/hastakshep-prod/media/post_banners/SFLFIHyBWaGy9m9sMu8U.jpg)
Privatization of banks, the policy of going back and forth: Vijay Shankar Singh
15 और 16 मार्च को बैंकिंग सेक्टर के सरकारी बैंकों के कर्मचारियों की सफल हड़ताल के बाद आज से बावन साल पहले, भारतीय अर्थव्यवस्था और बैंकिंग सेक्टर में 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा उठाया गया बैंकों के राष्ट्रीयकरण (Nationalization of banks) का कदम बरबस याद आ जाता है। आज बैंकिंग सेक्टर के निजीकरण (Privatization of banking sector) की बात की जा रही है। निजीकरण के भी अपने तर्क हैं और राष्ट्रीयकरण के भी अपने अपने तर्क हैं। राष्ट्रीयकरण के बाद देश की अर्थव्यवस्था में बैंकिंग सेक्टर का हाल रहा, उसकी क्या उपलब्धियां रहीं और कैसे बैंक आम जन की पहुंच के अंदर पहुंचे, प्रबन्धन की कमियों सहित क्या परिदृश्य रहा, और इन बावन सालों में बैंकिंग की यह यात्रा कैसी रही, उस पर एक नज़र डालते हैं।
बैंकिंग के इतिहास में 19 जुलाई का महत्व | Importance of 19 July in the history of banking
देश की अर्थव्यवस्था खासकर बैंकिंग के इतिहास में 19 जुलाई का दिन बेहद अहम माना जाता है, क्योंकि 19 जुलाई, 1969 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। उस वक्त ये बैंक देश के बड़े औद्योगिक घराने चला रहे थे। इन बैंकों में सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ इंडिया, पंजाब नैशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, देना बैंक, यूको बैंक, केनरा बैंक, यूनाइटेड बैंक, सिंडिकेट बैंक, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, इलाहाबाद बैंक, इंडियन बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक तथा बैंक ऑफ महाराष्ट्र शामिल थे।
आइए, जानते हैं कि इंदिरा गांधी के इस फैसले के क्रियान्वयन में किसने क्या भूमिका निभाई थी। और बैंकों के राष्ट्रीयकरण का इतिहास क्या है ? (What is the history of nationalization of banks?)
14 निजी बैंकों को राष्ट्रीयकृत करने के अपने फैसले को न्यायोचित ठहराते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि बैंकिंग को ग्रामीण क्षेत्रों तक ले जाना बेहद जरूरी है, इसलिए यह कदम उठाना पड़ रहा है। हालांकि, उन पर आरोप लगा कि उन्होंने अपने राजनीतिक लाभ के लिए यह कदम उठाया था।
12 जुलाई 1969 के बैंगलोर अधिवेशन में इंदिरा गांधी ने देश की बैंकिंग व्यवस्था के बारे में टिप्पणी करते हुये कहा था, कि, निजी बैंकों का जनहित में राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिये। उंस समय देश के वित्तमंत्री मोरार जी देसाई थे। वे निजीकरण के पक्ष में थे। उन्होंने इंदिरा गांधी के इस बयान पर सरकार से त्यागपत्र दे दिया। हालांकि बैंकों के राष्ट्रीयकरण की बात 1960 से ही चल रही थी, क्योंकि निजी बैंकिंग व्यवस्था देश की लोक कल्याणकारी योजनाओं, आकार और चुनौतियों को देखते हुये प्रगति के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे थे। साथ ही निजी बैंक डूबने भी लगे थे।
उंस समय वीवी गिरी देश के कार्यवाहक राष्ट्रपति थे। उन्होंने ही इस अध्यादेश पर हस्ताक्षर किया था। इसके दूसरे ही दिन उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया क्योंकि उन्हें राष्ट्रपति का चुनाव लड़ना था।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मसौदा 24 घण्टे में तैयार किया गया। डीएन घोष जो वित्त मंत्रालय में उप सचिव थे, ने अपनी आत्मकथा में इस बात का वर्णन किया है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय में उप सचिव होते हुए कितने सक्रिय थे और इस फैसले के क्रियान्वयन में अपनी अहम भूमिका निभाई थी। मोरारजी देसाई निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने की प्रधानमंत्री की योजना से बेहद नाराज थे। नाराजगी प्रकट करते हुए घोषणा के एक सप्ताह पहले उन्होंने वित्त मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था।
अध्यादेश का मसविदा तैयार हो जाने के बाद 19 जुलाई को शाम 5 बजे कैबिनेट की बैठक बुलाई गयी। उसी समय कैबिनेट ने इस अध्यादेश को अपनी मंजूरी दी और रात में ही राष्ट्रपति वीवी गिरी के हस्ताक्षर के बाद यह कानून बना और 14 निजी बैंक सरकारी बन गए। रात 8.30 बजे एक राष्ट्रीय प्रसारण में प्रधानमंत्री ने इस निर्णय की घोषणा की। जिन बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया वे देश के अग्रणी कारोबारी घराने जैसे, टाटा, बिरला, पाई और रजवाड़े जैसे बड़ौदा नरेश आदि थे। कुछ को उम्मीद थी कि शायद इंदिरा पर दबाव पड़े पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
प्रधानमंत्री के इस फैसले के क्रियान्वयन में आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर लक्ष्मीकांत झा ने बड़ी भूमिका निभाई थी, लेकिन विडंबना यह रही कि इस फैसले की शायद उन्हें पहले से जानकारी नहीं दी गई थी और वह बाद में इस मुहिम का हिस्सा बने। एलके झा की तरह इंद्रप्रसाद गोर्धनभाई पटेल जो तब आर्थिक मामलों के सचिव थे, प्रधानमंत्री के इस फैसले की घोषणा से महज 24 घंटे पहले इसका मसौदा तैयार करने के लिए कहा गया था।
आरबीआई के पूर्व गवर्नर सी रंगनाथन अपने एक इंटरव्यू में बैंकों के संभावित निजीकरण के मुद्दे पर राष्ट्रीयकरण पर कहते हैं,
"1969 में किए गए बैंकों के राष्ट्रीयकरण का निर्णय कोई आर्थिक निर्णय ही नहीं था, बल्कि इस फैसले में राजनीति की भी भूमिका थी। यह सवाल आज कोई मायने नहीं रखता कि आज हमारे पास सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकिंग प्रणाली है या हमारे कुछ बैंक सरकारी हैं। प्रश्न यह है कि क्या जनता की अंशधारिता 51 % से नीचे की जा सकती है ? 1969 में किया गया बैंकों का राष्ट्रीयकरण देश में बैंकिंग सुविधा के प्रसार की ओर एक बड़ा कदम था। 1990 में बैंकों के सुधार पर जो कदम उठाया गया था को 1969 के बैंकिंग राष्ट्रीयकरण से बहुत मदद मिली। 1969 के राष्ट्रीयकरण से बैंकिग सुविधाओं का प्रसार, नए और ग्रामीण क्षेत्रो में दूर दूर तक हुआ। इसी क़दम से 1991 के बैंकिंग सुधार की नींव पड़ी।"
जिन 14 बड़े बैंकों को राष्ट्रीयकृत किया गया था वे आरबीआई के मानक के अनुरूप सबसे बड़े बैंक थे। जिनमें मूल जमा 50 करोड़ से अधिक का था। जिनमें तब के हिसाब से देश के कुल जमा बैंकिग धन का 85 % जमा था। उसी समय देश में नेशनल और ग्रिण्डलेज जैसे विदेशी बैंक भी थे। उनका भी राष्ट्रीयकरण किये जाने की बात पर विचार किया गया, पर कुछ तकनीकी ओए कूटनीतिक कारणों से उन्हें उस आदेश से अलग रखा गया।
इस अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गयी। 10 फरवरी 1970 को सुप्रीम कोर्ट ने इस अध्यादेश को इस आधार पर निरस्त कर दिया कि यह आदेश स्वेच्छाचारी है और सरकार को आदेश दिया कि वह 9000 करोड़ रुपये का जो मुआवजा राष्ट्रीयकृत बैंकों को दिया गया है वह अपर्याप्त है। लेकिन इंदिरा झुकी नहीं। उन्होंने एक कानून बैंकिग कंपनीज ( एक्वीजिशन एंड ट्रांसफर ऑफ अंडरटेकिंग ) एक्ट 1970, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद ही पारित कर दिया।
अब आज पचास साल बाद बैंकों के पुनः निजीकरण की बात चलने लगी है। हालांकि निजीकरण के पक्षधर पचास साल पहले उठाये गये इस कदम की प्रशंसा करते हुये कहते हैं कि, उस कदम से देश के दूरस्थ जगहों में बैंकिंग व्यवस्था पहुंचाने का एक कठिन और आवश्यक लक्ष्य प्राप्त किया गया, जो देश की आर्थिक प्रगति के लिये जरूरी था। लेकिन वे ये भी कहते हैं कि तब की परिस्थितियों के अनुसार जो उचित था वह तब की सरकार ने किया और आज की परिस्थितियों में जो देशहित में हो वह किया जाना चाहिये।
स्टेट बैंक की पूर्व चेयरपर्सन अरुंधति राय का कहना है कि, राष्ट्रीयकरण से नुकसान के बजाय लाभ अधिक हुआ है, इसमें कोई संशय नहीं है, लेकिन बैंकिंग सिस्टम का यही स्वरूप सदैव के लिये लाभप्रद रहे, यह भी ज़रूरी नहीं है। आगे वे कहती हैं,
"यदि बैंकों के राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य देश के दूरस्थ इलाक़ों में, बैंकिंग सुविधा का पहुंचाना था तो यह उद्देश्य लगभग पूरा कर लिया गया है। अब हम एक ऐसे मोड़ पर आ पहुंचे हैं कि हमे बैंकिंग व्यवस्था के नए स्वरूप की बात सोचनी और करनी होगी, जो जनता को बेहतर, उन्नत और आधुनिक सुविधा दे सके।
इस कदम का विरोध भी हुआ था। उंस समय यह सवाल पुनः प्रासंगिक हो गया था, कि देश के आर्थिक विकास के लिये दक्षिणपंथी मॉडल उपयुक्त रहेगा या वामपंथी मॉडल। इंदिरा का विरोध स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ ने किया था। यह दोनों दल दक्षिणपंथी आर्थिक मॉडल के पक्ष में थे। स्वतंत्र पार्टी तो रजवाड़ों और बडे धनपतियों की ही पक्षधर थी। और उसी समय पूर्व नरेशों का प्रिवी पर्स और अन्य विशेषाधिकार जो उन्हें आज़ादी के समय रियासतों के विलीनीकरण के समझौते के अंगर्गत मिले थे, सरकार ने समाप्त कर दिया था।
जनसंघ की कोई स्पष्ट आर्थिक नीति न तो तब थी और न ही अब उसके नए स्वरूप भारतीय जनता पार्टी के पास है। पर मौलिक रूप से यह दल भी दक्षिणपंथी आर्थिक विकास के मॉडल का पक्षधर है। कांग्रेस में भी जो पुरानी पीढ़ी थी वह भी इस नए बदलाव से असहज थी और उसने भी इंदिरा के इन प्रगतिशील और जनपक्षीय कदमों का विरोध किया। पर जनता ने इन प्रगतिशील कदमों की खुल कर सराहना की और इंदिरा सही मायनों में तब जननेत्री बन गयीं थी।
1969 के साल में घटी, पचास साल पहले की यह घटना, इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन और देश के इतिहास में एक टर्निंग प्वाइंट थी। यह कांग्रेस के विचारधारात्मक बदलाव का भी एक संकेत था। यह इंदिरा का वामपंथी खेमे की ओर झुकाव था। इस कदम ने इंदिरा की छवि गरीब हित की बनायी, जिसने उन्हें तत्कालीन राजनीति में लगभग विकल्पहीन ही बना दिया था। बाद में और भी उद्योग और कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण हुआ पर जो असर आर्थिक विकास के क्षेत्र में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का हुआ, वह किसी अन्य कदम का नहीं हुआ।
लेकिन 1991 में जब आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो, नए और निजी बैंक खुले तथा नियंत्रण मुक्त होकर अर्थ व्यवस्था ने तेज रफ्तार पकड़ ली। देश का विकास हुआ, नौकरियों के अवसर बढे और सकल उत्पाद में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुयी। साथ ही साथ सरकारी बैंकों में जब पूंजीपतियों के लिये ऋण देने में सरकार का बेजा दबाव पड़ा तो बैंक एक नयी समस्या से ग्रस्त हो गए। वह समस्या है कर्ज़ों की नाअदायगी यानी ऐसी धनराशि को एनपीए अनुत्पादक राशि मे रख देना। साल 2009 तक भारत की वित्त व्यवस्था में 8,000 करोड़ रु. का एनपीए सामने आ चुका था।
हालांकि एनपीए तो वित्तीय तँत्र का एक अंग है और दुनियाभर में कोई भी बैंक इस व्याधि से बचा नहीं है। इतिहास में कोई भी ऋण चक्र ऐसा नहीं रहा होगा जिसमें कुछ हिस्सा ऐसे मामलों का न रहा हो जिनमें कर्ज का कभी पुनर्भुगतान हुआ ही नहीं। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, सूचीबद्ध बैंकों का कुल एनपीए 8.5 लाख करोड़ रु. से ज्यादा है. अब आरबीआई ने बैंकों के लिए जानकारी देने के नियम और सख्त कर दिए हैं, लिहाजा इस आंकड़े के और बढ़ने का अंदेशा है। वित्तीय रेटिंग एजेंसी इक्रा ने इसके जल्द ही 9.25 लाख करोड़ रु. के पार जाने और क्रिसिल ने 9.5 लाख करोड़ रु. पहुंचने का अनुमान जताया है. भारत के रक्षा और ढांचागत क्षेत्र के बजटों को मिला लिया जाए तो यह राशि उससे भी ज्यादा है और श्रीलंका के जीडीपी के तकरीबन दोगुने के बराबर है.
अब चूंकि भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में तकरीबन 80 फीसदी हिस्सा सरकारी स्वामित्व वाले 21 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का है लिहाजा इन डूबते कर्जों में भी ज्यादातर उनके ही खाते में जाते हैं।
बैंकिंग व्यवस्था को पटरी पर लाने और इसकी विश्वसनीयता लौटाने के उपाय तलाशने के लिए 2017 के नवंबर में सरकारी बैंकों के पूर्णकालिक निदेशकों और शीर्ष पदाधिकारियों की बैठक 'पीएसबी मंथन' हुई. इसमें नीचे लिखी बातों पर सहमति बनी -
1- यह सुनिश्चित करना कि कड़ी जांच-परख के बाद ऋण मंजूर हो. वैसे तो बैंकों ने ऋण मंजूरी के नियम-कायदे तय कर रखे हैं, लेकिन बढ़ता एनपीए साबित करता है कि इन पर ठीक से अमल नहीं होता. वित्त मंत्रालय की पड़ताल में पता चला कि राजमार्ग से जुड़ी ऐसी कई परियोजनाएं हैं, जिन्हें पर्यावरण संबंधी हरी झंडी मिलने से पहले ही कर्ज बांट दिए गए।
2- पक्का करना कि कर्ज लेने वाले की बैलेंस शीट की गहन जांच-पड़ताल हो और नकद प्रवाह संबंधी सुरक्षा मानक पूरे हों. वित्त मंत्रालय के अधिकारियों के मुताबिक, कई मामलों में बैंकों के पास इतनी विशेषज्ञता नहीं होती कि वे ऋण आवेदकों के कागजात को अच्छी तरह जांच सकें।
नतीजा यह होता है कि वे हवा-हवाई मुनाफे और बढ़ा-चढ़ाकर दिखाए जा रहे आंकड़ों को पकड़ नहीं पाते, जैसा कि कथित तौर पर एस्सार की परियोजनाओं के मामले में हुआ. फिलहाल एस्सार के ये मामले नेशनल कंपनीज लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) के पास हैं।
नकद प्रवाह को सुरक्षित करने का परिणाम यह होगा कि तब यह निगरानी की जा सकेगी कि दी गई राशि का इस्तेमाल किसी दूसरे मद में न हो क्योंकि इस बात का उल्लेख होगा कि उस राशि को कहां खर्च किया जाना है.
3- परियोजना के वित्तपोषण से जुड़े गैर-कोषीय और बाद के जोखिमों पर ध्यान देना.गैर-कोषीय जोखिम बैंक गारंटी और लेटर ऑफ क्रेडिट से जुड़े होते हैं. इसी तरह की कागजी गड़बड़ी के आधार पर नीरव मोदी ने धोखाधड़ी की और इस तरह उसने एक बैंक की गारंटी को दूसरे बैंक से लोन लेने में इस्तेमाल किया।
बाद के जोखिम उन परियोजनाओं से जुड़े होते हैं जो लंबे समय में पूरा होने वाली होती हैं. ऐसे मामलों में आम तौर पर अंततः लागत और समय तय सीमा को पार कर जाते हैं और परमिट का छूटना सीधे-सीधे देनदारी के हालात पैदा कर देता है।
4- सघन विश्लेषण के लिए अनेक नियामक डेटाबेस का इस्तेमाल करना और इसमें तकनीक का इस्तेमाल बढ़ाना.इसी तरीके से सिबिल किसी भी व्यक्ति की क्रेडिट रिपोर्ट तैयार रखता है और इंडस्ट्री बोर्ड अपने क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों की रिपोर्ट रखता है।
ऋण आवेदकों की दी गई जानकारी की अगर इन डेटाबेस से पुष्टि हो पाए तो लोन पर निर्णय करने की प्रक्रिया में सुरक्षा का एक और स्तर शामिल हो जाएगा. साथ ही, संभव है कि इससे बैंकों को ऐसे कॉर्पोरेट कर्जदारों का भी पता चले जिन्होंने जरूरी जानकारी छिपा रखी हो. वित्त मंत्रालय के मुताबिक, यह बात रिलायंस कम्युनिकेशंस पर भी लागू होती है क्योंकि उसने बैंकों को इस बात की जानकारी नहीं दी कि उसने चीन के ऋणदाताओं से मोटी राशि ले रखी है.
5- किसी भी कंसोर्शियम के प्रमुख बैंकों को तकनीकी-आर्थिक मूल्यांकन कराने के लिहाज से क्षमता विकसित करनी चाहिए. सेकंडरी बैंकों से आकलन और पुष्टि में मदद मिल ही जाएगी।
जोखिम के आकलन और इससे जुड़ी निगरानी के मामले में बैंकों की क्षमता बेहद निराशाजनक है. जिस तरह के प्रोजेक्ट आ रहे हैं, उनके लिए तकनीकी जानकारी और क्षेत्र की विशेषज्ञता बहुत जरूरी है. वैसे भी ये जोखिम के आकलन और इनके संभावित आर्थिक पहलू के लिहाज से जरूरी हैं. अगर कोई बैंक किसी परियोजना के संभावित तकनीकी दायरे को नहीं समझ सकता तो वह जोखिमों और लागत का सही आकलन भी नहीं कर सकता।
6- 250 करोड़ रु. से ज्यादा के ऋण के मामलों में पैसे देने के बाद बैंकों को विशेषज्ञों की मदद से परियोजना की निगरानी करनी चाहिए. कंसोर्शियम से जुड़े बैंक जानकारी को साझा करें ताकि सभी को स्थिति का पता रहे।
यह आंशिक रूप से तकनीकी-आर्थिक आकलन वाले बिंदु से जुड़ा है. अब तक बड़े ऋण के मामले में विशेष निगरानी जैसी कोई व्यवस्था न थी, बाहरी विशेषज्ञों से तो बिल्कुल नहीं. बैंकर इसका विरोध कर रहे हैं।
7- किसी एक कंसोर्शियम में केवल नौ बैंक होंगे और किसी ऋण में सहयोगी बैंक 10-10 फीसदी की भागीदारी करेंगे।
देखा जाता है कि कोई डिफॉल्टर आम तौर पर कंसोर्शियम के बैंकों के छोटे बकाये का भुगतान करके बड़ी राशि की अदायगी रोक देते हैं और इस आधार पर राहत मांगते हैं कि उन्होंने कुछ भुगतान कर दिया है. इसके साथ ही, छोटे कंसोर्शियम का प्रबंधन भी आसान होगा और चूंकि ऋण में हर बैंक की पारदर्शी और बराबर हिस्सेदारी होगी, लिहाजा जांच परख आसान होगी।
8- कंसोर्शियम से ऋण मूल्यांकन की एक मानक ऑनलाइन प्रक्रिया हो. वित्तमंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि भारतीय बैंकों (कंसोर्शियम में लोन देने वाले बैंक भी) के पास कई बार भुगतान से जुड़े विलंब की जानकारी को साझा करने की कार्यप्रणाली नहीं होती।
9- ऋण, उसके आकलन, निगरानी और वसूली की जिम्मेदारी का काम अलग-अलग लोगों के हाथ में होना चाहिए. कई बैंकों में ऋण से जुड़ी पूरी प्रक्रिया एक-दो लोगों के हाथ में होती है. इससे मिलीभगत/ भ्रष्टाचार की आशंका बढ़ जाती है और ऋण देने के बाद जरूरी निगरानी नहीं हो पाती।
10- दिवाला और दिवालियापन संहिता में बदलाव करना होगा ताकि एनपीए खाताधारक दिवाला प्रक्रिया के दौरान कंपनी दोबारा न खरीद सकें।
इससे यह निश्चित हो सकेगा कि एनपीए के लिए जिम्मेदार प्रमोटर इसकी भरपाई करें और यह भी कि वे दिवालिया कंपनियों को कौडिय़ों के भाव खरीदकर फायदा न उठा सकें।
11- एनपीए के मामलों को सीधे एनसीएलटी के पास भेजने के लिए आरबीआइ को अधिकृत किया गया है. पहले आरबीआइ के पास इसका अधिकार न था. नतीजा यह होता था कि ऐसी कंपनियां, जिन्हें वह पहले ही डिफॉल्टर घोषित कर चुका होता, राजनैतिक हस्तक्षेप से मामले को लटका देती थीं।
2017 में इस सहमति का क्या असर रहा, यह अभी तक सरकार बता नहीं पायी है। वह इन सब रोगों के निदान के रूप में निजीकरण को देख रही है। इस समय कुछ सरकारी बैंकों के आपस मे बिलयित करने के बाद कुल 11सरकारी बैंक बचे हैं। इनमें से 4 बैंकों को निजी क्षेत्रों में बेचने की बात की जा रही है। यदि इन बैंकों का निजीकरण हुआ तो 7 बैंक पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग में रह जाएंगे। सरकार के पास सभी आर्थिक दुरवस्था का एक ही उपचार, फिलहाल है कि, वह सारी सरकारी संपत्तियों को पूंजीपतियों को बेच दे। अब यह देखना है कि संकट में पड़ी बैंकिंग व्यवस्था, निजीकरण के उपचार से कैसे सुधार की ओर बढ़ती है और बढ़ते एनपीए तथा गिरती बैंकिंग व्यवस्था से सरकार कैसे पार पाती है।
विजय शंकर सिंह
लेखक अवकाशप्राप्त वरिष्ठ आईपीएस अफसर हैं।
/hastakshep-prod/media/post_attachments/g9NZgwcXlpIxEuBPrn5S.jpg)