Ram Mandir movement and Mandal politics made workers’ voices disappear from Films
मज़दूर दिवस पर कुछ सिनेमा व समाज से
70 और 80 के दशक में समाज में वर्ग चेतना का ठीक-ठाक प्रसार था, मिलें चलती थीं, ग़ैर संगठित तो सदा ही निचले पायदान पर थे मगर संगठित मज़दूर सजगता की ओर बढ़ रहे थे तो सिनेमा भी मज़दूरों को जगह देता था, उनका रोष दिखाता था। अमिताभ बच्चन दीवार, काला पत्थर, आदि कई फिल्मों में मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हुए एक एंग्री यंग मैन के रूप में उभरते हैं।
सलीम-जावेद की जोड़ी उस दौर के निराश, गुस्सैल और सिस्टम को आँख दिखाते युवा का अच्छा चरित्र गढ़ती है।
सन 80 मुम्बई की व्यापक मिल हड़तालों का दौर था जहाँ एक तरफ़ मज़दूरों की एकता संगठित होकर राजनीति पर भी असर ला रही थी तो वहीं राजनीति अन्य आइडेंटिटीज़ जैसे धर्म, जाति व क्षेत्र को वर्ग चेतना के विरोध में ला रही थी। यहीं 80 की फ़िल्मों में हमें मिल से निकाले या मिल बंद होने पर घर बैठे लोगों के किरदार मिलते हैं जैसे फ़िल्म “अर्जुन” में सनी देओल के पिता बने ए. के. हंगल। वहीं सईद अख्तर मिर्ज़ा की “अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है” फ़िल्म की थीम ही मिलों और मज़दूरों के इर्द-गिर्द घूमती है और मिल मालिकों की चाल व समाज के मिल मज़दूरों की हड़तालों पर नज़रिए को दिखाती है, “अरविंद देसाई की अजीब दास्तान” में एक मालिक मज़दूरों के हित की बातें सोचते दिखाया जाता है। वहीं गोविंद निहलानी की “आघात” जिसमें ओम पुरी एक मज़दूर नेता बने थे, मज़दूरों के काम के दौरान के रिस्क, मुआवज़े के हक़, राजनैतिक ताकतों द्वारा आंदोलनों को भ्रमित करने जैसे मुद्दों को सामने लाती है जो उस दौर में मुम्बई व अन्य जगह भी सच में हो रहा था।
दिलीप कुमार की “मज़दूर” जैसी फ़िल्म पूरी तरह ही वर्ग और मज़दूरों के मुद्दों पर आधारित थी।
फिर 90 की शुरुआत में भी कई फ़िल्मों में मिलों, फैक्ट्रियों में मज़दूरों की एकता की झलक साइड स्टोरी में दिखती है जैसे, रंग, लाडला, आदि।
बाद में आर्थिक उदारवाद के बाद उच्च शिक्षा की तरफ़ बढ़ने के लिए कॉलेज आदि के बढ़ते चलन और आधुनिक व्यक्तिवादी चॉइस पर आधारित युवाओं की कहानियों को स्थान मिलने लगा जो 90s के दौर का सच था। जहाँ कॉलेज, बेरोज़गारी, अपनी इच्छा के साथी के लिए समाज की रूढ़ियों को तोड़ने आदि की थीम्स ने साइड स्टोरी के रूप में जगह बनाई। साथ ही अन्य तरह की नौकरियों पर आधारित कहानियाँ सामने आने लगीं। यह वह दौर था जब उदारीकरण, बाज़ारवाद, निजीकरण एक नए युग में आ रहा था, राम मंदिर आंदोलन धार्मिक और मंडल पॉलिटिक्स जातिगत आइडेंटिटी को वर्ग चेतना के ऊपर ला चुके थे। फिर धीरे-धीरे इन तमाम कारणों की परछाईं में सिनेमा और समाज दोनों जगह से संगठित मज़दूरों की आवाज़ और वर्ग चेतना ओझल होती गई।
मोहम्मद ज़फ़र
शिक्षण के क्षेत्र में कार्यरत।

हमें गूगल न्यूज पर फॉलो करें. ट्विटर पर फॉलो करें. वाट्सएप पर संदेश पाएं. हस्तक्षेप की आर्थिक मदद करें