कृषि कानूनों का निरस्तीकरण : मोदीजी की माफीवीरता किसानों के संघर्ष और बलिदान की पहली उपलब्धि

कृषि कानूनों का निरस्तीकरण : मोदीजी की माफीवीरता किसानों के संघर्ष और बलिदान की पहली उपलब्धि

कृषि कानूनों का निरस्तीकरण : किसानों के संघर्ष और बलिदान की पहली उपलब्धि

Repeal of cruel agricultural laws: the first achievement of the struggle and sacrifices of the farmers

देशबन्धु में संपादकीय आज | Editorial in Deshbandhu today

16 जून 2019 को भारत-पाक के बीच वर्ल्ड कप मैच (world cup match between india pakistan) के बाद पाकिस्तान के क्रिकेट प्रेमी मोमिन साकिब ने पाकिस्तान की हार पर अपनी टीम की कमजोरियों पर दुखी होकर कहा था- एकदम से वक्त बदल दिए, जज्बात बदल दिए, जिंदगी बदल दी, ओ भई मारो, मुझे मारो। उनकी यह प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर खूब चर्चित हुई और इस पर ढेरों मीम्स बने।

क्या सरकार के लिए देश और देश की जनता दोनों मजाक हैं? | Are both the country and the people of the country a joke for the government?

शुक्रवार सुबह जब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अचानक टीवी पर अवतरित होकर माफीवीरता दिखलाई और कहा कि सरकार संसद सत्र में कृषि कानून वापस ले लेगी और इसके बाद दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों से कहा कि आप अपने घर चले जाएं, तो एकदम से वक्त बदल दिए, जज्बात बदल दिए वाली बात ही याद आ गई।

सरकार से तो ये भी नहीं कह सकते कि मारो मुझे मारो। क्योंकि सरकार तो अपने फैसलों से पहले ही मार रही है। ऐसा लग रहा है कि सरकार के लिए देश और देश की जनता दोनों मजाक हैं। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी जब-तब अपने फैसलों की आजमाइश हम पर करते रहते हैं। उनका मन होता है अचानक नोटबंदी का ऐलान कर देते हैं, आधी रात को संसद लगाकर जीएसटी लागू कर देते हैं, कभी लॉकडाउन लगा दिया, और कभी कृषि कानून बना दिए और अब उन्हें अचानक कृषि कानून वापस लेने का ऐलान कर दिया।

फैसले लेने और सुनने के लिए पीएम मोदी संसद नहीं टीवी चैनलों को चुनते हैं

70 सालों में कांग्रेसी और गैरकांग्रेसी, एकल या गठबंधन, सब तरह की सरकारें देश में रहीं, जिनमें फैसले मिलजुल कर लिए जाते रहे। फैसले लेने और उनके ऐलान के लिए संसद का उपयोग किया जाता रहा। मगर प्रधानमंत्री मोदी ने फैसले लेने और सुनने के लिए टीवी चैनलों को चुना। कृषि कानून तो चुपके से पास करा दिए गए थे, लेकिन उनकी वापसी का ऐलान मोदीजी ने टीवी पर आकर किया। और इसमें भी किसानों को ही गलत बताने की कोशिश उन्होंने की।

मोदीजी के मुताबिक कृषि कानून अच्छे हैं, लेकिन कुछ किसानों को वे समझा नहीं पाए।

मोदीजी का कहना है कि मैं आज देशवासियों से क्षमा मांगते हुए सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूं कि शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रही हुई होगी जिसके कारण दीये के प्रकाश जैसा सत्य कुछ किसान भाइयों को हम समझा नहीं पाए।

जिस किसी ने मोदीजी के लिए इन पंक्तियों को लिखा है, उसने बड़ी चालाकी से क्षमा का इस्तेमाल किया है, क्योंकि मोदीजी ने देशवासियों से क्षमा तो मांगी है, लेकिन ये समझ नहीं आ रहा कि वे माफी किस बात की मांग रहे हैं। क्या इस बात की कि वे किसानों को समझा नहीं पाए। इस तरह तो किसानों को ही गलत साबित किया जा रहा है। तो दूसरे पक्ष को गलत साबित कर माफी मांगने का क्या मतलब होता है। माफी तो तब मांगी जाती है जब आप अपनी गलती मानें।

प्रधानमंत्री के इस तरह माफी मांगने के अंदाज से तो क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात, वाली भावना झलक रही है। जिसमें मोदीजी अपना बड़प्पन दिखाने की कोशिश कर रहे हैं और आंदोलनकारी किसानों को छोटा साबित करने की मंशा नजर आ रही है।

  • क्या मोदीजी ने किसानों को नासमझ और अंधा नहीं कहा?

इससे पहले मोदीजी के मुख्यमंत्रित्व और प्रधानमंत्रित्व काल में कई घटनाओं और फैसलों से आम जनता को कष्ट पहुंचा, लेकिन मोदीजी ने कभी माफी मांगना जरूरी नहीं समझा, न कभी अपनी गलती भी मानी। और इस बार माफी से ये बताने की कोशिश की वे कुछ किसानों को यह समझाने में नाकाम रहे कि कृषि क़ानून उनके लिए कितने हितकारी थे। 'दीए के प्रकाश जैसा सत्य' भी कुछ लोग नहीं देख पा रहे तो इसका मतलब तो यही हुआ कि जिन्हें सत्य नहीं दिखाई दे रहा वो 'मूर्ख' और 'अंधे' हैं।

मोदीजी ने भले सीधे-सीधे शब्दों में किसानों को नासमझ और अंधा नहीं कहा, लेकिन जो कहा उसका मतलब यही निकल रहा है।

प्रधानमंत्री ने अपने 18 मिनट के भाषण का शुरुआती आधा समय यही बताने में गुज़ार दिया कि उनकी सरकार ने किसानों के लिए क्या-क्या काम किया है। इसके बाद वे असल मुद्दे पर आए और कहा कि कृषि क़ानून भी उसी किसान कल्याण की दिशा में एक क़दम थे।

आखिर में उन्होंने कहा कि हमने तीन कृषि क़ानूनों को वापस करने का निर्णय लिया है।'

इस आखिर बात में यह उलझन बनी रह गई कि आखिर मोदीजी ने जो कुछ कहा, वो किसके लिए कहा और किसके फायदे के लिए कहा।

क्योंकि सरकार के मुताबिक जिन क़ानूनों से देश के 'सभी किसानों और ख़ासकर छोटे किसानों' को अत्यंत लाभ होना था, उनकी गरीबी मिट जानी थी और जिन कानूनों को 'करोड़ों किसानों' और 'कई प्रगतिशील किसान संगठनों' का समर्थन प्राप्त था, उन 'बेहद फ़ायदेमंद' क़ानूनों को 'कुछ' किसानों के आंदोलन के चलते क्यों वापस लिया जा रहा है? क्या कोई सरकार ऐसा कोई क़दम वापस लेती है जिसको 95 प्रतिशत लोगों का समर्थन हो और केवल 5 प्रतिशत लोग विरोध कर रहे हों? अगर ऐसा है तो सरकार को सीएए, एनआरसी, कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति जैसे बाकी फैसलों को क्योंकि 'कुछ' लोग ऐसा ही चाहते हैं।

जाहिर है सरकार ने 'कुछ' किसानों के विरोध की परवाह नहीं की है, बल्कि उसकी निगाह आगामी विधानसभा चुनावों पर है, जिसमें यह विरोध भाजपा पर भारी पड़ सकता है। इसलिए अभी कानून वापसी का दांव चला गया है।

हालांकि किसानों को अब भी सरकार पर भरोसा नहीं है। और जब साक्षी महाराज या कलराज मिश्रा जैसे लोगों के इस आशय के बयान आते हैं कि कानून वापस भी लाए जा सकते हैं, तो फिर किसानों का सरकार पर अविश्वास गलत भी नहीं लगता।

फिलहाल संयुक्त किसान मोर्चे ने तय किया है कि अभी आंदोलन खत्म नहीं होगा क्योंकि कानून वापसी के अलावा भी एमसएपी पर गारंटी जैसी किसानों की दूसरी मांगें हैं, जिस पर सरकार को सोचना होगा।

किसानों की 22 नवंबर को लखनऊ महापंचायत, 26 को किसान आंदोलन के एक साल पूरे होने की वर्षगांठ और 29 को संसद भवन तक ट्रैक्टर मार्च का निकलना तय है।

बहरहाल, कृषि कानून वापसी किसानों के अथक संघर्ष और बलिदानों की पहली उपलब्धि है। अहंकार को लोकतंत्र के आगे घुटने टेकते देखना सुखद है। देखना होगा कि किसान अब अपनी लड़ाई को किस तरह आगे जारी रख पाते हैं और मोदीजी माफी मांगने के बाद अब वीरता का कौन सा नमूना देश को दिखाते हैं।

आज का देशबन्धु का संपादकीय (Today’s Deshbandhu editorialका संपादित रूप साभार.

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