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सुप्रीम कोर्ट का महानुभावों के वारिसों को न मिले आरक्षण, कटाक्ष पूर्वाग्रह से ग्रसित
संकट की इस घड़ी को आरक्षण पर हमले के मौके के बतौर इस्तेमाल किया जा रहा
ऐसा नहीं है आरक्षण पाने वाले वर्ग की जो सूची बनी है वह पवित्र है उसे छेड़ा नहीं जा सकता, बोलने वाले सुप्रीम कोर्ट का उद्देश्य पवित्र नहीं
आरक्षण की लड़ाई को आरक्षित वर्गों के भीतर के संघर्ष का मसला बना देने की हो रही है साजिश
सुप्रीम कोर्ट क्या यह समीक्षा करवाएगा कि एससी, एसटी और ओबीसी का प्रतिनिधित्व आबादी के अनुपात में काफी कम क्यों है
लखनऊ, 29 अप्रैल 2020. कोरोना महामारी और लॉकडाउन (Corona Epidemic and Lockdown) के बीच सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण के मसले पर सुनवाई की तत्परता पर सवाल उठाते हुए बिहार और उत्तर प्रदेश के बहुजन संगठनों ने संयुक्त बयान जारी करते हुए कहा कि लॉकडाउन में विभिन्न राज्यों में फंसे भूख-बदहाली झेल रहे प्रवासी मजदूरों और गरीबों-दलितों के प्रति सुप्रीम कोर्ट केन्द्र सरकार के पीछे खड़ा होकर संवेदनहीनता-उदासीनता प्रदर्शित कर रही है. वहीं इस महामारी के दौर में भी आरक्षण के मसले पर सुनवाई में सक्रियता दिखा रही है. मेहनतकश बहुजनों के जीवन रक्षा के सवाल के बजाए आरक्षण के दायरे में गरीबों के प्रति ज्यादा चिंता व गंभीरता सामने ला रही है. दरअसल इस चिंता के बहाने संकट की इस घड़ी को आरक्षण पर हमले के मौके के बतौर इस्तेमाल किया गया है. क्योंकि उनको लगता है लॉक डाउन में इसका प्रतिरोध नहीं होगा.
With the coming of Narendra Modi's center in power, the Brahminical character of the Supreme Court has also come to the fore.
संगठनों का मानना है कि नरेन्द्र मोदी के केन्द्र की सत्ता में आने के साथ ही सुप्रीम कोर्ट का ब्राह्मणवादी चरित्र भी खुलकर सामने आ गया है. ब्रह्मणवादी सवर्ण वर्चस्व को मजबूत करने के भाजपा-आरएसएस के एजेंडे को सुप्रीम कोर्ट लागू कर रही है. केन्द्र सरकार के साथ लगातार कदमताल कर रही है. यह खतरनाक है, शर्मनाक है.
आंध्र प्रदेश में अनुसूचित क्षेत्रों के स्कूलों में टीचर की नियुक्ति में एसटी उम्मीदरवार को 100 फीसदी आरक्षण के राज्यपाल के वर्ष 2000 के आदेश को निरस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट की अरुण मिश्र की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ द्वारा एससी,व एसटी और ओबीसी के लिए जारी आरक्षण व्यवस्था पर की गई टिप्पणी को विभिन्न संगठनों ने घोर बहुजन विरोधी-संविधान विरोधी बताते हुए कहा है कि -
सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने एससी, एसटी और ओबीसी के गरीबों के प्रति चिंता की आड़ में फिर से संविधान में निहित आरक्षण के मूल अवधारणा पर हमला किया है. सुप्रीम कोर्ट की टिपण्णी का आधार आर्थिक है, जबकि संविधान में एससी,एसटी व ओबीसी के आरक्षण का आधार आर्थिक नहीं है. बल्कि शासन-सत्ता के विभिन्न संस्थाओं व शिक्षा सहित अन्य क्षेत्रों में ऐतिहासिक वंचना के शिकार इन समूहों के प्रतिनिधित्व की गारंटी से जुड़ा हुआ है. आरक्षण सामाजिक न्याय से जुड़ा मसला है, न कि आर्थिक न्याय से.
रिहाई मंच, सामाजिक न्याय आंदोलन(बिहार), बहुजन स्टूडेंट्स यूनियन(बिहार), बिहार फुले-अंबेडकर युवा मंच, अतिपिछड़ा अधिकार मंच, अब-सब मोर्चा, राष्ट्रीय सामाजिक न्याय और सामाजिक न्याय मंच(यूपी) ने कहा कि हम इसका पुरजोर विरोध करते हैं.
ओबीसी और एससी/एसटी समुदाय के धनाढ़्यों से इतर जरूरतमंदों को आरक्षण का लाभ न मिलने पर चिंतित सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ द्वारा आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा करने की टिपण्णी पर संगठनों ने कहा है कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम नहीं है और न ही रोजगार मुहैया कराने से जुड़ा मसला है.
जारी प्रेस बयान में विभिन्न संगठनों ने कहा है कि समीक्षा तो इस बिंदु पर होनी चाहिए कि आखिर आज तक शासन-सत्ता की संस्थाओं, शैक्षणिक संस्थानों, न्यायपालिका, मीडिया व विभिन्न क्षेत्रों में एससी, एसटी और ओबीसी का प्रतिनिधित्व आबादी के अनुपात में काफी कम क्यों है? लेकिन सुप्रीम कोर्ट लगातार एससी,एसटी और ओबीसी के आरक्षण पर हमला कर रही है और ब्राह्मणवादी सवर्ण वर्चस्व को बढ़ाने का काम कर रही है. पिछले दिनों ही उत्तराखंड के एक मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की मूल भावना के खिलाफ टिप्पणी करते हुए कहा था कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है, यह राज्यो़ं के विवेक से जुड़ा मसला है.
संगठनों ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि राज्य सरकारें मुस्तैदी दिखाकर एससी-एसटी की सूची में फेर-बदल को तार्किक तरीके से अंजाम दें, संविधान विरोधी है. राज्य सरकारों को यह अधिकार नहीं है.
संगठनों का मानना है कि जरूरतमंदों तक लाभ नहीं पहुंचने और एससी, एसटी और ओबीसी के आरक्षित वर्गों के भीतर पात्रता को लेकर संघर्ष चलने की टिप्पणी के जरिए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सवर्णों द्वारा हकमारी को ढंकने और आरक्षण की लड़ाई को आरक्षित वर्गों के भीतर के संघर्ष का मसला बना देने की साजिश की है. यह खतरनाक है.
आज भी केन्द्र सरकार की नौकरियों में ग्रुप ए में सिर्फ 8.37 प्रतिशत लोग ही ओबीसी समुदाय से हैं. ग्रुप बी में 10.01 और सी में प्रतिनिधित्व 17.98 फीसदी ही है. ग्रुप ए के 74.48 प्रतिशत, ग्रुप बी के 68.25 प्रतिशत और ग्रुप सी के 56.73 प्रतिशत नौकरियों पर आज भी सवर्णों का कब्जा है.
आंध्र प्रदेश मामले में 100 फीसदी आरक्षण के खिलाफ संविधान पीठ द्वारा साल 1992 में इंदिरा साहनी फैसले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय अधिकतम 50 फीसदी आरक्षण का हवाला देने पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए विभिन्न संगठनों ने कहा है कि पहले ही आर्थिक आधार पर लागू 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण ने इस सीमा को तोड़ दिया है. आज तक सुप्रीम कोर्ट ने इस पर टिप्पणी नहीं की है, जबकि सवर्ण आरक्षण के खिलाफ कई याचिका सुप्रीम कोर्ट डाली गई है. अभी तक उन याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की जरूरत नहीं समझी है. यहां भी सुप्रीम कोर्ट का दोहरा चरित्र साफ सामने आ रहा है.
बहुजन संगठनों की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी की भाषा भी कटाक्ष और पूर्वाग्रह से भरा हुआ है. आरक्षण एससी, एसटी और ओबीसी का संवैधानिक हक है, कोई सरकारी खैरात नहीं!
संगठनों ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के बहुजन विरोधी-संविधान विरोधी चरित्र को बदलने के लिए यह जरूरी हो गया है कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए जारी कॉलेजियम सिस्टम को खत्म किया जाए और एससी, एसटी और ओबीसी के प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण व्यवस्था बहाल हो. वहां खास जाति-समूह और परिवारों का ही कब्जा है. देश की सर्वोच्च न्यायालय में 33 फीसदी जज और हाईकोर्ट के 50% जज ऐसे हैं, जिनके परिवार के सदस्य पहले ही न्यायपालिका में उच्च पदों पर रह चुके हैं.
रिहाई मंच के राजीव यादव, बहुजन स्टूडेंट्स यूनियन(बिहार) और बिहार फुले-अंबेडकर युवा मंच के संरक्षक डॉ विलक्षण रविदास, सामाजिक न्याय आंदोलन(बिहार) के रिंकु यादव, गौतम कुमार प्रीतम, रामानंद पासवान, अतिपिछड़ा अधिकार मंच के नवीन प्रजापति, अब-सब मोर्चा के संस्थापक हरिकेश्वर राम, राष्ट्रीय सामाजिक न्याय के डॉ राजेन्द्र यादव और सामाजिक न्याय मंच(यूपी) के बलवंत यादव औऱ बांके लाल यादव ने संयुक्त तौर पर कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के अरुण मिश्र की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ के फैसले और टिप्पणी के खिलाफ तमाम दलित-आदिवासी और पिछड़े सांसद जुबान खोलें और विपक्षी पार्टियां भी इस मसले पर अपना पक्ष स्पष्ट करें.
संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के एससी, एसटी और ओबीसी आरक्षण पर संविधान की मूल भावना के खिलाफ हाल में किए गए फैसलों व टिप्पणियों के खिलाफ केन्द्र सरकार से अविलंब अध्यादेश लाने के साथ आरक्षण को संविधान की 9वीं अनुसूची में डालने की मांग की है.