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गनीमत है हमारे सदा वाचाल पंत प्रधान ने नारी अस्मिता पर अभी तक सीतारमण जैसा उत्तर नहीं दिया 'मैं प्याज नहीं खाती’
ऐसे मौन के सदके
लड़कियों की अस्मिता (Girls identity) को लेकर पूरे देश में हंगामा बरपा है, सड़कों पर जन-सैलाब है, आसमान गूँज रहा है। संसद में हंगामा है लेकिन हमारे सदा वाचाल पंत प्रधान मुंह में गुड़ रखकर बैठे हैं, देश समझ ही नहीं पा रहा कि इस ज्वलंत मुद्दे को लेकर उनके मन में आखिर क्या चल रहा है ? चल भी रहा है या नहीं ?
कौन, कब बोले या न बोले ये एकदम नितांत निजी मामला है लेकिन जब देश का मुखिया किसी ज्वलंत मुद्दे पर मौन साध ले तो पूरे देश को चिंता होती है। देश समझ ही नहीं पाता कि जन भावनाओं को लेकर पंत-प्रधान आखिर कैसे सोचते हैं, सोचते भी हैं उन्हें इसके लिए फुरसत ही नहीं मिलती !
Atrocities and barbaric acts of gang raping girls and then burning them alive.
लड़कियों से सामूहिक बलात्कार और फिर उन्हें ज़िंदा जलाये जाने की नृशंस और बर्बर वारदातों से पूरे देश में विचलन है, असंतोष है, नाराजगी है। देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद तक से नहीं रहा गया, वे भी बोल उठे कि- 'पोक्सो एक्ट के तहत मृत्युदंड पाए अपराधियों को दया याचिका दाखिल करने का हक नहीं होना चाहिए', लेकिन पंत प्रधान ने इस विषय पर एक शब्द नहीं कहा।
मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर पंत-प्रधान के पास वित्त मंत्री श्रीमती सीतारमण जैसा उत्तर नहीं होगा -'कि मैं प्याज नहीं खाती। ।।।'
पंत प्रधान के मन में इस मुद्दे पर जो कुछ चल रहा है उसे जानने के लिए पूरा देश और खासकर पीड़िताओं के परिजन आतुर हैं। लेकिन पंत प्रधान न संसद में बोले और न संसद के बाहर। पंत प्रधान की चुप्पी रहस्यपूर्ण है, खलती है, क्योंकि पंत प्रधान अक्सर वाचाल रहते हैं, अक्सर अनेक मुद्दों पर ताली पीट-पीटकर बोलते हैं और जब वे बोलते हैं तो लगता है कि कोई बोल रहा है।
पंत प्रधान की टीम में बोलने वालों की कोई कमी नहीं है लेकिन उनकी टीम के अधिकांश सदस्य जो बोलते हैं उसमें सुनने लायक कुछ होता नहीं है। वे ऊट-पटांग बोलते हैं, अनावश्यक बोलते हैं, अप्रासंगिक बोलते हैं।
बलात्कार और पीड़िताओं की हत्या के मेल में केंद्र सरकार की कोई नयी नीति है या नहीं, ये बताने वाला कोई है नहीं, शायद कि इसलिए कि क़ानून और व्यवस्था राज्यों का विषय है। राज्यों के तो दूसरे विषय भी होते हैं किन्तु उन पर पंत प्रधान अक्सर बोलते रहते हैं। उनका बोलना हमेशा महत्वपूर्ण होता है, लेकिन इस बार उनकी चुप्पी भी महत्वपूर्ण ही नहीं अपितु रहस्यपूर्ण हो चुकी है। इतनी रहस्य्पूर्ण कि डर लगने लगा है।
डर तो दूसरे मुद्दों पर भी लगता है लेकिन इस संवेदनशील मुद्दों पर कुछ ज्यादा ही डर लगता है।
आप माने या न मानें किन्तु हकीकत ये है कि आज पूरा देश एक अजाने डर से जूझ रहा है। 'एक डरा हुआ देश तरक्की कर ही नहीं सकता। देश की तरक्की का देश के नागरिकों की मनोदशा से सीधा संबंध है।
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पंत-प्रधान के मन की बात जानने के लिए लगता है कि देश को अभी कुछ और इन्तजार भी करना ही पड़ेगा। वे जब उनका मन होगा, तब मन की बात करते हुए बताएंगे कि बलात्कारियों और हत्यारों के प्रति वे क्या सोचते हैं ?
पंत प्रधान के मन की बात सुनने के लिए आतुर देश को अब इन्तजार करने की आदत पड़ गयी है। देश छह साल से अच्छे दिनों का इन्तजार कर रहा है, लेकिन उसने अच्छे दिनों के आने में हो रही देर के विरोध में कभी कोई केंडिल मार्च नहीं निकाला, कोई धरना नहीं दिया। समझदार नागरिक इसके अलावा कुछ और कर ही नहीं सकता। क्योंकि कुछ भी करना राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आ जाता है।
इस मामले में मेरा निजी मत है कि पंत-प्रधान का इस समूचे घटनाक्रम पर मौन ठीक नहीं है। वे अगर दो शब्द बोल देते तो जनता आश्वस्त महसूस करती। जनता का आश्वस्त होना हर हाल में आवश्यक है क्योंकि एक विशाल लोकतंत्र की अच्छी सेहत के लिए किसी का भी मौन ठीक नहीं। मौन सालता है, काटता है, चुभता है। और अंतत: स्वीकृति का लक्षण बन जाता है, इसलिए हे प्रभु बोलो ! कुछ तो बोलो !!
राकेश अचल