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आत्मनिर्भर भारत : क्या इस राष्ट्र में इन मजदूरों का भी स्थान है ?

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hastakshep
15 May 2020
आत्मनिर्भर भारत : क्या इस राष्ट्र में इन मजदूरों का भी स्थान है ?

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कोरोना महामारी के दौर में प्रधानमंत्री का ‘आत्मनिर्भरता’ का सपना

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Prime Minister's dream of 'self-reliance' during the Corona epidemic

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प्रधानमंत्री ने 12 मई को देश को सम्बोधित करते हुए कहा कि- ‘‘हमने ऐसा संकट न देखा है न ही सुना है। निश्चित तौर पर मानव जाति के लिए ये सब कुछ अकल्पनीय है, ये क्राइसेस अभूतपूर्व है।.. लेकिन थकना, हारना, टूटना-बिखरना, मानव को मंजूर नहीं है। सतर्क रहते हुए, ऐसी जंग के सभी नियमों का पालन करते हुए, अब हमें बचना भी है और आगे भी बढ़ना है। आज जब दुनिया संकट में है, तब हमें अपना संकल्प और मजबूत करना होगा। हमारा संकल्प इस संकट से भी विराट होगा।’’

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मेहनतकश जनता को आपने मजबूर कर दिया है विराट संकल्प करने के लिए वे भूखे-प्यासे, चिलचिलाती धूप में बच्चे, बुजुर्ग के साथ चप्पल नहीं सही, नंगे पांव ही अपनों तक पहुंचने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं। वह अपने टूटे-बिखरे सपने के साथ वहीं वापस जा रहे हैं, जहां से वह एक अच्छे जीवन की उम्मीद में आये थे। ये वे कर्मवीर योद्धा हैं जो वातानुकुलित गुफाओं में नहीं, चिलचिलाती धूप में आपके फिटनेस को चैलेंज कर रहे हैं। इन मेहनतकश जनता के सामने आपका संकल्प बौना है जिसको आप ‘त्याग और तपस्या’ का नाम दे रहे हैं।

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Ghar Se Door Bharat Ka Majdoor

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प्रधानमंत्री कहते हैं कि ‘‘एक राष्ट्र के रूप में आज हम एक बहुत ही अहम मोड़ पर खड़े हैं’’। क्या इन मजदूरों के लिए भी एक राष्ट्र है, क्या वे यह कह सकते हैं कि ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा’? जब सरकारी नीतियों के कारण इनको गांव से शहर की तरफ धकेला गया। इन शहरों को उन्होंने अपने खून-पसीने से सींच कर हरा-भरा किया, आज वही शहर इनके लिए अंजान बन चुका है। वे फिर से अपने उसी थैले के साथ वापस जाने को विवश हैं जिसको लेकर गांव से चले थे। अब वे अपने गांव में पहले से भी बदतर स्थिति में जीने को मजबूर होंगें, क्योंकि कृषि में उनको खप पाना मुश्किल है।

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अगर यह ‘राष्ट्र’ उनका भी था तो इन मजदूरों को भूखे-प्यासे हजारों किलोमीटर जान जोखिम में डालकर क्यों जाना पड़ रहा है? इस देश का ‘राष्ट्र प्रमुख’ धृतराष्ट्र बन चुका है? साहब आपने ट्रेनें भी चलाये तो इन भूखे-प्यासों से पैसा वसूल रहे हैं, जबकि इसी ‘राष्ट्र’ में कुछ लोगों की जेबों में पैसे डाले जा रहे हैं। यह दोनों एक ही राष्ट्र के सिद्धांत में कैसे फिट बैठते हैं?

आप का कहना है कि ‘‘इतनी बड़ी आपदा, भारत के लिए एक संकेत लेकर आई है, एक संदेश लेकर आई है, एक अवसर लेकर आई है।’’

प्रधानमंत्री जी यह अवसर किसके लिए हैं? उन गरीबों के लिए जो भूख से तड़प रहे हैं या उन धन्नासेठों के लिए जो इन मजदूरों के हाड़-मांस को निचोड़ रहे थे? अब सरकारें कोरोना महामारी की आड़ लेकर श्रम की लूट की खूली छूट दे रही हैं, जिससे कि उनके खून की आखिरी बूंद निचोड़ कर मुनाफा बना सके और भारत के जीडीपी को आगे बढ़ा सके।

साहब आपने तो दुनिया को वचन दे रखा है कि भारत की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर तक करना है। ‘प्राण जाए पर, वचन न जाए’, उस बचन को पूरा करने के लिए आप मेहनतकश जनता के खून की आखिरी बूंद तक निचोड़ लेना चाहते हैं और यही आपके लिए अवसर दिखाई देता है।

आप अवसर बताते हुए कहते हैं- ‘‘जब कोरोना संकट शुरु हुआ, तब भारत में एक भी पीपीई किट नहीं बनती थी। एन-95 मास्क का भारत में नाममात्र उत्पादन होता था। आज स्थिति ये है कि भारत में ही हर रोज 2 लाख पीपीई किट और 2 लाख एन-95 मास्क बनाए जा रहे हैं।’’

मान्यवर यह बता दीजिए कि यह पीपीई किट या एन-95 मास्क क्यों नहीं बनता था? अगर आज यह चमत्कार हुआ है तो किसके बल पर? ये वही मजदूर हैं जिनके भाई-बंधु खुले आसमान के नीचे दिन-रात बिताने पर मजबूर हैं। आप से मैं जानना चाहता हूं कि अगर यह मास्क और पीपीई किट मार्च से बनने शुरू हुए तो उससे पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी के बावजूद आप क्या कर रहे थे? यानी आप उन स्वास्थ्यकर्मियों, पुलिसकर्मियों, अर्द्धसैनिक बलों के संक्रमण के दोषी हैं जिनको अपने बचाव के लिए समुचित सुरक्षा किट नहीं दिया गया। अगर आप समय रहते कदम उठा लिए होते तो आज भारत की जनता घरों में कैद नहीं होती, आज देश की अर्थव्यवस्था चौपट नहीं होती।

आप ने अपनी पिछली गलती से सबक नहीं लिया कि नोटबंदी के बाद 150 लोगों की जानें गई, करीब 1.5 करोड़ लोग बेरोजगार हो गये और देश की अर्थव्यवस्था नीचे की तरफ गिरती गई। आपने सही समय पर सही कदम नहीं उठाया जिससे नोटबंदी से कई गुना ज्यादा देश की जनता की जानें जायेंगी, 1.5 करोड़ की जगह 15 करोड़ से अधिक लोग बेरोजगारों के लाईन में खड़े हो जाएंगे और देश को जो आर्थिक नुकसान होगा, उसको पूरा करने में वर्षों-दशकों लग सकते हैं साहब।

आप कहते हैं- ‘‘भारत की संस्कृति, भारत के संस्कार, उस आत्मनिर्भरता की बात करते हैं जिसकी आत्मा वसुधैव कुटुंबकम् है।’’ नरेन्द्र मोदी जी आपके अनुसार भारत की संस्कृति और संस्कार में वसुधैव कुटुम्बकम् निहित है तो क्या यह जो मजदूर सड़क पर फटेहाल चले जा रहे हैं, जिनमें 4 साल के बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक हैं, विक्लांग से लेकर गर्भवती महिलाएं तक हैं। क्या वे इस वसुधैव कुटुंबकम् में नहीं आते? क्या आप इनको अत्मनिर्भर बना रहे हैं कि हमारी बुलेट ट्रेन का इंतजार मत करो अपने पैरों से जाओ और आत्मनिर्भर बनो।

आप कहते हैं कि ‘‘भारत जब आत्मनिर्भरता की बात करता है, तो आत्मकेंद्रित व्यवस्था की वकालत नहीं करता। भारत की आत्मनिर्भरता में संसार के सुख, सहयोग और शांति की चिंता होती है।’’

भारत जाति और धर्मों में बंटा हुआ देश है जो कि एक वर्ग (Class) के रूप में दिखता है और वह आत्मनिर्भरता ही आत्मकेन्द्रित बना देता है। अगर ऐसा नहीं होता तो जिस मैड के बेल बजाने से घरों की लोगों की नीन्द खुलती थी आज वही लोग उन मैड को देख कर आंखें बंद कर लिये हैं, क्योंकि वह आत्मनिर्भर है और आत्मनिर्भर होने के कारण वह आत्मकेंद्रित हो गये हैं। यही भारत की वास्तविकता है। आज भारत में चारों तरफ दुःख असहयोग और अशांति फैली है, जिसको आप देखना नहीं चाहते और उसको त्याग-तपस्या का नाम दे देते हैं।

आप के अनुसार-

‘‘भारत की प्रगति में तो हमेशा विश्व की प्रगति समाहित रही है। भारत के लक्ष्यों का प्रभाव, भारत के कार्यों का प्रभाव, विश्व कल्याण पर पड़ता है। जब भारत खुले में शौच से मुक्त होता है तो दुनिया की तस्वीर बदल जाती है।’’

भारत तो प्रगति करते हुए चांद और मंगल तक पहुंच चुका है। आप लाल किले के प्राचीर से 2018 में ही घोषणा कर चुके हैं कि 2022 तक अंतरिक्ष में मानव मिशन पहुंचेगा, लेकिन 2020 में लोगों को आप घर तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं। क्या भारत की प्रगति का लाभ इन लोगों को मिल पा रहा है? खुले में शौच से मुक्ति की बात करते हैं लोग तो खुले असमान में जीने को मजबूर हैं।

प्रधानमंत्री जी आप का कहना है कि

‘‘संकट के समय में लोकल ने ही हमारी मांग पूरी की है, हमें लोकल ने बचाया है। लोकल सिर्फ जरूरत नहीं बल्कि हमारी जिम्मेदारी है। लोकल को हमें अपना जीवन मंत्र बनाना होगा। आज से हर भारतवासी को अपने लोकल के लिए वोकल बनना है न सिर्फ लोकल प्रोडेक्ट्स खरीदने हैं बल्कि उनका गर्व से प्रचार भी करना है।’’

प्रधानमंत्री जी आपने स्वदेशी पर जोर दिया है, आप ही के सहगोत्र संगठन ‘स्वदेशी जागरण मंच’ आपके प्रधानमंत्री बनते ही साइलेंट मोड में चला गया। आखिर ऐसा क्यों हुआ कि स्वदेशी की राग अलापने वाली संगठन 2014 के बाद चुप बैठा हुआ है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपके हाथ, आंख, जेब पर उसकी नजर पड़ती  हो तो सब कुछ विदेशी ही नजर आता हो। आप ने विदेश भ्रमण इतना किया है कि कोरोना महामारी के समय चुकटले चल रहे हैं कि जिस दिन प्रधानमंत्री का विमान गैरेज से निकलेगा और विदेश दौरे पर जाएंगे उस दिन समझना होगा कि कोरोना महामारी खतम हो गई है। आप घूम-घूम कर विदेशी कम्पनियों को न्यौता देते रहे कि आओ हमारे पास कच्चा माल है, श्रम है, आकर इसका भरपूर लाभ उठाओ।

15 अगस्त, 2014 को लाल किले के प्राचीर से खुले विदेशी कम्पनियों को निमंत्रण देते हुए कहा था- आइये, हमारे देश में युवा श्रमिक हैं (35 उम्र से कम 65 प्रतिशत आबादी), जिनके पास कौशल, प्रतिभा और अनुशासन है, उसका इस्तेमाल कीजिये। हम विश्व को एक अवसर देना चाहते हैं- ‘कम, मेक इन इण्डिया’।

सुनील कुमार sunil kumar

सुनील कुमार

आप ने रिटेल सहित कई क्षेत्रों में 100 प्रतिशत एफडीआई के लिए खोल दिया। रक्षा उत्पाद में एफडीआई के लिए आपने नियमों में बदलाव किया, लेकिन इन सबसे भी आप विदेशी कम्पनियों को नहीं लुभा पाये।

आप जब रोजगार नहीं दे पा रहे थे तो नौजवानों से कहा कि ‘रोजगार मांगने वाला नहीं रोजगार देने वाला बनो’ और आपने ‘स्टार्टअप’ की शुरूआत की। ‘स्टार्टअप’ और ‘मेक इन इण्डिया’ का जो हस्र हुआ, हम जानते हैं। आप के 2019 के चुनाव में इसके नाम पर वोट मांगना भी मुनासिब नहीं समझा। ऐसा तो नहीं कि देश भर में बढ़ती बेरोजगारी और गिरती अर्थव्यवस्था को देखते हुए आपने एक नया जुमला ‘आत्मनिर्भर’ का दिया। मेरे मन में इस बात से भी आशंका होती है कि जब देश घोर संकट के दौर से गुजर रहा है उसी समय टाइम्स नाऊ आपकी लोकप्रियता को लेकर सर्वे करता है जिसमें उछाल दिखाई देता है।

आपकी वित्त मंत्री, जिनका महत्वपूर्ण काम है देश की अर्थव्यवस्था को सम्भालना, वह अपके लोकप्रियता को लेकर ट्वीट करने लगती है। इन्हीं कारणों से मुझे लगता है कि मौजूदा दौर को देखते हुए सरकार में एक बेचैनी है, उस बेचैनी को किसी तरह से सरकार छुपाना चाहती है।

सुनील कुमार

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