वर्ग के परिवार सीमित रखने की ओर अन्य सभी तबकों के मुकाबले ज्यादा प्रवृत्त होने और दूसरी ओर, मुसलमानों का ज्यादा हिस्सा अशिक्षित व आर्थिक रूप से कमजोर होने तथा उसके परिवार सीमित रखने के लिए हिंदू  मध्य वर्ग के मुकाबले कम प्रवृत्त होने के आधार पर, बनी इस आम धारणा से बल मिला कि, मुसलमानों के परिवार बड़े होते हैं तथा वे ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं। इसमें इस ऊपर से तार्किक लगने वाली किंतु वास्तव में तर्क-विरोधी धारणा का जोर और जुड़ गया कि मुसलमान चार-चार शादियां करते हैं, इसलिए उनके बच्चे ज्यादा होंगे ही।

जाहिर है कि इस तरह का प्रचार करने वाले भी, इस दावे की मूल अतार्किकता से पूरी तरह अनभिज्ञ नहीं होंगे कि बहुपत्नी प्रथा की इजाजत का अर्थ, उसी अनुपात में समुदाय के लोगों का अकेला ही रह जाना भी है और यह स्थिति एक पत्नीप्रथा की स्थिति के मुकाबले, कुल मिलाकर कम बच्चों की कम संख्या की सुनिश्चित करेगी, न कि ज्यादा संख्या। फिर भी इसे अकाट्य सत्य की तरह पेश किया जाता रहा है।

इसके साथ, बंगलादेश के गठन के आस-पास की उथल-पुथल में, वहां से आए अवैध प्रवासियों के मामले को सांप्रदायिक रूप देकर और मुसलमानों के बहुसंख्यक बन जाने के षडयंत्र के प्रचार के साथ जोड़कर, आबादी के सवाल को हिंदुओं के अल्पसंख्यक हो जाने के खतरे के प्रचार में और आबादी पर नियंत्रण को, मुसलमानों की आबादी पर अंकुश लगाने के विचार में घटाया जाता रहा है।

यह तब है जबकि दुनिया भर में आबादी के रुझानों के सभी अध्ययन, एक स्वर से यह बात कहते हैं कि आबादी में बढ़ोत्तरी की रफ्तार का किसी समाज में बहुआयामी गरीबी यानी पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि के मामले में गरीबी की स्थिति से सीधा संबंध है। यह गरीबी जैसे-जैसे घटती है, वैसे-वैसे संतानोत्पत्ति और इसलिए आबादी भी, इन्हीं कारकों से मृत्यु दर में होने वाली कमी से भी तेजी से बढ़ती है।

बेशक, सामाजिक-सांस्कृतिक कारक भी आबादी में वृद्धि पर प्रभाव डालते हैं, पर उनका प्रभाव बहुआयामी गरीबी की स्थिति से संचालित रुझान को धीमा या तेज करने की ही भूमिका अदा करता है। इस मामले में शिक्षा की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण है कि जनसांख्यिकीविदों का तो बहु-उद्यृत सूत्र ही यह है कि ‘शिक्षा ही बेहतरीन गर्भ निरोधक है।’ अपेक्षाकृत संपन्न विकसित देशों का अनुभव ही नहीं, खुद भारत में शिक्षा व स्वास्थ्य की दृष्टि से, देश की विशाल हिंदी पट्टी के मुकाबले कहीं संपन्न, केरल जैसे राज्यों का आबादी में वृद्धि की दर का अनुभव भी इसी की गवाही देता है।

वास्तव में केरल का अनुभव तो, जहां आधी आबादी मुसलमानों तथा ईसाइयों की ही है, इस सचाई को भी रेखांकित करता है कि बड़े परिवारों का संबंध धर्म या धार्मिक परंपराओं से कम है और शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं व आम जीवनस्तर से ही ज्यादा है।

संक्षेप में यह कि एक तो आम तौर पर अनुसूचित जाति, जनजाति व अल्पसंख्यक समुदाय चूंकि ज्यादा वंचितता का जीवन जी रहे हैं, उनके बीच जन्म दर संपन्नतर तबकों के मुकाबले ज्यादा है। दूसरे, शिक्षा समेत परिवार नियोजन की बढ़ती जागरूकता के चलते, आम तौर पर सभी तबकों के बीच आबादी में वृद्धि की रफ्तार घट रही है और जिन तबकों में यह रफ्तार ऐतिहासिक रूप से जितनी ज्यादा रही है, अब उतनी ही तेजी से घट रही है। अचरज नहीं कि इस सदी की पहली दहाई के दौरान यानी 2001 तथा 2011 की जनगणनाओं के बीच, हिंदुओं की आबादी में बढ़ोत्तरी 16.76 फीसद ही रह गयी, जो इससे पहले के एक दशक में दर्ज हुई 19.92 फीसद की वृद्धि दर से, 3.16 फीसद की कमी को दिखाता था। लेकिन, इसी एक दशक के दौरान मुस्लिम आबादी में वृद्धि में और तीखी बढ़ोत्तरी हुई और यह दर 24.60 फीसद पर आ गयी, जबकि इससे पहले के दशक यानी 1991-2001 के बीच यही दर 29.52 फीसद थी। यानी आबादी में वृद्धि दर में दोनों मुख्य समुदायों के मामले में उल्लेखनीय कमी का रुझान है, लेकिन जहां हिंदुओं के मामले में एक दशक में वृद्धि दर 3.16 फीसद कमी हुई है, मुसलमानों के मामले में यह कमी और भी ज्यादा है, 4.92 फीसद। संकेत स्पष्ट है कि चंद दशकों में ही हिंदुओं और मुसलमानों की आबादी की वृद्धि दर बराबर हो जाएगी। बेशक, तब तक देश की आबादी में मुसलमानों का हिस्सा कुछ और बढ़ चुका होगा। लेकिन कितना? 1991 की जनगणना के समय देश की कुल आबादी में मुसलमानों का हिस्सा 12.61 फीसद था। बीस साल में, 2011 की जनगणना के समय, यह 14.23 फीसद हो गया यानी बीस साल में डेढ़ फीसद से जरा सा ज्यादा बढ़ गया। गणनाओं के अनुसार, बढ़ोत्तरी की अगर यही दर बनी रहे तब भी मुसलमानों की आबादी (Muslim population) को हिंदुओं से ज्यादा होने में 247 साल लग जाएंगे। यह तब है जब आबादी में बढ़ोत्तरी की दरें ज्यों की त्यों रहें। लेकिन, जैसाकि हम पीछे देख आए हैं, ये दरें तो तेजी से गिर रही हैं और विभिन्न समुदायों की वृद्धि दरों में अंतर तेजी से सिमट रहा है।

आबादी में वृद्धि के इन वास्तविक रुझानों से तीन चीजें स्वत: स्पष्ट हैं। पहली, भारत में आबादी की वृद्धि दर में तेजी से कमी आ रही है और इस संदर्भ में आबादी संकट या आबादी विस्फोट जैसी चिंताएं बेमानी हैं।

बेशक, आबादी में वृद्धि अभी जारी है, लेकिन घटती हुई रफ्तार से और अगले तीन-चार दशकों में भारत की जनसंख्या स्थिरता के बिंदु पर पहुंच जाएगी। दूसरे, देश में विभिन्न समुदायों की आबादी का जो संतुलन है, उसमें कोई उलट-फेर होने की आशंकाओं की कोई गुंजाइश नहीं है। तीसरे, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की सुविधाएं बेहतर बनाने जरिए, हम आसानी से देश की आबादी के स्थिरीकरण का लक्ष्य हासिल कर सकते हैं। इसके लिए कम से कम, ज्यादा संतानों के लिए दंडित करने जैसे दमनात्मक उपायों की कोई जरूरत नहीं है, जो वैसे भी खास मदद नहीं करते हैं बल्कि उल्टे ही पड़ सकते हैं। ऐसे कदमों के जरिए, सत्तर के दशक के उत्तराद्र्घ में इमर्जेंसी के दौरान संजय गांधी द्वारा थोपे गए जबरिया नसबंदी के कदमों की याद दिलाना, लक्ष्य से उल्टी दिशा में ही ले जा सकता है। ठीक इसीलिए, जिसमें जबरिया नसबंदी के नकारात्मक सबक भी शामिल हैं, पिछली यूपीए सरकार में और उससे पहले वाजपेयी की एनडीए सरकार में भी, यह आम राय रही थी कि आबादी नियंत्रण कानून तो दूर, आबादी नियंत्रण के विचार से ही बचा जाना चाहिए और सिर्फ परिवारों के नियोजन में मदद करने का सरकार का प्रयास होना चाहिए।

लेकिन, यह संयोग ही नहीं है मोदी राज के दूसरे कार्यकाल में, आबादी नियंत्रण की चर्चा ही नहीं, आबादी नियंत्रण कानून (population control law) की चर्चा की भी धमाकेदार वापसी हो गयी है। बढ़ते आर्थिक संकट तथा बेरोजगारी के बढ़ते संकट के लिए हर प्रकार की जिम्मेदारी तथा जवाबदेही से सरकार को बरी करने, इससे आसान कोई बहाना नहीं हो सकता है कि क्या करें, आबादी ही इतनी ज्यादा है? लेकिन, संघ-भाजपा के लिए ये नारे, सांप्रदायिक लामबंदी के उसके तरकश के मारक तीर भी हैं। कुछ नाजानकारी और ज्यादा सांप्रदायिक प्रचार की वजह से बनी आम धारणाओं के बल पर, आबादी नियंत्रण की पुकार, आसानी से मुसलमानों पर संतानोत्पत्ति जैसे संवेदनशील मामलों में भी कड़े शासकीय नियंत्रण की पुकारों में तब्दील हो जाती है।

उत्तर प्रदेश में अपने पिछले कार्यकाल के आखिर में, आदित्यनाथ सरकार द्वारा तैयार कराया गया जनसंख्या नियंत्रण विधेयक, जो पिछली विधानसभा में पेश नहीं किया जा सकता था, इसी खेल का हिस्सा है।

लेकिन, मोदी राज के दूसरे कार्यकाल में, सांप्रदायिक पुकारों को इशारों से बहुत आगे बढ़ाया जा चुका है। इसीलिए, अचरज नहीं है कि आदित्यनाथ को विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर, उत्तर प्रदेश में जनसंख्या स्थिरीकरण पखवाड़े का उद्घाटन करते हुए, इसकी सावधानी रखने पर जोर देना बहुत जरूरी लगा कि जनसंख्या स्थिरीकरण के प्रयास में कहीं समुदायों की जनसांख्यिकी में ‘असंतुलन’ नहीं आ जाए। मुख्यमंत्री ने कहा कि, ‘ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी समुदाय की आबादी की वृद्धि की रफ्तार या फीसद तो ज्यादा रहे और हम जागरूकता या पालन कराने के जरिए ‘‘मूलनिवासी’’ की आबादी को स्थिर कर दें।’ किसी संदेह की गुंजाइश न छोड़ते हुए उन्होंने इससे ‘अराजकता’ पैदा होने की आशंका भी जता दी। ‘जिन देशों में ऐसे जनसांख्यिकीय असंतुलन पैदा हुए हैं, इनका असर धार्मिक जनसांख्यिकी पर पड़ता है और कुछ समय बाद, अव्यवस्था तथा अराजकता आ जाते हैं।’

मुख्यमंत्री आदित्यनाथ शायद इससे ज्यादा खुलकर इसका एलान नहीं कर सकते थे कि नारा जनसंख्या नियंत्रण का हो या स्थिरीकरण का, उनके राज में निशाना मुसलमानों पर ही रहेगा।

उधर आरएसएस प्रमुख भागवत भी यह कहकर आबादी में बढ़ोत्तरी के बहाने मुसलमानों का दानवीकरण करने के लिए कूद पड़े हैं कि ‘आबादी तो जानवर भी बढ़ा लेते हैं, मनुष्य के लक्ष्य कुछ और हैं।’

कहने की जरूरत नहीं है कि आबादी के सवाल का इस तरह अल्पसंख्यकविरोधी हथियार बनाया जाना, हमारे देश में आबादी के स्थिरीकरण का रास्ता बनाने की मुश्किलें ही बढ़ा सकता है। लेकिन, विभाजनकारी राजनीति की ठीक यही तो भूमिका है। यह अलग बात है कि छोटे परिवारों की बढ़ती प्रवृत्ति, न हिंदुत्ववादियों के मुसलमानों की आबादी बढ़ने के खतरों के शोर से धीमी पड़ रही है और न मुस्लिम तत्ववादियों के फरमानों से।

राजेंद्र शर्मा

Population control: Another arrow in the communal quiver of RSS  

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