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The quiver of communalism, the arrow of population control
संघ-भाजपा और उनके घोषित-अघोषित संगियों का नया चुनावी सीजन बाकायदा शुरू हो गया है। ऐसा लगता है कि इस चुनावी सीजन में अपने सांप्रदायिक तरकश से वे ‘‘आबादी नियंत्रण’’ (population control) के तीर का खासतौर इस्तेमाल करने जा रहे हैं। करीब छ: महीने में ही आने जा रहे इस चुनावी चक्र में, संघ-भाजपा का सबसे बड़ा दांव जाहिर है कि उत्तर प्रदेश पर ही लगा हुआ है। स्वाभाविक रूप से उत्तर प्रदेश के योगी राज ने ही इस तीर को आजमाने का सबसे धमाकेदार तरीके से एलान किया है।
इस बार विश्व आबादी दिवस (world population day) पर, 11 जुलाई को मुख्यमंत्री द्वारा ‘जनसंख्या नीति’ (population policy) की घोषणा के साथ, बाकायदा इस खेल का उद्घाटन भी कर दिया गया है। लेकिन, साफ है कि यह तीर सिर्फ उत्तर प्रदेश के लिए ही नहीं है।
योगी सरकार के पीछे-पीछे, उत्तराखंड के नये-नये मुख्यमंत्री बने धामी ने भी, इस खेल में शामिल होने के इशारे किए हैं। उत्तर प्रदेश के साथ ही, उत्तराखंड में भी इसी चक्र में विधानसभाई चुनाव होने हैं।
लेकिन, यह खेल सिर्फ उन भाजपाशासित राज्यों तक ही सीमित नहीं रहने वाला है, जहां अगले चक्र में विधानसभाई चुनाव होने जा रहे हैं। असम की पिछले ही चक्र में दोबारा चुनी गयी भाजपा सरकार के नये मुख्यमंत्री, हेमंत विश्वशर्मा ने अपनी सरकार की प्राथमिकताओं की जो घोषणा की है, उनमें गोरक्षा और तथाकथित लव जेहाद के खिलाफ कानून के संघ-भाजपा के जाने-पहचाने, मुसलमानों को निशाना बनाने के मुद्दों के अलावा, आबादी नियंत्रण या दो बच्चों का नियम भी शामिल है। उन्होंने एलान किया: ‘हमारी सरकार के बने सिर्फ दो महीने हुए हैं। पहले हम गोरक्षा कानून लाएंगे, अगले महीने हम दो बच्चों के नियम को अधिसूचित करेंगे और उसके बाद हम (लव जेहाद के खिलाफ कानून) लाएंगे!’
अचरज नहीं कि इस मुहिम को अखिल भारतीय रूप देते हुए, भाजपा के सांसदों ने संसद के जल्द ही शुरू होने जा रहे सत्र में, आबादी नियंत्रण का मुद्दा गर्माने के इशारे करने शुरू कर दिए हैं। राज्य सभा में मनोनीत एक भाजपायी सदस्य ने, आबादी नियंत्रण के अपने दो साल पुराने निजी प्रस्ताव को फिर से उठाने का एलान किया है, जबकि उत्तर प्रदेश से चुने गए भाजपा के लोकसभा के एक सदस्य ने भी ऐसा ही प्रस्ताव लाने का एलान किया है। यह दूसरी बात है माननीय लोकसभा सदस्य खुद चार बच्चों के पिता बताए जाते हैं।
इसी प्रकार, उत्तर प्रदेश में खुद भाजपा के वर्तमान विधायकों में से आधे से ज्यादा के दो से ज्यादा संतानें हैं। वैसे, ऐसा नहीं लगता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार, आधिकारिक रूप से इन प्रस्तावों का अनुमोदन कर के एक नया विवाद न्यौतना चाहेगी।
वैसे भारत की आबादी को और खासतौर पर बड़ी युवा आबादी को बार-बार विकास के मामले में भारत के लिए अनुकूलता या डेवीडेंट बताने के बावजूद, प्रधानमंत्री मोदी खुद भी 2019 के 15 अगस्त के अपने संबोधन में ‘बढ़ती आबादी’ की चिंता का राग अलाप चुके थे। फिर भी, इंदिरा गांधी की इमर्जेंसी के दौरान और खासतौर पर संजय गांधी की अगुआई में जिस तरह आबादी नियंत्रण के नाम पर जबरन नसबंदी का अभियान चलाया गया था उसके अनुभव के बाद, अब कोई भी सरकार, ‘‘आबादी नियंत्रण’’ के विचार पर इकतरफा तरीके से जोर देती नजर आने से बचना ही चाहेगी। पर मोदी सरकार संसद में उक्त प्रस्तावों का समर्थन भले ही नहीं करे, ‘‘आबादी नियंत्रण’’ की इन पुकारों के विरोध में खड़ी दिखाई देना तो दूर, इन पुकारों को हतोत्साहित करती भी शायद ही दिखाई देना चाहेगी। जाहिर है कि मोदी सरकार संसद से कानून बनवाने के कदम चाहे नहीं उठाए, पर इन पुकारों को हवा देने में पीछे नहीं रहेगी।
इसका संबंध भारत में जनसंख्या के प्रश्न का, खासतौर पर आम जनधारणा के स्तर पर, भाजपा समेत संघ परिवार के विभिन्न बाजुओं द्वारा लंबे समय से चलाए जा रहे अपने अभियान के जरिए इस कदर सांप्रदायीकरण किए जाने से है कि यहां आकर, आबादी की चिंता बिना किसी दुविधा के ‘मुसलमानों के ज्यादा बच्चे पैदा करने’ की और इससे आगे बढक़र, ‘मुसलमानों की बढ़ती आबादी’ की चिंता बन जाती है! अद्र्घसत्य से लेकर सफेद झूठ तक के सहारे, तरह-तरह के सांप्रदायिक प्रचार के जरिए, बराबर पुख्ता की जाती रही इस धारणा के सामने, जनसांख्यिकी के अध्येताओं द्वारा बार-बार सामने लाए गए और अधिकांश गंभीर नीति-निर्माताओं द्वारा भी स्वीकार किए जा चुके, आबादी के प्रश्न के अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं और यहां तक कि तथ्यों तक का कोई अर्थ ही नहीं है। ज्यादा बच्चे होने के गरीबी तथा अशिक्षा व सांस्कृतिक पिछड़ेपन के साथ अब प्राय: सर्वस्वीकृत संबंध को ध्यान में रखने की बात तो यहां हम छोड़ ही देते हैं, हालांकि इसके प्रमाण खुद हमारे देश में केरल जैसे राज्य हैं, जहां आबादी में मुस्लिम अल्पसंख्यकों का अनुपात, उत्तरी भारत के सभी राज्यों से ज्यादा होने के बावजूद, आबादी में वृद्घि की दर बहुत ही कम है क्योंकि वहां की जनता के लिए शिक्षा की स्थिति तथा सार्वजनिक सेवाओं की स्थिति बहुत बेहतर है।
वास्तव में इस धारणा के लिए तो इस तथ्य का भी कोई अर्थ नहीं है कि दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों तथा गरीब व कम शिक्षित हिंदुओं के परिवारों में बच्चों की संख्या समान रूप से, शिक्षित-संपन्नतर तबकों की तुलना में ज्यादा होने के बावजूद, हमारे यहां देश के पैमाने पर दशकीय आबादी वृद्धि दर, पिछले कुछ दशकों में बहुत तथा बढ़ती हुई रफ्तार से घटी है और मुसलमानों के मामले में यह दर, हिंदुओं से भी तेजी से घट रही है।
सचाई यह है कि ताजातरीन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार, पूरे भारत को मिलाकर, टोटल फर्टिलिटी रेट (टीआरएफ) अब 2.1 फीसद के उस स्तर पर पहुंच भी चुकी है, जिसे आबादी के भरपाई का स्तर यानी आबादी के स्थिर हो जाने का स्तर माना जाता है।
हालांकि, उत्तर प्रदेश 2.7 फीसद टीएफआर के साथ, 1.7 फीसद टीएफआर वाले केरल समेत देश के अनेक राज्यों से इस मामले में पीछे है और नयी आबादी नीति में 2026 तक इसे पाने का लक्ष्य बनाया गया है; फिर भी ‘आबादी के विस्फोट’ की तो बात क्या, ‘बढ़ती आबादी सबसे बड़ी समस्या’ होने के योगी जैसे जिम्मेदार पदों पर बैठे नेताओं के दावे भी, बहुत ही अतिरंजित तथा अनुचित नजर आते हैं। लेकिन, संघ-भाजपा की बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक राजनीति के लिए इस ‘‘आबादी की समस्या’’ का दुहरा इस्तेमाल है। एक तो इसके बहाने, इस संदर्भहीन धारणा के सहारे कि मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं, विभिन्न रूपों में इस नैरेटिव के प्रचार के जरिए कि अपनी तेजी से बढ़ती आबादी के जरिए मुसलमान, हिंदुओं पर हावी होते जा रहे हैं और यही चला तो वह दिन दूर नहीं है जब हिंदू अपने देश में अल्पसंख्यक हो जाएंगे या संक्षेप में ‘‘हिंदू खतरे में हैं’’; अपने पीछे बहुसंख्यक समुदाय को गोलबंद किया जा सकता है। दूसरे, खासतौर पर मुसलमानों की वजह से बढ़ती आबादी के बहाने से, मौजूदा सरकार की उन नीतियों का बचाव किया जा सकता है, जिनके चलते मेहनतकश जनता की हालत बद से बदतर हो रही है। असाधारण तेजी से बढ़ती बेरोजगारी और खासतौर पर युवाओं के लिए बेरोजगारी, की ओर से ध्यान हटाने के लिए या उसके लिए जिम्मेदारी से मोदी सरकार तथा राज्यों की भाजपायी सरकारों को भी बचाने के लिए, बढ़ती आबादी यह हिंदुत्ववादी पाठ खासतौर पर जरूरी है।
जाहिर है कि कोरोना महामारी और उसकी भी खासतौर पर दूसरी लहर में कई गुनी बढक़र सामने आ गयीं, मोदी सरकार तथा योगी सरकार समेत विभिन्न राज्यों की भाजपाई सरकारों की घोर विफलताओं और जनता के बढ़ते असंतोष के सामने, आबादी के मुद्दे को उछालकर ध्यान बंटाने की जरूरत और भी बढ़ गयी। याद रहे कि कोरोना की दूसरी लहर की भारी तबाही के बाद भी, न तो नरेंद्र मोदी की सरकार आम जनता के हितों की नजर से स्थितियों में कोई सुधार करने में समर्थ नजर आ रही है और न ही योगी जैसे उसके सूबेदार। टीकाकरण की स्थिति के उदाहरण से ही इस सचाई को आसानी से समझा जा सकता है, जबकि सभी जानते हैं कि टीकाकरण की तेज रफ्तार से ही भारत संभावित तीसरी लहर से बच सकता है, जिसकी विनाशकारी मार पडऩा अन्यथा तय है।
चौतरफा आलोचनाओं तथा विरोध और सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद, नरेंद्र मोदी की सरकार ने 21 जून से टीकाकरण की नीति को बेशक बदला है और उसने 21 जून को करीब 88 लाख टीकों के साथ, टीकाकरण की रफ्तार में समारोही तेजी भी कर के दिखाई थी, लेकिन उसके बाद से टीकाकरण की रफ्तार नीचे ही लुढक़ती रही है। खुद सरकारी आंकड़ों के अनुसार 21 से 27 जून के बीच के हफ्ते में प्रतिदिन औसतन 61.14 लाख टीके लगाए गए। इसके बाद, 28 जून से 4 जुलाई के बीच के हफ्ते में यह संख्या घटकर 41.92 लाख प्रतिदिन पर आ गयी। इसके बाद, 5 से 11 जुलाई के हफ्ते में यही दर और घटकर 34.32 लाख ही रह गयी। इसके बाद की स्थिति का कुछ अंदाजा इस तथ्य से लग सकता है कि राजधानी दिल्ली में भी, कोवैक्सीन के अनेक टीककरण केंद्र एक बार फिर बंद हो गए हैं। ऐसी आपात स्थितियों में भी वास्तव में कुछ भी कर पाने में असमर्थ भाजपा सरकार अगर, जनता का ध्यान बंटाने के मुद्दों का सहारा नहीं लेगी, तो ही आश्चर्य होगा। और अगर चुनाव सामने हो तब तो ध्यान बंटाने के मुद्दों की जरूरत का कहना ही क्या? ऐसे में आबादी नियंत्रण का सांप्रदायिक संदेश काफी काम का साबित हो सकता है।
अचरज नहीं कि योगी सरकार को भी अपनी नयी ‘जनसंख्या नीति’ में ज्यादा बच्चे पैदा होने के, गरीबी तथा अशिक्षा और खासतौर पर महिलाओं के बीच शिक्षा की कमी से संबंध को लेकर, जो स्वयंसिद्ध बातें रस्मीतौर पर कहनी पड़ी हैं, उनसे भी जनसंख्या का मुद्दा प्रमुखता से उठाने के पीछे भाजपा सरकार की मंशा के बारे में कोई संदेह पैदा होने की गुंजाइश नहीं छोड़ी गयी है।
वास्तव में इस जनसंख्या नीति में ही साफ-साफ शब्दों में एलान कर दिया गया है कि इस नीति के पीछे चिंता सिर्फ आबादी के बढऩे की नहीं है। इसीलिए, नयी आबादी नीति में उसका टार्गेट स्पष्ट कर दिया गया है: ‘यह प्रयास किया जाएगा कि विभिन्न समुदायों के बीच जनसंख्या का संतुलन बना रहे। जिन समुदायों, संवर्गों तथा भौगोलिक क्षेत्रों में प्रजनन दर अधिक है, उनमें जागरूकता के व्यापक कार्यक्रम चलाए जाएंगे।’
कहने की जरूरत नहीं है कि ‘विभिन्न समुदायों के बीच जनसंख्या का संतुलन’ बनाए रखने की चिंता, ‘हिंदू खतरे में’ के बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक आख्यान को ही प्रतिबिंबित करती है। इसीलिए, योगी सरकार की घोषित ‘‘आबादी नीति’’ में ‘जागरूकता के व्यापक कार्यक्रम’ चलाने की ही घोषणाओं के बाद भी, यह किसी से छुपा नहीं रहा है कि सारा खेल, आबादी के नाम पर अल्पसंख्यकों को घेरे जाने का है। वास्तव में इस आबादी नीति में ही इसकी घोषणा भी कर दी गयी है कि सरकार, ‘आबादी नियंत्रण’ के लिए नये कानून बनाने जा रही है।
वास्तव में राज्य के विधि आयोग ने, योगी की नयी आबादी नीति की घोषणा से दो रोज पहले ही, ‘आबादी नियंत्रण’ कानून के अपने प्रस्ताव की रूपरेखा उजाकर कर दी थी, जिसमें सारा जोर दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने वालों के लिए सरकारी नौकरियों से लेकर पदोन्नतियों तक और पंचायती निकायों से लेकर स्थानीय निकायों तक के चुनाव लडऩे के दरवाजे बंद करने और उन्हें संभवत: सस्ते राशन समेत, हर प्रकार की सरकारी सहायता व सहूलियों से वंचित कर देने पर है।
हालांकि, राज्य विधि आयोग की ओर से बाद में यह दावा भी किया गया कि उसने योगी सरकार के कहने पर नहीं बल्कि खुद ब खुद आबादी नियंत्रण कानून का प्रस्ताव तैयार किया था, लेकिन इस दावे पर शायद ही कोई विश्वास करेगा। हां! राज्य विधि आयोग का इस तरह की सफाई देना यह जरूर दिखाता है कि योगी सरकार, कम से कम फिलहाल औपचारिक रूप से इस तरह के कानून की प्रस्तावक नहीं बनना चाहती है बल्कि सिर्फ इस मुद्दे को उछालकर अपनी और अपनी पार्टी की हिंदुत्ववादी/ मुस्लिमविरोधी पहचान को चमकाना चाहती है।
अचरज नहीं कि उत्तर प्रदेश विधि आयोग का प्रस्ताव अभी कानून का मसौदा ही है और इस पर जनता से 19 जुलाई तक प्रतिक्रियाएं भी मांगी गयी हैं, फिर भी ऐसा कानून लादे जाने और उसके जरिए अल्पसंख्यकों को खासतौर पर तथा आम तौर पर सभी गरीबों को ही, उनकी गरीबी तथा शैक्षणिक-सांस्कृतिक पिछड़ेपन के लिए सजा दिए जाने की नीयत एकदम साफ है। योगी सरकार को भी ऐसे किसी कानून की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी अपने लिए ऐसे कानून के प्रस्तावक की छवि गढऩे की। जाहिर है कि विधानसभाई चुनाव तक ऐसा कोई कानून बनना और लागू हो पाना संभव ही नहीं है। फिर भी चुनाव से पहले यह सब किया जा रहा है क्योंकि चुनाव के लिए ऐसा कानून लाने वाले की छवि ही काफी है।
प्रस्तावित आबादी नियंत्रण नीति में अगर सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक रूप से वंचितों को दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने से हतोत्साहित करने के नाम पर तरह-तरह से सजा दी जानी है, तो एक ही बच्चा पैदा करने अपेक्षाकृत सामथ्र्यवालों को तरह-तरह के प्रोत्साहन दिए जाने हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि ‘एक ही बच्चे को प्रोत्साहन’ के खतरे, संघ के एक और बाजू, विश्व हिंदू परिषद तक को दिखाई दे रहे हैं और उसने भी राज्य विधि आयोग के मसौदे के इस पक्ष का सार्वजनिक रूप से विरोध करना जरूरी समझा है। वे योगी सरकार के विधि आयोग को इसकी याद दिलाने की हद तक चले गए हैं कि अब तो चीन भी क्रमश: एक और दो बच्चों की नीति के अपने कडुए अनुभव से सीखकर, तीसरे बच्चे का रास्ता बनाने के लिए तैयार हो गया है।
राजेंद्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ पत्रकार, लोकलहर के संपादक व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।