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दावे विश्व गुरु के : काम अनपढ़ रखने के

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hastakshep
21 Mar 2021
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दावे विश्व गुरु के : काम अनपढ़ रखने के

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Resignation of PB Mehta and Arvind Subramaniam from Ashoka University

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यह मोदी सरकार की शिक्षा नीति (Modi government's new education policy) के किसी खास प्रावधान का नतीजा भले न हो, पर अमल में इस सरकार की शिक्षा नीति के सार को जरूर दिखाता है। देश में ‘उदार शिक्षा पर केंद्रित’ और ‘सर्वोच्च बौद्धिक तथा अकादमिक स्तर कायम रखने के लिए प्रतिबद्ध’ तथा ‘भारत में सामूहिक सार्वजनिक परमार्थ के अभूतपूर्व उदाहरण’ बने निजी विश्वविद्यालय के रूप में बहुत धूम-धड़ाके के साथ स्थापित, दिल्ली राजधानी क्षेत्र में स्थित अशोका यूनिवर्सिटी (Ashoka University located in the National Capital Territory of Delhi) के अपना पहला दशक पूरा करने से पहले ही, उसके भविष्य पर गंभीर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। इस विश्वविद्यालय से जुड़े ताजातरीन घटनाक्रम पर अपनी संपादकीय टिप्पणी में, एक अंग्रेजी राष्ट्रीय दैनिक ने तो बाकायदा यह निष्कर्ष ही प्रस्तुत कर दिया है कि, ‘दु:खद है कि (यह विश्वविद्यालय) पहले ही नीचे खिसक रहा है।’

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प्रताप भानु मेहता को इस्तीफा क्यों देना पड़ा?

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अशोका विश्वविद्यालय से जुड़े ताजातरीन घटनाक्रम का संबंध, पहले इसी विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी रहे, जाने-माने विद्वान तथा सार्वजनिक टिप्पणीकार, प्रताप भानु मेहता के प्रोफेसर के पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिए जाने से है। उसके बाद से, मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में उसके मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे और उसके बाद से वर्तमान सरकार की अनेक नीतियों के प्रति आलोचनात्मक रुख अपना रहे, अरविंद सुब्रमण्यम ने भी इस विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के पद से यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया है कि यह विश्वविद्यालय ‘...अब अकादमिक अभिव्यक्ति तथा स्वतंत्रता की गुंजाइश मुहैया नहीं करा सकता है।’

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मेहता के शुरू में अपने इस्तीफे के कारण नहीं बताने की पृष्ठभूमि में, सुब्रमण्यम के बयान ने ही परोक्ष रूप से इसकी आशंकाओं की पुष्टि कर दी थी कि इस्तीफा प्रकरण का संबंध, मौजूदा सरकार की मेहता की सार्वजनिक आलोचनाओं से है।

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इस बीच, इस पूरे घटनाक्रम से आंदोलित, अशोका विश्वविद्यालय के छात्रों ने खोज-बीन कर के उजागर कर दिया है कि वास्तव में मेहता को इस्तीफा क्यों देना पड़ा?

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अब यह सचाई सबके सामने आ चुकी है कि इस फैंसी विश्वविद्यालय के धनी कर्ताधर्ताओं ने, मोदी सरकार के दबाव में प्रोफेसर मेहता को विदाई दी है।

याद रहे कि अशोका विश्वविद्यालय का परिसर, हरियाणा के अंतर्गत सोनीपत में आता है और विश्वविद्यालय प्रबंधन परिसर के विस्तार के लिए, सरकार से आस-पास में ही जमीन का एक और प्लाट जुटाने की प्रार्थना कर रहा था। लेकिन, सरकार की ओर से उसे स्पष्ट शब्दों में बता दिया गया था कि जब तक प्रताप भानु मेहता जैसे मोदी सरकार के आलोचक अशोका विश्वविद्यालय के साथ जुड़े हुए हैं, उसे जमीन नहीं दी जाएगी। अब विश्वविद्यालय के कर्ताधर्ताओं को विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय विस्तार की अपनी योजना और साफ तौर पर सरकार के निशाने पर आ चुके, स्वतंत्र विचार के एक बुद्धिजीवी की अपनी फैकल्टी में मौजूदगी में से किसी एक का चुनाव करना था। और जाहिर है कि उन्होंने विश्वविद्यालय के लिए जमीन हासिल करने के लिए सरकार को खुश करना चुना और विचार व बौद्धिक स्वतंत्रता के आग्रह की बलि दे दी।

बेशक, ‘सर्वोच्च बौद्धिक तथा अकादमिक स्तर कायम रखने’ की प्रतिबद्धता का दावा करने वाले इस फैंसी निजी विश्वविद्यालय के सरकार की नाखुशी के सामने समर्पण करने का यह पहला ही मामला नहीं था। वास्तव में मेहता से इससे पहले वाइस चांसलर के पद से इस्तीफा भी सरकार की नाखुशी के ऐसे ही दबाव में लिया गया था। उस समय सौदा इस विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ इमीनेंस यानी विशेष रूप से प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय बनाए जाने के मौके का था।

सभी जानते हैं कि मोदी सरकार ने उच्च शिक्षा के साथ अपने अविचारपूर्ण नुमाइशी तजुर्बों के हिस्से के तौर पर, मुट्ठीभर विश्वविद्यालयों को इंस्टीट्यूट ऑफ इमीनेंस (Institute of Eminence) के रूप में प्रतिष्ठित करने का जो फैसला लिया था, उसका मकसद मुश्किल से दर्जन भर विश्वविद्यालयों को उक्त अभिजात श्रेणी के रूप में स्थापित करना ही नहीं था बल्कि इस श्रेणी के हिस्से के तौर पर निजी विश्वविद्यालयों को प्रतिष्ठित करना भी था। जब ऐसे संस्थानों की पहली खेप में निजी संस्थाओं के तौर पर अंबानी के प्रस्तावित विश्वविद्यालय तक को शामिल किया गया था, तो अशोका जैसे चर्चित विश्वविद्यालय का इस दर्जे के लिए उम्मीदवार होना स्वाभाविक ही था। लेकिन, इंस्टीट्यूट आफ इमीनेंस का दर्जा देने के विवादास्पद मानकों में ‘आलोचनात्मक दृष्टि’ को हतोत्साहित करने वाले स्पष्ट प्रावधानों के अलावा, केंद्र सरकार के शिक्षा नियंत्रकों द्वारा इस विश्वविद्यालय को स्पष्ट रूप से बता दिया गया था कि मेहता जैसे सरकार के आलोचकों के वाइस चांसलर जैसे नेतृत्वकारी पद रहते हुए उन्हें, इंस्टीट्यूट ऑफ इमीनेंस का तमगा हासिल करने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए।

अचरज की बात नहीं है कि इसके कुछ ही समय बाद मेहता, ‘पढ़ने-पढ़ाने के उद्यम में पूर्णकालिक वापसी’ के निजी कारण से, वाइस चांसलर के पद से इस्तीफा दे चुके थे। लेकिन, जाहिर है कि मेहता जैसे सरकार के मुखर आलोचक का वाइसचांसलर के पद से हटना ही काफी नहीं था, जिसका सबूत इसके बावजूद इंस्टीट्यूट आफ इमीनेंस का तमगा उससे दूर ही रहना है।

अब मेहता की इस विश्वविद्यालय से पूरी तरह से विदाई से, आशोका यूनिवर्सिटी जैसी निजी शिक्षा संस्थाओं के लिए इसका संदेश मुकम्मल हो गया है कि मौजूदा सरकार के किसी भी मुखर आलोचक की मौजूदगी, भले ही वह किसी प्रशासनिक पद पर नहीं हो और शुद्ध रूप से आदमिक भूमिका में ही हो, ऐसी संस्था को ही वर्तमान सरकार की हिट लिस्ट पर बनाए रखेगी।

प्रताप भानु मेहता को मोदी से उम्मीदें बहुत थीं

प्रसंगत: इस संदर्भ में एक और तथ्य को भी याद कर लेना चाहिए। प्रताप भानु मेहता कोई हमेशा से मोदी या उनकी सरकार के आलोचक नहीं थे। 2002 के गुजरात के अल्पसंख्यकविरोधी नरसंहार से लेकर, सरासर कार्पोरेटपरस्त तथा मजदूर-मेहनकशविरोधी ‘गुजरात विकास मॉडल’ तक को देखते हुए, धर्मनिरपेक्ष तथा जनतंत्रप्रेमी अकादमिकों का जो एक हिस्सा शुरू से ही मोदी की प्रधानमंत्री के पद पर पारी के प्रति आलोचनात्मक रुख अपनाए रहा था उससे भिन्न, मेहता ऐसे थोड़े से ही नामी-गिरामी अकादमिकों में से थे, जिन्हें शुरू में मोदी राज से काफी उम्मीदें थीं।

बहरहाल, मोदी राज को अपेक्षाकृत नजदीक से देखने से मेहता को यह समझने में देर नहीं लगी कि गुजरात में नरेंद्र मोदी के एक दशक से लंबे राज के सिलसिले में किए जाने वाले दावों और मोदी के वादों के विपरीत, इस राज का वास्तविक एजेंडा कुछ और ही है। इस राज में न अकादमिकों की स्वतंत्रता की कोई जगह है और न अकादमिक योग्यता की कोई कदर।

नेहरू मेमोरियल म्यूजियम तथा लाइब्रेरी की कार्यकारिणी की सदस्यता से, इस संस्था के चेयरमैन के पद पर नियुक्ति में अकादमिक योग्यता की अनदेखी किए जाने पर मेहता का त्यागपत्र, एक तरह से मौजूदा निजाम से उनके मोहभंग का और दूसरी ओर मौजूदा निजाम के उन्हें अपने शत्रुओं में शुमार करने का, संकेतक बन गया। अशोका यूनिवर्सिटी से मेहता के संबंध विच्छेद में यह सिलसिला अपने उत्कर्ष पर पहुंच गया।

आखिरकार, मेहता ने भी अब साफ कर दिया है कि विश्वविद्यालय के मालिकान ने उन्हें लगभग साफ-साफ बता दिया था कि उनके राजनीतिक विचार, इस विश्वविद्यालय के लिए एक बोझ बन गए थे।

यह पूरा प्रकरण बेशक, मौजूदा शासन और शासकों के चरित्र के बारे में बहुत कुछ कहता है। उच्च शिक्षा की कथित अभिजात संस्थाओं समेत, सभी संस्थाओं को यह निजाम अपने चारणों और अपने सर्वोच्च नेता के विरुद गायकों में घटा देना चाहता है और इसके लिए अपनी नीतियों, प्रशासनिक सत्ता, आर्थिक शक्तियों, राजनीतिक दाब-धोंस से लेकर, तमाम संस्थाओं को अपनी हां में हां मिलने वालों से भरने तथा आलोचनात्मक स्वर अपनाने वालों को बाहर रखने, बाहर निकालने तक, किसी भी हथियार को आजमाने से हिचकने वाला नहीं है। अचरज की बात नहीं है कि प्रचार व विचारों के प्रसार पर चौतरफा नियंत्रण के जरिए, मौजूदा राज द्वारा हर तरफ फैलायी गयी धुंध के कुछ छंटने के साथ, अब बढ़ते पैमाने पर कम से कम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाली संस्थाएं, मौजूदा राज में भारत के ‘स्वतंत्र से अंशत: स्वतंत्र’ रह जाने और ‘दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र से चुनावी निरंकुश तंत्र में बदल जाने’ तक की सचाइयों को देख तथा दिखा पा रही हैं।

ये आकलन डिग्री के मामले में सच से भले ही कुछ आगे-पीछे हों, रुझान को पकडऩे के मामले में एकदम सही हैं। मौजूदा निजाम में भारत सिर्फ धर्मनिरपेक्षता को ही नहीं, जनतंत्र और नागरिकों की स्वतंत्रता को भी बढ़ते पैमाने पर छोड़ता जा रहा है। समता और सामाजिक-आर्थिक न्याय के लक्ष्यों की तो खैर बात ही क्या करना?

लेकिन, इसके साथ ही यह प्रकरण बड़े मुखर तरीके से एक और सचाई को सामने लाता है, जिसकी चर्चा अब कम ही होती है। वह सचाई यह है कि शासकीय संस्थाएं बेशक, शासन द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित होती हैं, लेकिन निजी संस्थाओं से भी ‘विचार की स्वतंत्रता’ का मैदान मुहैया कराने की उम्मीद करना बेकार है।

अगर अशोका विश्वविद्यालय जैसी ‘सामूहिक परमार्थ से संचालित’ और कुछ सबसे ताकतवर उद्यमियों द्वारा खड़ी की गयी अति-महत्वाकांक्षी संस्थाओं तक को खुल्लमखुल्ला शासन के सामने समर्पण करने के लिए मजबूर किया जा सकता है, तो दूसरी निजी संस्थाओं का क्या हाल होगा, इसका आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। इसलिए, कम से कम यह भ्रम किसी को नहीं होना चाहिए कि निजी उच्च संस्थाओं में, स्वतंत्र सोच-विचार बचा रहेगा। कहने की जरूरत नहीं है कि स्वतंत्र सोच-विचार और इसलिए शोध व नये सोच की गुंजाइश का इस तरह खत्म किया जाना, हमें एक ‘‘ज्ञान आधारित समाज’’ का विपरीत यानी ‘‘अनपढ़ समाज’’ बनाने के ही रास्ते पर धकेल रहा है।

गायत्री मंत्र के जाप से कोविड-19 का उपचार !

अचरज नहीं ताजा खबर यह है कि आइआइएमएस ऋषिकेश और सरकार के संयुक्त उद्यम के रूप में 14 दिन के ट्राइल से इसका पता लगाया जाएगा कि गायत्री मंत्र के जाप से कोविड-19 का किस हद तक उपचार किया जा सकता है!

लेकिन, यह प्रकरण एक और सचाई का सामने लाता है, जिसकी चर्चा और भी कम होती है।

अशोका विश्वविद्यालय से लेकर, बनारस विश्वविद्यालय तक के छात्रों के विरोध तथा आंदोलन के चलते ही हम, अनपढ़ बनाने की इस सत्यानाशी मुहिम पर अंकुश लगते न सही, उसका प्रतिरोध होते तो देख रहे हैं। इसी के खतरे को पहचान कर, मौजूदा निजाम ने जेएनयू, हैदराबाद, जादवपुर, जामिया, अलीगढ़ आदि विभिन्न विश्वविद्यालयों में छात्र आंदोलन को कुचलने के लिए हर तरह के हथकंडे आजमाने से ही शुरूआत की थी। दूसरी ओर, शासन की सारी कोशिशों तथा दमनकारी हथकंडों के बावजूद, छात्रों ने तथा एक  हद तक शिक्षकों के आंदोलन ने भी, सिर्फ पढ़ा-लिखा अनपढ़ बनाने की इस मुहिम के खिलाफ ही नहीं बल्कि जनतंत्र व स्वतंत्रता का गला घोंटने की वृहत्तर मुहिम के खिलाफ भी, सबसे कठिन दिनों में भी प्रतिरोध की मशाल जलाए रखी है। और अब मजदूरों के और अब किसानों के संघर्ष ने इस प्रतिरोध को उस स्तर पर पहुंचा दिया है, जहां बाहर अगर सारी दुनिया इन मुद्दों तथा संघर्षों का जिक्र कर रही है, तो देश में सत्ताधारी भाजपा को चार राज्यों व एक केंद्र शासित प्रदेश के विधानसभाई चुनाव में, अपने गोदी धनपतियों के धनबल और मोदी की तस्वीर के अलावा, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का ही सहारा है। 

0 राजेंद्र शर्मा

Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।

Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।

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