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बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी! यह पुरानी कहावत, राजस्थान की मौजूदा कांग्रेस सरकार पर कम से कम फिलहाल तो एकदम फिट बैठती है। बेशक, राज्यपाल के पद पर बैठे (अ) पूर्व भाजपा नेता, कलराज मिश्र ने सरासर अवैधानिक तरीके से तीन-तीन बार ठुकराने के बाद, निर्वाचित सरकार के विधानसभा का विशेष अधिवेशन बुलाने के चौथे अनुरोध को स्वीकार करने की कृपा की है और 14 अगस्त को सत्र बुलाने की घोषणा की है। लेकिन, इस मामले में सामने आयी राज्यपाल की जिद तथा वास्तव में उनके राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में खुले आम सेंध लगाने की अवैधानिकता अपनी जगह, राज्यपाल ने सारी आलोचनाओं के बावजूद इस घोषणा में सिर्फ अपनी शर्त ही नहीं मनवायी है बल्कि जितना बन पड़ा है, अपनी पूर्व-राजनीतिक पार्टी के वर्तमान हितों की सेवा भी कर दी है।
इसका संबंध सरकार के मौजूदा संकट के बीच राजस्थान की विचित्र स्थिति से है।
गहलोत सरकार को गिरवाने के भाजपा के खेल तथा उसमें विधायकों की खरीद-फरोख्त की भूमिका को अगर हम फिलहाल छोड़ भी दें तो, सचिन पायलट गुट की बगावत के बाद सामान्य रूप से मौजूदा सरकार का बहुमत रहने न रहने का ही सवाल उठना चाहिए था। वास्तव में इस कथित बगावत के शुरू के दौर में, बागी खेमे तथा उसकी समर्थक भाजपा की ओर से ठीक यही सवाल उठाया भी जा रहा था और इसके दावे किए जा रहे थे कि कांग्रेस की सरकार ने बहुमत खो दिया है। तार्किक था और बोम्मई केस समेत देश के सर्वोच्च न्यायालय के अनेकानेक फैसलों से भी अनुमोदित है कि मौजूदा सरकार से अपना बहुमत साबित करने के लिए कहा जाए और वह विधानसभा में जल्द से जल्द अपने बहुमत की परीक्षा दे। लेकिन, राजस्थान के मौजूदा मामले में, खुली बगावत के एक-दो दिन में ही जब यह नजर आने लगा कि पायलट खेमे के विधायकों की संख्या 18-19 से बढ़ने नहीं जा रही है और गहलोत के नेतृत्व में जवाबी गोलबंदी के साथ विधानसभा में बहुमत बना हुआ है, तो दृश्य बिल्कुल पलट गया। बागी पायलट कैंप और उसे पीछे से सहारा दिए भाजपा ने, खासतौर पर विधानसभा के स्पीकर के बागियों को पार्टी छोड़ने के लिए अयोग्यता की कार्रवाई का नोटिस दिए जाने के बाद, बगावत से ही इंकार करने का रास्ता अपनाया।
यह दूसरी बात है कि आश्चर्यजनक रूप से असहमति के जनतांत्रिक अधिकार की उनकी दुहाई, हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक को कम से कम विचार के लायक जरूर लगी!
इसके साथ ही सामान्यत: ऐसे मामलों में देखने को मिलने वाली स्थिति के विपरीत, यह दृश्य देखने को मिला कि सरकार तो अपना बहुमत साबित करने के लिए अधीर हो रही थी, जबकि उसे चुनौती देने वाले इस परीक्षा को टालने की ही भरसक कोशिश कर रहे थे। भाजपा के नेता रहे कलराज मिश्र के नियम-कायदों तथा संवैधानिक तकाजों से आगे जाकर, विधानसभा के सत्र को टालने की पूरी कोशिश करने का, ठीक यही संदर्भ था।
Assembly Speaker's action against rebel MLAs
इस सिलसिले में एक तथ्य और जोड़ लेना जरूरी है।
बागी विधायकों के खिलाफ विधानसभा स्पीकर की कार्रवाई, जो हाई कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद वास्तव में कारण बताओ नोटिस से आगे बढ़ ही नहीं पायी, बेशक संबंधित विधायकों की विधानसभा की सदस्यता के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है। लेकिन, उन्हें अगर विधानसभा की मौजूदा सदस्यता का मोल असह्य रूप से ज्यादा लग रहा है, तो इसीलिए कि उन्हें अपनी बगावत, मौजूदा सरकार के गिरने और अपने हाथ में सत्ता आने के रूप में, कम से कम फिलहाल कामयाब होती नजर नहीं आ रही है।
मध्य प्रदेश के सिंधिया प्रकरण तथा उससे भी पहले कर्नाटक के भी ऐसे ही प्रकरण और राजस्थान के वर्तमान प्रकरण में ठीक यही बुनियादी अंतर है। मध्य प्रदेश या कर्नाटक के प्रकरणों के विपरीत, राजस्थान में गहलोत सरकार कम से कम इस पहले धावे को विफल करने में कामयाब नजर आती है। इसीलिए, बागियों को अपनी वर्तमान सदस्यता को बचाने की चिंता है, जबकि मध्य प्रदेश तथा कर्नाटक में वे भावी सदस्यता तथा अन्य लाभों के लिए, वर्तमान सदस्यता की बलि देने के लिए इतने ही उतावले थे।
इतना ही नहीं, राजस्थान में इस बगावत की विफलता इसलिए और भी बड़ी थी कि बागियों के इस्तीफे या अयोग्य घोषित किए जाने की सूरत में, उनके प्रत्यक्ष रूप से गिनती से बाहर होने तथा इस तरह विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा नीचे आ जाने के बावजूद ही नहीं, उसके बिना भी यानी पूर्ण विधानसभा में और बागियों के खिलाफ वोट करने की सूरत में भी, गहलोत सरकार को मामूली बहुमत से ही सही, अपना बहुमत साबित करने की संभावनाएं दिखाई दे रही थीं। उसका बहुमत सिर्फ बागियों की सदस्यता समाप्त होने के भरोसे नहीं था, हालांकि देश का मौजूदा कानून ऐसी किसी भी ‘बगावत’ के लिए सदन की सदस्यता खत्म होने का ही प्रावधान करता है। उसका बहुमत का दावा उनके अपनी बगावत को विधानसभा में सरकार के खिलाफ वोट करने तक ले जाने पर भी, आधे से ज्यादा विधानसभा सदस्यों का समर्थन मिलने की उम्मीद पर आधारित था। और अगर बागी पायलट गुट और उसकी मददगार भाजपा, दोनों में कोई भी अब विधानसभा में शक्ति परीक्षण की मांग नहीं कर रहा था, तो यह गहलोत सरकार की उक्त उम्मीद के विश्वसनीय होने का ही संकेतक था।
फिर भी यह पहले धावे की ही विफलता का मामला है। और तैयारी के साथ अगला धावा करने के लिए, गहलोत सरकार को चुनौती दे रहे पायलट कैंप को और उससे भी बढ़कर उसकी पीठ पर हाथ रखे भाजपा को, फिलहाल कुछ समय चाहिए था, वह भी अपने गठजोड़ की मौजूदा ताकत में किसी कमी के बिना। इसीलिए, एक ओर भाजपा ने बागियों के खिलाफ स्पीकर की कार्रवाई को रोकने के लिए, अपनी सारी कानूनी ताकत झोंक दी, तो दूसरी ओर स्पीकर के जरिए यह सुनिश्चित किया गया कि मौजूदा शक्ति संतुलन के रहते हुए कोई शक्ति परीक्षण नहीं हो। क्योंकि ऐसा शक्ति परीक्षण न सिर्फ छ: महीने के लिए गहलोत सरकार का रास्ता निरापद कर देता बल्कि बागियों की सदस्यता खत्म कराने के जरिए, उसके बहुमत को और पुख्ता भी कर सकता था। जाहिर है कि तीसरी ओर, दलबदल के हथियारों से विधानसभा में ताकतों के इस संतुलन को बदलने की तमाम कोशिशें की जा रही थीं।
राज्यपाल का विधानसभा का सत्र 14 अगस्त तक यानी कम से कम दो हफ्ते और तथा वास्तव में पहली मांग से तीन हफ्ते टलवाना, इसी खेल के लिए समय देने का आखिरी दांव है।
कहने की जरूरत नहीं है कि अब तक भाजपा के खेल को कामयाब नहीं होने देने वाले मुख्यमंत्री गहलोत को, इस बात का बखूबी एहसास है। अचरज नहीं कि विधानसभा सत्र के लिए 14 अगस्त की तारीख तय होने के फौरन बाद, कांग्रेस विधायकों को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री ने दो बातें साफ कर दीं। एक तो यह कि विधानसभा के सत्र की तारीख तय होने के बाद, खरीद-फरोख्त का खेल और तेज हो गया है। विधायकों का रेट बढ़ गया है। पहले जहां दस करोड़ तुरंत और पंद्रह करोड़ बाद में का रेट था, अब मुंहमांगे दाम की पेशकश की जा रही थी। दूसरे, चूंकि इस पहले कारण के चलते भी, सरकार के मौजूदा बहुमत के सत्र शुरू होने तक सुरक्षित रहने की बात को प्रदत्त मानकर नहीं चला जा सकता है, इसलिए उनके समर्थक विधायकों को सत्र शुरू होने तक यानी पंद्रह दिन और युद्ध शिविर में रहना होगा, जहां वे बहुमत का समर्थन प्राप्त सरकार को बचाने की इस खुली लड़ाई के शुरू होने के बाद से यानी पंद्रह दिन से ज्यादा से रह रहे थे। अंतर सिर्फ इतना है कि पहले यह शिविर, राजधानी जयपुर में एक होटल में था, अब सीमावर्ती जैसलमेर में एक रिसोर्ट में होगा। विधायकों की रखवाली के लिए, उन्हें बाकी सब से काटकर एक जगह इकट्ठा रखना, बहुत जरूरी समझा जाता है।
14 अगस्त को विधानसभा का सत्र शुरू होने पर या सत्र के दौरान क्या होता है और संक्षेप में यह कि गहलोत सरकार इस दूसरे धावे को विफल कर पाती है या नहीं, इस पर तो अनुमान ही लगाया जा सकता है। लेकिन इतना तय है कि भाजपा, गहलोत सरकार को चैन से बैठने नहीं देगी। इस बीच उसने बसपा को साथ लेकर, बसपा विधायकों के पिछली साल कांग्रेस में विलय के मुद्दे को दोबारा जिंदा कर दिया है। हालांकि, हाई कोर्ट से विधानसभा के आगामी सत्र से पहले इस सिलसिले में फैसला आने की उम्मीद कम ही है, फिर भी हाईकोर्ट द्वारा स्पीकर तथा संबंधित विधायकों के लिए जारी नोटिसों के जवाब के लिए, सत्र से ठीक पहले की तारीख तय करना भी अकारण तो नहीं है।
एक ही मामले में खारिज किए जाने के बाद दोबारा दी गयी याचिका के एक सदस्यीय बैंच को सोंपे जाने में भी संकेत हो सकते हैं। उच्चतर न्यायपालिका में अब जिस तरह का वातावरण है, उसमें नामुमकिन कुछ भी नहीं है।
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धन्ना सेठों की अपने लिए खुली तिजोरियों से और खासतौर पर गोपनीय राजनीतिक बांडों के रास्ते से, केंद्र में सत्ता में बैठी भाजपा ने बाकी हर तरह की ताकत के ऊपर से, पैसे की इतनी भारी ताकत बटोर ली है कि आज के जमाने में उसके प्रलोभनों से बचना बहुत मुश्किल है। उसके ऊपर से केंद्र में सत्ता में होने के चलते साम, दंड और भेद को भी आजमाने की उसकी ताकत है, जिसे अपना विरोध करने वालों के खिलाफ बाकायदा हथियारों के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा रहा है, जैसे इसी संकट के बीच गहलोत के भाई तथा अन्य नजदीकियों पर प्रवर्तन निदेशालय के छापे। इसके अलावा भाजपा-आरएसएस के प्रति स्वामिभक्त राज्यपाल। सबके ऊपर से, उपकृत करने तथा बाद में उपकृत होने के लिए तैयार उच्च न्यायपालिका और अति-मुखर गोदी मीडिया। इनके समवेत हमले के सामने, पार्टी-आधारिक जनतंत्र के बचने की क्या उम्मीद की जा सकती है? ले
किन, सवाल यह नहीं है कि निरंकुश सत्ता की इस हवस के हमले से गहलोत सरकार या कोई भी विपक्षी सरकार कब तक बच पाती है? सवाल यह है कि जनतंत्र को अपने ही खोखल में तब्दील करने के इस खेल को देशवासी कब तक बर्दाश्त करेंगे?
राजेंद्र शर्मा