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डियर प्रशांत किशोर लड़ाई तो टीएमसी और वाम-कांग्रेस के बीच है

डियर प्रशांत किशोर लड़ाई तो टीएमसी और वाम-कांग्रेस के बीच है

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बंगाल में भाजपा के बारे में प्रशांत किशोर का आकलन अतिशयोक्तिपूर्ण लगता है

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Prashant Kishore's assessment of BJP in Bengal seems exaggerated.

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भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनाव (2019 Lok Sabha Elections) में बंगाल में 40 प्रतिशत मत मिले थे। वह 2016 के विधान सभा चुनाव में भाजपा के 10.2 प्रतिशत मतों से एक लंबी छलांग थी। लेकिन टीएमसी के 43 प्रतिशत मत प्राय: स्थिर बने रहे।

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टीएमसी के रणनीतिकार प्रशांत किशोर (TMC strategist Prashant Kishore) भाजपा के मतों में इस अभूतपूर्व वृद्धि के कारणों के अनुमान के तौर पर चार बातें गिनाते हैं। 1. मोदी की निजी लोकप्रियता, 2. भारी हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण, 3. बंगाली समाज में बांग्लादेशी शरणार्थियों का मतुआ समुदाय और 4. राज्य सरकार के ख़िलाफ़ व्यवस्था-विरोध की भावना।

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सब जानते हैं प्रशांत किशोर के अनुमान सच नहीं हैं

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प्रशांत किशोर के इन अनुमानों पर गहराई से गौर करें तो लगेगा कि 2019 में बंगाल का चुनाव लोक सभा के लिये चुनाव नहीं था, राज्य विधानसभा का चुनाव था। सब जानते हैं कि यह सच नहीं है। इसीलिए प्रशांत किशोर के कथन से इसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि वे इन चारों कारणों को लोक सभा चुनाव के परिणाम के कारण के रूप में नहीं गिना रहे हैं, बल्कि वे कह रहे हैं कि इस बार के विधान सभा के चुनाव में भी भाजपा को यदि अपने उन 40 प्रतिशत मतों को बनाए रखना है तो वह उसे इन चार कारणों को अपने लिए भुनाना होगा। 

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अर्थात्, 2019 में भाजपा को जो 40 प्रतिशत मत मिले थे, आज भी यदि उसे उतने ही या उससे अधिक मत मिलते हैं तो इसके पूर्वानुमान के लिए प्रशांत किशोर के पास कोई सुचिंतित ठोस सामाजिक-राजनीतिक तथ्य उपलब्ध नहीं है। उनका पूर्वानुमान भी कुछ उनकी कुछ पूर्व-धारणाओं पर ही टिका हुआ है; इस धारणा पर कि मोदी राज्य विधानसभा के चुनाव के लिए भी लोकप्रिय हैं, भाजपा में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की भारी शक्ति है, बंगाली हिंदू समाज की अनुसूचित जातियों और शरणार्थी समुदायों को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए एक अलग समूह के रूप में भाजपा साध सकती है तथा भाजपा के पास बेइंतहा संसाधन हैं, जिन्हें झोंक कर वह अपने पक्ष में हवा बना सकती है।

कहने का अर्थ यह है कि प्रशांत किशोर जो भी अनुमान लगा रहे हैं, वह सब बंगाल के समाज, यहाँ की राजनीति और भाजपा की क्षमताओं बारे में उनकी कुछ धारणाओं पर ही टिका हुआ है, किसी ठोस यथार्थ या अनुभव पर नहीं।

ठोस तथ्य तो यही है कि बंगाल की विधान सभा में अभी भाजपा की सिर्फ़ तीन सीटें हैं और उसे पिछले विधान सभा चुनाव में 10.2 प्रतिशत मत मिले थे।

इसी वजह जब प्रशांत किशोर भाजपा को अपने आकलन में उसकी ताक़त के अनुमानों के आधार पर अधिकतम 99 सीट तक देने की बात कहते हैं, तो हमें तो वह पूरी तरह से एक आधारहीन अटकलबाज़ी ही लगती है। वे अपने पूरे आकलन में बंगाल से वाम-कांग्रेस को पूरी तरह से हटा कर रखते हैं। अन्य राज्यों के हवाले से ही वे खुद इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि लोकसभा चुनाव की तुलना में भाजपा के मत में औसत 12 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है।

बंगाल में 2019 के एक लोक सभा चुनाव में वाम और कांग्रेस के भारी पतन से कोई यदि इस नतीजे पर पहुँचता है कि वे बंगाल के समाज से मिटा दिये गए हैं, तो हमारी दृष्टि में यही उसके नज़रिये की एक ऐसी बुनियादी त्रुटि है जो उसके पूरे आकलन को ही हंसी का विषय बना देने का कारक बन सकती है।

In Bengal, the Left-Congress is not just a political force, but a much larger social force.

बंगाल में वाम-कांग्रेस सिर्फ़ एक राजनीतिक ताक़त नहीं, बल्कि उससे बहुत बड़ी सामाजिक शक्ति है। बंगाल के समाज में सांप्रदायिक सौहार्द और हिंदू समाज में जातिवाद का न्यूनतम प्रभाव तथा बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों के प्रति सामाजिक-राजनीतिक परिवेश को तैयार करने में बंगाल के नवजागरण और वाम-कांग्रेस की जो भूमिका रही है, वह बंगाल के समाज में टीएमसी सहित वाम-कांग्रेस के स्थान को समझने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। वे बंगाली समाज की जातीय चेतना में रचे-बसे हुए हैं और बंगाली समाज में जब भी कोई सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर विचार करता है तो उसे इस जातीय चेतना के प्रभाव को भी अनिवार्य तौर पर ध्यान में रखना चाहिए। जितनी नग्नता और धृष्टता के साथ यहाँ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश की जाएगी, उतनी ही दृढ़ता के साथ उसके प्रतिकार में बंगाल अपनी जातीय चेतना के साथ और ज़्यादा एकजुट रूप में उठ खड़ा होगा।

इसीलिए प्रशांत किशोर जिन ध्रुवीकरण और जातिवाद के पहलुओं को भाजपा की शक्ति का स्रोत मान कर लोक सभा चुनाव की संगति में ही उसकी सीटों में वृद्धि का जो अनुमान लगा रहे हैं, वे पहलू ही बंगाल में भाजपा की कमजोरी के सबसे बड़े स्रोत हैं।

इस बार के चुनाव की अब तक की परिघटना पर ही थोड़ी सी सूक्ष्मता से नज़र डालने पर ही जहां यह दिन के उजाले की तरह साफ़ होता जा रहा है कि भाजपा की तुलना में टीएमसी ने अपनी काफ़ी बढ़त बना ली है, वहीं कोई भी चुनाव के मैदान में संयुक्त मोर्चा की उपस्थिति से भी पूरी तरह से इंकार नहीं कर पा रहा है। ये दोनों पहलू ही बंगाली जातीयता के प्रबल उभार का संकेत दे रहे हैं।

आज सच यह है कि भाजपा ज़्यादा से ज़्यादा बंगाल के हिंदी भाषी लोगों की पार्टी बन कर रह जा रही है।

बांग्ला अख़बारों पर गहराई से नज़र डालने पर पता चल जाता है कि यहाँ का एक भी प्रमुख बांग्ला अख़बार, ‘आनंदबाजार पत्रिका’ हो या ‘वर्तमान’, ‘आजकल’, ‘संवाद प्रतिदिन’ या ‘एई समय’, एक भी अख़बार किसी मामले में भाजपा के नज़रिये की ताईद नहीं करता है। यह सब बंगाली जातीय चेतना का प्रमाण है।

इसीलिए, हमारा मानना है कि प्रशांत कुमार भाजपा को 2019 में मिले मतों के आधार पर इस चुनाव में उसकी  शक्ति का जो आकलन कर रहे हैं, वह पूरी तरह से अतिशयोक्तिपूर्ण और निराधार है। उनका यह अनुमान निराधार और ग़लत साबित होगा। भाजपा आज की परिस्थितियों में क्रमश: तीसरे स्थान पर जा रही है। टीएमसी के बाद दूसरे स्थान पर वाम-कांग्रेस का रहना आश्चर्य की बात नहीं होगी और भाजपा 2016 के चुनाव परिणाम के आस-पास ही मंडराती दिख सकती है।

-अरुण माहेश्वरी

Arun Maheshwari - अरुण माहेश्वरी, लेखक सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक, सामाजिक-आर्थिक विषयों के टिप्पणीकार एवं पत्रकार हैं। छात्र जीवन से ही मार्क्सवादी राजनीति और साहित्य-आन्दोलन से जुड़ाव और सी.पी.आई.(एम.) के मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ से सम्बद्ध। साहित्यिक पत्रिका ‘कलम’ का सम्पादन। जनवादी लेखक संघ के केन्द्रीय सचिव एवं पश्चिम बंगाल के राज्य सचिव। वह हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

Arun Maheshwari - अरुण माहेश्वरी, लेखक सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक, सामाजिक-आर्थिक विषयों के टिप्पणीकार एवं पत्रकार हैं। छात्र जीवन से ही मार्क्सवादी राजनीति और साहित्य-आन्दोलन से जुड़ाव और सी.पी.आई.(एम.) के मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ से सम्बद्ध। साहित्यिक पत्रिका ‘कलम’ का सम्पादन। जनवादी लेखक संघ के केन्द्रीय सचिव एवं पश्चिम बंगाल के राज्य सचिव। वह हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

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