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सहज व स्वाभाविक हैं राहुल गांधी की संवेदनाएं
राहुल गांधी की संवेदनाएं सहज स्वाभाविक हैं। राहुल गांधी से लोग जिस प्यार से मिलते हैं, उसी अपनत्व से राहुल भी उन्हें गले लगाते हैं। यह उनकी वंश परम्परा है। जिसे आज की वैज्ञानिक भाषा में डीएनए कहा जाता है।
मोदी जी अक्सर डीएनए पर सवाल उठाते रहते हैं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी इस पर अक्सर सवाल उठाते रहते हैं। बिहार के डीएनए पर उठा दिया था तो बिहार फिर अपने मूल डीएनए मेल मिलाप, भाईचारे की तरफ लौट गया। तो नेहरु गांधी परिवार में देश की जनता से मिलने उन्हें प्यार से गले लगाने का मूल डीएनए है। इसे नकारात्मक ढंग से पेश करने के लिए वंशवाद कहते हैं। वंशवाद होता था राजाओं नवाबों का। अब होता है सेठों का। लोकतंत्र में नेताओं का वंशवाद नहीं होता। यहां तो चुनाव लड़ना पड़ता है। हर पांच साल बाद जनता का प्रमाणपत्र लेना पड़ता है। हां जिसे कहते हैं कि पूर्वजों के पुण्यों की विरासत, जरूर होती है, जिसे कोई मिटा नहीं सकता। तो ये विरासत मोतीलाल नेहरू, जवाहर, इन्दिरा, राजीव गांधी से होती हुई राहुल तक आई है। और यह कांग्रेस के लिए गौरव की बात है कि राहुल ने इस विरासत को न केवल संभाला, सहेजा है बल्कि समृद्ध भी किया है।
देश के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा
आज चाहे जितने फितूर फैला लें मगर यात्रा देश के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है। मीडिया, कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव से लेकर राजस्थान की चाहे जितनी कहानियां बना लें, लोगों का ध्यान यात्रा से नहीं हट रहा। वे यात्रा के बारे में पूछते रहते हैं। राहुल के बारे में। उसके आकर्षण के बारे में। क्या चुंबक है कि लोग खिंचे चले आते हैं। हजारों हजार लोग यात्रा के साथ चल रहे हैं। बच्चे, वृद्ध, महिलाएं, पुरुष और युवा तो सबसे ज्यादा हैं ही। लोग टूटे पांव के साथ भी चल रहे हैं।
हमें पांव पर प्लास्टर बांधे गाड़ी में अधलेटे एक साहब अपनी पत्नी के साथ त्रिशूर में मिले। यात्रा में गाड़ी चलने की तो जगह ही नहीं है। इतनी भीड़ होती है कि पैदल चलना ही मुश्किल होता है। आप राहुल के पास तक पहुंच भी जाओ और फोन देखने के लिए जरा सा धीमे हो जाओ तो राहुल सौ कदम आगे जा चुके होते हैं। बहुत तेज चलते हैं। उन्हें बार-बार रोका और टोका जाता है। मगर जैसे ही मौका मिलता है गांधीजी की तरह वे लंबे-लंबे डग भरना शुरू कर देते हैं। रोज सुबह का यही झगड़ा होता है। राहुल कहते हैं, 25 किलोमीटर चलें? दिग्विजय, जयराम रमेश, पवन खेड़ा रोज समझाते हैं कि साथ के लोग इतना नहीं चल पाएंगे। हर उम्र के हर तरह कि फिटनेस के लोग हैं। आपके कहने से हमने 20 किलोमीटर से 21 और 22 तो कर दिया है। मगर 25 बहुत ज्यादा हो जाएगा।
इस यात्रा में मजा आ रहा है राहुल गांधी को
राहुल गांधी की अगली यात्रा जो कच्चे रास्तों, गावों से ज्यादा गुजरेगी का प्लान बन रहा है। उसके लिए राहुल ने दो बातें कही हैं। एक वह पूर्व से पश्चिम या पश्चिम से पूर्व हो। दूसरे 25 किलो मीटर प्रतिदिन चलने का लक्ष्य रखा जाए, ताकि ज्यादा से ज्यादा दूरी कवर हो सके। चलते हुए उन्हें लोगों से बात करना अच्छा लगता है। इससे गति कम होती है। फिर उसे बढ़ाने के लिए वे और तेज चलते हैं।
तीन हफ्ते में राहुल ने एक नई छवि बनाई
लोगों से मिलते हुए, उनकी उम्मीदों के जवाब में प्रेम से उन्हें गले लगाते हुए, भरोसा दिलाते हुए राहुल गांधी ने तीन हफ्ते में एक नई छवि बना ली है। इसे तोड़ने के लिए और पीएम मोदी की भी ऐसी ही मानवीय छवि बनाने के लिए भाजपा और मीडिया ने अभी एम्बुलेंस को रास्ता देने और माइक का इस्तेमाल न करने का जबर्दस्त प्रचार किया। लेकिन जनता इससे गदगद नहीं हुई। वह मूर्ख तो बन रही है मगर इतनी नहीं कि यह भी न समझ पाए कि एम्बुलेंस को, बीमार को चाहे वह किसी भी वाहन से या पैदल भी जा रहा हो रास्ता देना तो बहुत ही सहज और अनायास हो जाने वाला काम है। भारत जोड़ो यात्रा में रोज एम्बुलेंसों को रास्ता दिया जा रहा है। हमारे यहां बारात, जो सबसे ज्यादा अड़ियल होती है, वह तक दे देती है। इतना तो सबने सीखा, समझा होता है। युद्ध क्षेत्र में भी घायलों बीमारों की मदद की जाती है। यह देखे बिना कि वह पक्ष का है या विपक्ष का। वहां जरूरत होती है तो एम्बुलेंस भी, चिकित्सा सहायता भी शत्रु पक्ष को दी जाती है। गांवों में बीमार आदमी को कई बार पैदल या पीठ पर ले जाया जाता देखकर कोई भी बैलगाड़ी रुक कर बिठा लेती है। यह कोई विशेष गुण नहीं है। सामान्य मानवीयता है। हां न होने पर जरूर विशेष दोष माना जाता है।
यहां इस तकनीकी मुद्दे पर हम बात ही नहीं कर रहे हैं कि पीएम रूट पर कोई वाहन कैसे आ सकता है। यह सब जानते हैं कि वह संभव ही नहीं है। मगर उसे छोड़ भी दिया जाए तो एम्बुलेंस को रास्ता देना तो फिर भी कानूनन जरूरी है। ट्रैफिक नियमों के मुताबिक अगर आप एम्बुलेंस को रास्ता नहीं देते हैं तो भारी जुर्माने और सज़ा का प्रावधान है। जो काम सहज मानवीयता के नाते और कानूनन करना जरूरी है उसके प्रचार से जनता प्रभावित नहीं होती।
ऐसे ही प्रधानमंत्री के बिना माइक के भाषण का प्रचार करना है। रात को दस के बाद माइक न चलाना इसलिए है कि शोर न हो। पढ़ते हुए बच्चों को व्यवधान नहीं हो। दिन भर के थके लोग आराम कर सकें। मुख्य जोर माइक पर नहीं। शोर, हलचल पर है। माइक तो उसे बढ़ाने का एक माध्यम भर है। उस पर रोक मतलब आप दस बजे के बाद पूर्णत: शांति बनाए रखे। सार्वजनिक कार्यक्रम न करें।
कौन समझाए कि कानून शोर के खिलाफ है, माइक के नहीं। माइक का इस्तेमाल नहीं किया मगर भाषण दिया, तो वही बात है। लेकिन इस तरह प्रचार किया गया जैसे माइक छोड़कर कोई बहुत बड़ा त्याग किया गया हो।
मीडिया अपनी विश्वसनीयता के साथ-साथ पीएम मोदी की इमेज को भी नुकसान पहुंचा रहा
छोटी-छोटी बातों को बड़ा बताने से व्यक्तित्व निर्माण नहीं होता है। पी आर (प्रचार) से बनाई छवि मजबूत नहीं होती है। मीडिया अपनी विश्वसनीयता तो खत्म कर ही रहा है देश के प्रधानमंत्री की इमेज को भी नुकसान पहुंचा रहा है। और सबसे बड़ी बात देश की जनता के लिए बड़े मूल्यों के बदले छोटे और नकली मूल्य स्थापित कर रहा है।
एक प्रधानमंत्री पं. नेहरू थे, जो लोगों की सोच का स्तर उपर उठाने का काम करते थे। जिससे देश में एक बौद्धिक समुदाय, लेखक, कलाकार, पत्रकार, अन्य प्रोफेशनल आगे आए। नई छवि बनी कि भारत के लोग पढ़े लिखे, वैज्ञानिक समझ वाले हैं। अब एम्बुलेंस को रास्ता देकर, माइक का इस्तेमाल न करके गिमिक (नाटकीयता) किया जा रहा है। इससे मानवीय मूल्य कमजोर होते हैं। देश की छवि हल्की होती है। सभ्य, सुसंस्कृत समाज में उच्च मानवीय गुण निरुपित किए जाते हैं। छोटी, दिखावटी बातों से बचा जाता है।
जब तक वसंत न आ जाए तब तक चलते रहो!
राहुल गांधी की छवि खराब करने में हजारों करोड़ रुपया खर्च किया गया। 18 साल से पूरी भाजपा, मीडिया लगी हुई है। सोशल मीडिया अलग है। जो रोज सुबह राहुल का मजाक उड़ाते हुए मैसेज फारवर्ड करना शुरू कर देता है। मगर तीन हफ्ते, सिर्फ तीन हफ्ते की पद यात्रा ने सारी गलत और झूठी बनाई नकली छवि तोड़कर जनता से प्रेम करते, गले मिलते, सहृदय, करुणामयी राहुल गांधी की नई छवि गढ़ दी।
...और याद रखिए अभी तो शुरुआत है। यात्रा वसंत तक जाएगी। सारी ऋतुएं बीत जाएंगी। ऋतुओं का राजकुमार वंसत आएगा। तब तक राहुल चलते रहेंगे। चरैवेति - चरैवेति। भारतीय दर्शन और अध्यात्म का मूल मंत्र। चलते रहो, चलते रहो।
जब तक वसंत न आ जाए। चलते रहो!
शकील अख्तर
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
(मूलतः देशबन्धु में प्रकाशित आलेख)
Rahul Gandhi's Bharat Jodo Yatra drew a big line