कोविड-19 महामारी (Covid-19 Epidemic,) के खिलाफ भारत के बारूद को गीला किए जाने में, एक घपलेबाजी के तत्व के ही सामने आने की कसर थी। कोरोना वाइरस के रैपिड टैस्ट किट के आयात के घोटाले के उजागर होने से, वह कसर भी पूरी हो गयी है।
बस घोटाले की ही कमी थी
अभी इस घोटाले की पर्तें खुल ही रही हैं। बहरहाल, इतना तो अब तक भी साफ हो चुका है कि टैस्ट किटों की इतनी महत्वपूर्ण तथा नाजुक खरीद, केंद्र सरकार द्वारा या उसकी ओर से आइसीएमआर द्वारा सीधे उत्पादकों से करने के बजाए, बिचौलिया कंपनियों के जरिए की गयी थी। इतना ही नहीं, इसमें बिचौलियों की दो-दो परतें काम कर रही थीं। नतीजा यह कि साढ़े बारह करोड़ रु. के करीब में खरीदी गयी टैस्टिंग किट, आयातकर्ता ने एक और बिचौलिये को 20 करोड़ रु. में बेचीं और इस बिचौलिये ने, जिसने जाहिर है कि मौजूदा शासन में अपनी पहुंच के बल पर, बिना आयात तक पहुंच के ही टैस्टिंग किट मुहैया कराने का आर्डर हासिल कर लिया था, अपनी खरीद से डेढ़ गुने दाम पर, 30 करोड़ रु. में वही टैस्टिंग किट सरकार को बेच दी।
उत्पादक कंपनी से खरीद के ढाई गुना दाम पर यह टैस्टिंग किट खरीदने की सफाई में, सरकार ने दुहरी दलील दी है, जो अपने दोनों पहलुओं में हास्यास्पद है। पहली दलील तो यह कि रैपिड टैस्टिंग किट (Rapid testing kit) की यही सबसे सस्ती पेशकश थी।
याद रहे कि यह दलील इसके बावजूद दी जा रही थी कि कोरियाई कंपनियों से इससे ठीक आधे दाम पर रैपिड टैस्टिंग किट, भारत के ही कुछ राज्यों ने खरीदे थे।
दूसरी दलील यह कि अब जबकि संदिग्ध गुणवत्ता के चलते उक्त आयातित टैस्टिंग किट वापस लौटाए जा रहे हैं, सरकार को इस सौदे में रत्तीभर नुकसान नहीं हुआ है क्योंकि उसने इन किटों के आयात के लिए कोई अग्रिम भुगतान नहीं किया था।
कहने की जरूरत नहीं है मुख्यधारा के मीडिया तथा खासतौर पर इलैक्ट्रिोनिक मीडिया पर अपनी ऑक्टोपसी जकड़ के बल पर मोदी सरकार ने आसानी से इस पूरे प्रकरण को उठने से पहले ही दबा दिया है।
यहां तक कि इस सवाल तक को दबा दिया गया है कि महामारी से लड़ाई के उपायों में भी घोटालेबाजी के पक्ष को अगर छोड़ भी दें तो, इस सौदे के चक्कर में रैपिड टैस्टिंग किटों जैसे अनिवार्य हथियार की अति-प्रतीक्षित उपलब्धता के काफी समय के लिए टल जाने से, महामारी के खिलाफ लड़ाई को लगे धक्के की जिम्मेदारी कौन लेगा?
रही बात प्रधानमंत्री मोदी के ‘‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’’ के दावों की तो, सिर्फ इतना याद दिला देना काफी होगा कि इस ‘‘टैस्ट किट घोटाले’’ को रोकने या पकड़ने में, मोदी सरकार की दूर-दूर तक कोई भूमिका नहीं है। सरकार की छोडि़ए, इसमें मुख्यधारा के मीडिया की भी शायद ही कोई भूमिका है।
यह घोटाला तब उजागर हुआ, जब गुणवत्ता की शिकायतें आने के बाद, बिचौलियों की दो परतों के बीच की लड़ाई अदालत में पहुंच गयी और इस सौदे के विभिन्न पहलू सामने आ गए।
तानाशाहाना तौर-तरीके | Dictator modus operandi
फिर भी, जैसाकि हमने शुरू में ही इशारा किया, घपले-घोटालों का पहलू, मौजूदा सरकार की कारगुजारियों का ऐसा अकेला या सबसे महत्वपूर्ण पहलू नहीं है, जो महामारी के खिलाफ भारत की लड़ाई को कमजोर कर रहा है। इससे कहीं महत्वपूर्ण पहलू, मोदी सरकार का महामारी जैसी स्वास्थ्य इमर्जेंसी (Health emergency) का फायदा उठाकर, अपना तानाशाहाना शिकंजा और ज्यादा कस लेना है। अब जबकि महामारी की चुनौती और उसका मुकाबला करने के इकलौते उपाय के रूप में देशबंदी थोपने के जरिए, असहमति व विरोध की राजनीतिक आवाजों को एक प्रकार से ‘‘पॉज’’ ही किया जा चुका है, एक प्रकार से शासन की सारी शक्तियों को मोदी-शाह जोड़ी ने, अपने हाथों में केंद्रित कर लिया है।
इस अधिनायकवाद का प्रदर्शन केंद्र के स्तर पर और अधिकांश भाजपा-शासित राज्यों में भी, खासतौर पर सीएए-विरोधी आंदोलन के महत्वपूर्ण (स्थानीय) संगठनकर्ताओं के खिलाफ तथा जम्मू-कश्मीर में पत्रकारों के खिलाफ और तथाकथित ‘‘शहरी नक्सली’’ ब्रांड किए गए सामाजिक व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ, महामारी के विरुद्घ लड़ाई के बीच में भी और सरासर अनुपातहीन दमनकारी कार्रवाइयों में तो हो ही रहा है। गौतम नवलखा व आनंद तेलमुम्बड़े से लेकर, डा0 कफील अहमद, दारापुरी, शफूरा जरगर और ऐसे ही दूसरे अनेक लोगों की अति-दमनकारी धाराओं में गिरफ्तारियां, इसी का उदाहरण हैं। कश्मीर को तो खैर, यह सरकार पहले ही भारतीय जनतंत्र के दायरे से बाहर धकेल चुकी थी।
लड़ाई के मोर्चे में सांप्रदायिक सेंध
सभी जानते हैं कि इस सबके पीछे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण/ विभाजन को आगे बढ़ाने का खेल भी है। बेशक यह संयोग ही नहीं है कि कोरोनावाइरस के खतरे को, एक पूरे समुदाय से ही खतरे में बदल दिया गया है। तब्लीगी जमात की गैर-जिम्मेदारी को हथियार बनाकर, खुद सरकार समेत समूचे संघ परिवार द्वारा छेड़ी गयी वाइरस को सांप्रदायिक टोपी पहनाने की इस मुहिम ने, जब तक शेष दुनियाभर में भारत की थू-थू नहीं करा दी और मुस्लिम जगत से कड़ी चेतावनियां नहीं आने लगीं, तब तक न प्रधानमंत्री को इसकी याद आयी और न उनके वैचारिक गुरु, आरएसएस प्रमुख को, कि ‘इस लड़ाई में हम सब का एक होना जरूरी है।’ और इस अपील के भी संघ-परिवार द्वारा महज रस्मअदायगी के ही रूप में लिए जाने का सबूत देते हुए, अगले ही दिन बिहार में बजरंगदलियों ने फल-सब्जी की दूकानों की हिंदू दूकानों के रूप में पहचान कराने के लिए झंडे लगा दिए और उत्तर प्रदेश के एक भाजपा विधायक ने इसकी सार्वजनिक अपील जारी कर दी कि मुसलमानों से सब्जी वगैरह नहीं खरीदें! यह इसके बावजूद है कि एक ग्रुप के रूप में तब्लीगी जमात से जुड़े लोग ही सबसे बड़ी संख्या में, कोरोना संक्रमण से ठीक होने के बाद, इस बीमारी से लडऩे में दूसरे गंभीर रोगियों को बचाने के लिए, अपना रक्त-प्लाज्मा देने के लिए आगे आए हैं। कहने की जरूरत नहीं है मौजूदा शासन द्वारा संरक्षित इस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने, भयावह महामारी से जुड़ी आशंकाओं के साथ जुडक़र, इस महामारी के सामुदायिक प्रसार को रोकने के काम को, बहुत मुश्किल बना दिया है।
लड़ाई में राज्यों का साथ देने से इंकार
उधर केरल समेत कई राज्य सरकारें तो इसकी शिकायत कर रही हैं कि खतरनाक वाइरस के खिलाफ लड़ाई में केंद्र सरकार से कोई अतिरिक्त वित्तीय मदद मिलना तो दूर, जीएसटी क्षतिपूर्ति से लेकर मनरेगा तक, अनेक मदों में राज्यों का बकाया तक केंद्र ने नहीं चुकाया है। इसके अलावा, इस संकट के समय में भी, ऋण लेने के मामले में राज्यों के हाथ बांधकर रखे जा रहे हैं और उनसे सख्ती से केंद्र की थोपी ऋण सीमा का पालन करने के लिए कहा जा रहा है, जबकि केंद्र सरकार खुद फिर भी तरह-तरह के उपायों से, अपने लिए लगी सीमा को खींच-खांचकर बड़ा कर लेती है। इसके ऊपर से प्रधानमंत्री राहत को खाली कर, पीएम केयर के नाम से राजनीतिक सत्ता के शीर्ष से और भी सीधे-सीधे नियंत्रित फंड की ओर सारे सहायता अंशदान मोडऩे के जरिए, न सिर्फ ये सारे संसाधन प्रधानमंत्री के मनमाने नियंत्रण में ले आए गए हैं बल्कि राज्यों का इन साधनों से एक तरह से वंचित ही कर दिया गया है। सरकारी कर्मचारियों के सारे अंशदान ही इस निजी कोष में नहीं भेजे जा रहे हैं बल्कि बेशर्मी से यह एलान भी किया जा चुका है कि कार्पोरेटों के सीएसआर फंड से चंदा भी सिर्फ और सिर्फ इसी कोष में दिया जा सकता है, मुख्यमंत्री सहायता कोषों में नहीं।
केंद्रीयकृत और एकतरफा निर्णय | Centralized and unilateral decision
जनविरोधी रणनीति | Anti-people strategy
बहरहाल, इस सबसे भी बढ़कर कोरोना वाइरस के खिलाफ भारत की लड़ार्ई को कमजोर कर रही है मोदी सरकार की इस लड़ाई की बुनियादी रणनीति। मोदी सरकार सिर्फ और सिर्फ लॉकडॉउन के हथियार से यह लड़ाई लडऩा चाहती है। और इस लॉकडॉउन का पालन भी वह मूलत: कानून और व्यवस्था के तकाजे के तौर पर और सबसे बढ़कर, पुलिस के डंडे तथा बलपूर्वक थोपे जा रहे प्रतिबंधों के जरिए, कराना चाहती है। इसका नतीजा यह है कि लॉकडॉउन की मदद से, संक्रमण के फैलाव की तेजी को कम करने के जरिए जो समय मिला है, उसका टैस्टिंग से लेकर उपचार तक की सामथ्र्य बढ़ाने के लिए जिस तरह उपयोग किया जाना चाहिए था, उसमें भारत पिछड़ता नजर आ रहा है। टैस्टिंग किट घोटाला इसी का एक संकेतक है, जिससे टैस्टिंग तेजी से बढऩे की उम्मीदों पर कम से कम फिलहाल पानी फिर गया है।
इसी का एक और संकेतक, खुद केंद्र की शीर्ष नौकरशाहों के स्तर की बैठक रेखांकित हुई यह सचाई है कि लॉकडॉउन के पूरे एक महीने बाद, 23 अप्रैल तक देश के 183 जिलों में कोविड मरीजों के लिए 100 आइसोलेशन बैड भी नहीं थे, जबकि इनमें से कम से कम 67 जिलों में इस वाइरस के संक्रमण के केस आ चुके थे। इसी प्रकार, 143 जिलों में गंभीर मरीजों के लिए एक भी आइसीयू बैड नहीं था, जबकि इनमें से 47 जिलों में संक्रमण के केस आ चुके थे। इसी प्रकार,123 जिलों में वेंटीलेटर की सुविधा वाला एक भी बैड नहीं था, जबकि इनमें से 39 जिलों में कोरोना संक्रमण के केस (Corona infection cases) आ चुके हैं। यानी इन जिलों में कोरोना के गंभीर मरीज तो पूरी तरह से भगवान के ही भरोसे हैं।
A welcome initiative from Rahul Gandhi
इस सब के चलते, लॉकडॉउन का जो कुछ भी लाभ मिल सकता था, हाथ से निकलता जा रहा है। लेकिन, मोदी सरकार ने चूंकि इस लॉकडॉउन से गरीब मजदूरों-किसानों पर पड़ रही मार की चिंता से खुद को मुक्त ही कर लिया है और गरीबों को उनके हाल पर तथा दानदाताओं के ही भरोसे छोड़ दिया है, उसे लॉकडॉउन जारी रखना ही आसान और सस्ता उपाय लग रहा है। आखिर, उसे लॉकडॉउन के चलते अपनी आजीविका से लेकर, शहरों में छत तक गंवा चुके और भुखमरी के कगार पर पहुंच गए मजदूरों के लिए कुछ करना तो है नहीं, सिवा भाषणों में उनकी चिंता का स्वांग करने के। अचरज नहीं होगा कि मोदी सरकार, सारी दुनिया में (जीडीपी के हिस्से के तौर पर) सबसे कम खर्चे में मुकम्मल लॉकडॉउन कराने वाली सरकार का रिकार्ड बना ले। ऐसे में 3 मई के बाद, कुछ बदलावों के साथ लॉकडॉउन-3 लगा दिया गया है। मुख्यमंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री की ताजा बैठक के संकेत तो ऐसे ही हैं। यह मजदूरों की हालत और खराब कर, कोरोना के खिलाफ देश की लड़ाई को और कमजोर करने का ही काम करेगा।
0 राजेंद्र शर्मा