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वैसे तो हरेक चुनाव के नतीजे को ही जनता का जनादेश माना जाता है, फिर भी दिल्ली की जनता का फैसला अपने जोर में और निर्णायकता में खास है। इस फैसले के खास होने के तीन खास कारण हैं, जिनका महत्व उनके क्रम से उलटा है। पहला तो यही कि लगातार दूसरी बार, दिल्ली की जनता ने आम आदमी पार्टी को पूर्ण बहुमत ही नहीं सोंपा है, 90 फीसद से जरा ही कम सीटों वाला बहुमत सौंपा है।
बेशक, इस चुनाव में आम आदमी पार्टी पांच साल पहले वाला प्रदर्शन पूरी तरह से नहीं दोहरा पायी है और इस बार उसे दिल्ली विधानसभा की कुल 70 सीटों में से 62 सीटें ही मिल पायी हैं, जबकि 2015 में उसे 67 सीटें मिली थीं। फिर भी, पांच साल सरकार में रहने के बाद, दोबारा लगभग 90 फीसद सीटें हासिल करना, ऐसी उपलब्धि है जिसे, अपवाद ही कहा जाएगा।
दूसरी ओर, भाजपा की सीटों का आंकड़ा पिछली बार के 3 से बढक़र 8 पर पहुंच गया है।
दिल्ली की जनता के इस फैसले के खास होने का दूसरा कारण, जो पहले कारण से भी जुड़ा हुआ है, इसका 8 फरवरी को मतदान करने के लिए निकले मतदाताओं में से, पूरे 53.6 फीसद का फैसला होना है।
याद रहे कि हमारे देश में बहुत कम चुनावी फैसले ही सही मानों में मतदाताओं के बहुमत का यानी 50 फीसद से ज्यादा मतदाताओं का फैसला होते हैं। वर्ना हमारे देश की ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’(First Past The Post) यानी जो सबसे ज्यादा पाए, वही जीता माना जाए व्यवस्था में, बहुकोणीय मुकाबलों में अक्सर 40 फीसद के करीब मतदाताओं के समर्थन से ही सरकारें बन जाती हैं।
प्रसंगवश याद दिला दें कि 2019 के आम चुनाव में मोदी सरकार की सत्ता में वापसी का जोरदार जनादेश भी, 40 फीसद से कम मतदाताओं मे समर्थन पर ही टिका हुआ था। यह दूसरी बात है कि जीत के बाद बार-बार दुहरा कर, चुनाव में वोट डालने वालों के भी 40 फीसद से कम के इस समर्थन को, 130 करोड़ भारतीयों का समर्थन बना दिया जाता है।
यह भी गौरतलब है कि 50 फीसद से ज्यादा मतदाताओं के निर्णय के अर्थ में, दिल्ली की जनता ने दूसरी बार आप के पक्ष में फैसला दिया है।
बेशक, 2015 के चुनाव में उसे 54.3 फीसद वोट मिले थे, जिसके मुकाबले इस बार का जनादेश कुछ हल्का लगता है। लेकिन, जनादेश का कुल वजन इस गिरावट से खास कम नहीं हुआ है क्योंकि यह कमी एक फीसद से भी थोड़ी है। दूसरी ओर, इस चुनाव में उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी, भाजपा को इस बार के चुनाव में 38.5 फीसद वोट ही मिले हैं, जो उसके सहयोगी दल जदयू तथा लोजपा का वोट जोडक़र भी 40 फीसद से कम ही बैठता है। यानी दोनों पलड़ों में करीब 14 फीसद वोट का अंतर रहा है, जो बेशक बहुत भारी अंतर है।
फिर भी यह भी गौरतलब है कि जहां आप के मत फीसद में 2015 के मुकाबले बहुत मामूली ही सही, कुछ गिरावट आयी है, भाजपा के वोट में लगभग 6 फीसद की बढ़ोतरी हुई है, जिसे मामूली हर्गिज नहीं कहा जाएगा। बहरहाल, इसके निहितार्थों पर हम जरा बाद में आएंगे।
Review of mandate of Delhi
दिल्ली के जनादेश के खास होने का तीसरा और जाहिर है कि सबसे बड़ा कारण, जिस चुनावी मुकाबले में दिल्ली की जनता ने अपना फैसला सुनाया है, उसकी प्रकृति में छुपा हुआ है। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि भाजपा ने इन मुकाबले में अपना सारा धनबल, मीडिया पर नियंत्रण और जनबल झौंक कर, कम से कम संसाधनों के मामले में, इसे एक असमान मुकाबला बना दिया था। मोदी के राज में भाजपा नियमत: सभी चुनावी मुकाबलों को संसाधनों के मामले में, अपने पक्ष में ज्यादा से ज्यादा झुकाती आयी है। इसी तरह बात सिर्फ इतनी भी नहीं है कि पुलवामा-बालाकोट को भुनाकर, बहुसंख्यक सांप्रदायिकता से रंगे राष्ट्रवादी उन्माद की लहर पर, दोबारा सत्ता में आने के बाद से, एक के बाद एक विधानसभाई चुनावों में मोदी-शाह जोड़ी को धक्के लगे हैं।
हरियाणा में वह बहुमत गंवा बैठी हालांकि, चुनाव के बाद गठजोड़ करने के नाम पर खरीद-फरोख्त कर के उसने अपनी सरकार बचा ली। लेकिन, उसी के साथ महाराष्ट्र में हुए चुनाव में धक्का लगने के बाद भी, उसके नेतृत्व वाले गठजोड़ ने बहुमत की रेखा तो पार कर ली, पर असमान गठजोड़ थोपने की उसकी हेकड़ी के चलते गठजोड़ ही टूट गया और उसके साथ से सरकार ही निकल गयी। और अगले चरण में, झारखंड में उसे ऐसी करारी हार का मुंह देखना पड़ा कि अधिकांश मंत्रियों के साथ खुद भाजपी मुख्यमंत्री भी हार गए। इस पृष्ठभूमि में, दिल्ली के चुनाव में जीत का मनोवैज्ञानिक महत्व, वास्तविक से भी बढ़कर था और इसलिए स्वयं अमित शाह की अगुआई में और नरेंद्र मोदी के आशीर्वाद के साथ भाजपा ने, मुकाबला बहुत मुश्किल जानते हुए भी इस मुकाबले में अपने सारे घोड़े खोल दिए थे। हजारों सभाएं, बीसियों केंद्रीय मंत्री, आधा दर्जन मुख्यमंत्री, ढ़ाई सौ सांसद, खुद गृहमंत्री और प्रधानमंत्री, ये सभी इसी सच्चाई के साक्ष्य हैं। लेकिन, क्या मोदी-शाह जोड़ी की ख्याति, हर समय चुनावी मोड में रहने के अलावा हरेक चुनाव इस तरह लडऩे के लिए ही नहीं है जैसे वही आखिरी चुनाव हो।
दिल्ली के मुकाबले की असली खासियत सबसे बढ़कर इसमें थी कि यह मुकाबला इस सारे परिस्थिति संयोग के बीच हो रहा था। और इसमें दो तत्व विशेष रूप से प्रखरता सक्रिय थे।
पहला, बढ़ते आर्थिक संकट के चलते विशेष रूप से युवाओं के बीच बढ़ता असंतोष। और दूसरा, मोदी-2 में कश्मीर को दबाने से लेकर, तथाकथित बांग्लादेशी घुसपैठियों को निकालने तथा आम तौर पर मुसलमानों को उनकी जगह दिखाने तक के आरएसएएस के एजेंडे को सरकार के जरिए अंधाधुंध आगे बढ़ाए जाने के खिलाफ, सीएए/ एनपीआर/ एनआरसी से भडक़ा खासतौर पर अल्पसंख्यकों का आक्रोष तथा तमाम धर्मनिरपेक्ष ताकतों का विरोध।
इस सब के बीच और खासतौर पर आम आदमी पार्टी की सरकार द्वारा सस्ती बिजली, पानी, शिक्षा व स्वास्थ्य के पहलुओं से विशेष रूप से साधारण दिल्लीवासी की जिंदगी दिखाई देने वाले तरीके से आसान बना देने की तुलना में, साधारण लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के वास्तविक प्रयासों के मुकाबले में मोदी राज की घोर विफलता को देखते हुए, यह मुकाबला स्वाभाविक रूप से भाजपा के खिलाफ झुका हुआ नजर आता था। वास्तव में अधिकांश चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों ने दिल्ली का चुनाव लगभग एकतरफा रहने के अनुमान भी प्रस्तुत किए थे।
लेकिन, शुरू से ही अपने खिलाफ जाते नजर आ रहे इसी चुनाव मुकाबले को, अपने पक्ष में मोड़ने की बदहवास कोशिश में मोदी-शाह जोड़ी ने एक मुख्य रूप से सांप्रदायिक प्रचार का दांव चल दिया।
बेशक, सांप्रदायिक प्रचार के अलग-अलग तत्वों का प्रयोग तो संघ-भाजपा के हरेक चुनाव अभियान में ही होता आ रहा था और मोदी के राज के चुनाव अभियानों में उनका प्रयोग बढ़ती नंगई से हो रहा था।
मिसाल के तौर पर झारखंड चुनाव में ही खुद प्रधानमंत्री ने अपनी चुनाव सभाओं में सीएए आदि का विरोध करने वालों के ‘कपड़ों से ही पहचाने जाने’ के दावे किए थे, तो अमित शाह ने आकाश को छूने वाले राममंदिर के निर्माण के श्रेय का दावा पेश किया था। यहां तक कि 2019 के आम चुनाव के अपने प्रचार में खुद प्रधानमंत्री ने राहुल गांधी के वायनाड से चुनाव लड़ने के बहाने, अपने प्रतिद्वंद्वियों को अल्पसंख्यक पार्टी तथा निहितार्थत: भाजपा को बहुसंख्यक पार्टी साबित करने की कोशिश की थी, तो 2014 के अपने चुनाव में अभियान में ‘‘गुलाबी क्रांति’’ (मांस क्रांति) पर हमले किए थे और इन दो आम चुनावों के बीच विधानसभाई चुनावों में वह खुलकर ‘‘कब्रिस्तान बनाम श्मशान’’ करते रहे थे। फिर भी, यहां तक यह सांप्रदायिक इशारों के या सांप्रदायिक नैरेटिव के कुछ तत्वों के इस्तेमाल का ही मामला था। उस पर भी बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद का लबादा डाल दिया जाता था। पर दिल्ली में शाह के नेतृत्व में भाजपा का समूचा प्रचार ही सांप्रदायिक नैरेटिव पर खड़ा था। यहां तक कि केंद्र सरकार अपनी जिन कल्याणकारी योजनाओं का इतना ढोल पीटती हैं, उनका भी जिक्र यहां सिर्फ चलते-चलते कर दिया जाता था।
भाजपा के अपने सांप्रदायिक नैरेटिव को खुलकर अपने प्रचार का मुख्य आधार बनाने को बेशक मोदी राज में संघ-भाजपा के वर्चस्व के क्रमिक विकास के रूप में भी देखा जा सकता है। फिर भी, इसमें एक बड़ी छलांग भी है और यह समझना जरूरी है कि दिल्ली में मोदी-शाह की भाजपा के लिए यह बड़ी छलांग लगाना इसलिए जरूरी हो गया था कि उनका मुकाबला, एक ऐसी राजनीतिक ताकत से था, जिसका जनहितकारी कदमों का रिकार्ड, मोदी सरकार के रिकार्ड से बहुत बेहतर और आम लोगों के अनुकूल था। चूंकि भाजपा इस मुकाबले को जनता के हित में काम के रिकार्ड के आधार पर जीतने की किसी भी तरह से उम्मीद नहीं कर सकती थी, उसने सीएए-एनआरसी के विरोध को ही पलटकर, बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को जगाने के अपने हथियार में बदलने की कोशिश की और ‘‘शाहीनबाग’’ को और इस सत्याग्रह से सहानुभूति तक रखने वालों को, बहुसंख्यकों का शत्रु बताने का दांव खेला। इस सब पर राष्ट्रवाद का लबादा डालने की भी कोशिश की गयी।
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इस सबकी विफलता अब सब के सामने आ चुकी है। लेकिन, एक सवाल तो यह कि क्या अब भाजपा अपने पांव इस खुले सांप्रदायिक मंच से पीछे खींच सकती है? इसके आसार कम ही हैं। मोदी सरकार जनहित के मुद्दे पर जितनी बुरी तरह से विफल हो रही है, बढ़ते आर्थिक संकट के चलते उसकी ये विफलताएं आगे-आगे और भी मुखर होने की ही संभावना ज्यादा है। उस सूरत में उसके पास खुले सांप्रदायिक मंच के सिवा और कोई सहारा बचता भी नहीं है। लेकिन अगर वाकइ्र ऐसा होता है, तो आगे क्या? दिल्ली के चुनाव के नतीजे के तीन संदेश गौरतलब हैं।
पहला, जिंदगी बेहतर बनाने के आश्वासन के आवरण के बिना खुला सांप्रदायिक मंच, बहुसंख्यकों की भी बहुसंख्या को स्वीकार नहीं होगा, फिर आम जनता की बहुसंख्या की तो बात ही क्या है? दूसरा, कुल मतदान में पांच फीसद गिरावट का अर्थ अगर सत्ताधारी आप को लेकर जनता में जोश घटना है, तो उतने ही महत्वपूर्ण रूप दिल्ली में मुख्य विपक्षी ताकत के रूप में ही नहीं देश में सत्ता में बैठी ताकत के रूप में भी, संघ-भाजपा से लोगों का निराश होना भी है। मोदी राज से यह निराशा आगे और बढ़ेगी। तीसरा, सब कुछ के बावजूद भाजपा का वोट 6 फीसद बढ़ा है यानी खुले सांप्रदायिक मंच के आधार पर भी उसका पक्का समर्थन, अब भी बढ़ रहा है। ऐसा होना उसे हर जगह सत्ता भले न दिला सके, सांप्रदायिक चुनौती के बढऩे को तो दिखाता ही है।
दिल्ली का चुनाव कह रहा है कि दिल्ली अभी भी दूर है--सांप्रदायिकतावादियों के लिए भी और सांप्रदायिकताविरोधियों के लिए भी।
राजेंद्र शर्मा