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हिन्दू राष्ट्र का बजट : डंके की चोट पर देश बेचो अभियान

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hastakshep
08 Feb 2021
समीक्षा केन्द्रीय बजट 2021-22: खोदा पहाड़ निकली चुहिया

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मोदी सरकार के साथ एक बड़ा सुखद संयोग है। जब- जब यह सरकार जनविरोधी बड़े फैसले लेती है, इसके समर्थक 5 ऐसा कोई मुद्दा खड़ा कर देते हैं कि अवाम का ध्यान उससे भटक जाता है और सरकार जनाक्रोश से राहत पा जाती है। ऐसा ही इस बार आम बजट 2021- 22 (Review Union Budget 2021-22) के साथ हुआ।

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1 फरवरी, 2021 को पेश हुआ आम बजट स्वाधीन भारत के इतिहास का पहला ऐसा बजट रहा, जिसके सामने आते ही सोशल मीडिया पर त्वरित प्रतिक्रिया की बाढ़ आ गयी।

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बजट 2021-22 पर आम लोगों की ऐसी त्वरित प्रतिक्रिया शायद कभी देखने को मिली होगी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इसमें देश बेचने का खुला एलान हुआ था। इसके खिलाफ ही लोगों की प्रतिक्रिया से सोशल मीडिया भर गई थी। लोगों की प्रतिक्रिया देखकर ऐसा साफ दिखने लगा था कि लोग जल्द ही इसके खिलाफ सड़कों पर उतर सकते हैं। पर, इससे पहले कि लोग सड़कों पर उतरने का मन बनाएं, पॉप सिंगर रिआना, पर्यावरण एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग और अमेरिकी उप राष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी मीना हैरिस (Pop singer Rihana, environmental activist Greta Thunberg and Meena Harris, niece of US Vice President Kamala Harris) द्वारा कृषि कानून के खिलाफ आंदोलनरत किसानों का मामला उठाया जाना मीडिया में इस कदर छा गया कि बाकी मुद्दे पृष्ठ में चले गए। मीडिया ने इसे भारत के आंतरिक मामले में विदेशी हस्तक्षेप के रूप में प्रचारित किया, जिसके फलस्वरूप लता मंगेशकर, सचिन तेंदुलकर, विराट कोहली, अजय देवगन, अक्षय कुमार, कंगना रनौत इत्यादि जैसे भारतीय सेलेब्रेटी किसान आंदोलन के पक्ष में बोलने वाले विदेशी सेलिब्रेटिज के खिलाफ टूट पड़े। इनके ऐसा करते देख किसान समर्थक बुद्धिजीवी भी भारतीय सेलिब्रेटिज की सत्तापरस्ती की आलोचना में मुखर हो उठे।

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इसके फलस्वरूप बाकी मुद्दों के साथ देश बेचने की घोषणा करने वाला बजट भी सैंडविच बन कर रह गया।

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इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान भी मुख्यधारा से लेकर सोशल मीडिया में प्रमुखता से कोई मुद्दा छाया हुआ है तो वह किसान आंदोलन पर कथित विदेशी दुष्प्रचार ही है, जिसके खिलाफ भारतीय सेलेब्रेटिज के साथ मुख्यधारा की मीडिया भी अपना कर्तव्य निर्वहन में जुटी हुई है।

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बहरहाल रिआना, थनबर्ग इत्यादि के किसान समर्थक ट्वीट्स के विरुद्ध भारतीय सेलिब्रेटिज और मीडिया के युद्धस्तर पर सक्रिय होने से देश- बिकाऊ बजट का मुद्दा भले ही वर्तमान में दब सा गया हो, किन्तु भविष्य में इसके बड़ा आकार लेने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। कारण, यह वास्तव में आज़ाद भारत का ऐसा पहला बजट था, जिसमें देश बेचने की खुली घोषणा हुई थी। इसलिए सोशल मीडिया पर बिना देर किए लाखों लोगों ने इसे देश बेचने वाला बजट कहकर त्वरित प्रतिक्रिया दी थी, जिसका सुस्पष्ट प्रतिबिम्बन बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के ट्विट में हुआ।

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वित्त मंत्री द्वारा बजट भाषण पूरा होते ही तेजस्वी ने ट्विट करके कहा था, ’यह देश बेचने वाला बजट है। बजट नहीं सरकारी प्रतिष्ठानों व संपत्तियों को बेचने की सेल थी। रेल, रेलवे स्टेशन, एअर पोर्ट, लाल किला, बीएसएनएल,एलआईसी बेचने के बाद यह बजट नहीं बल्कि अब बैंक, बंदरगाह, बिजली लाइनें, राष्ट्रीय सड़कें, स्टेडियम, तेल की पाइप लाइन से लेकर वेयरहाउस बेचने का भाजपाई निश्चय है‘।

तेजस्वी यादव के उस ट्विट में समस्त देशप्रेमियों और वंचित वर्गों की भावना का निर्भूल प्रतिबिम्बन हुआ था, क्योंकि बजट पेश करते हुए मोदी सरकार की ओर से सीतारमण ने कहा था कि, ’एअरपोर्ट, सड़कें, बिजली ट्रांसमिशन लाइन, रेलवे का डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर के हिस्से, वेयरहाउस, गेल, इंडियन ऑयल की पाइप लाइन और स्टेडियम को सरकार बेचेगी। साथ ही सात बंदरगाह भी निजी हाथों में जाएंगे।‘

विनिवेश के जरिये वित्त वर्ष 2021-22 के लिए 1.75 लाख करोड़ संग्रह करने का लक्ष्य घोषित करने वालीं वित्तमंत्री ने एक रोचक घोषणा सरकारी परिसंपत्तियों के विषय में भी किया था। उन्होंने कहा था, ’बेकार पड़ी परिसंपत्तियों से आत्मनिर्भर भारत को कोई लाभ नहीं मिलेगा। बहुत से मंत्रालयों, विभागों और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के पास जमीन पड़ी है। उन्हें बेचकर या अन्य माध्यमों से उनसे कमाई की जा सकती है।‘

उपरोक्त सेक्टरों के बिक्री के पीछे सरकार की मंशा उजागर करते हुए सीतारमण ने कहा,

’स्ट्रेटेजिक सेक्टरों में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की संख्या को न्यूनतम किया जाएगा। इन सेक्टर्स की अन्य सरकारी कंपनियों का निजीकरण किया जाएगा, उनका अन्य सरकारी कंपनियों में विलय कर दिया जाएगा या उन्हें बंद कर दिया जाएगा। विनिवेश एवं रणनीतिक विनिवेश नीति का एलान करते हुए उन्होंने साफ कह दिया था कि इस नीति का उद्देश्य सरकारी कंपनियों की संख्या कम करना और निजीक्षेत्र के लिए अवसर तैयार करना है।‘

वैसे तो 2014 से ही मोदी सरकार की चाल- ढाल देखकर हर किसी को लगता रहा कि यह सरकार सारा कुछ निजीक्षेत्र क्षेत्र के हाथों में देने की परिकल्पना कर रही है, पर, यह सब कयास का विषय था। किंतु, 1 फरवरी को बजट पेश करते हुए निर्मला सीतारमण ने यह कहकर उस कयास पर विराम लगा दिया कि सरकार का मकसद सरकारी कंपनियों की संख्या कम करना एवं निजीक्षेत्र के लिए अवसर तैयार करना है।

निजीक्षेत्र के लिए मोदी सरकार द्वारा अवसर तैयार करने का लक्षण देखते हुए ही उस दिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ज्यों- ज्यों बजट के अंश पढ़ती गयीं, निवेशक रंग में लौटने लगे थे। आलम यह था कि बजट भाषण खत्म होते- होते बीएसई का 30 शेयरों वाला सेंसेक्स करीब 1000 अंकों की बढ़त ले चुका था। जानकारों के मुताबिक पिछले 24 सालों और शेयर बाजार के इतिहास में यह दूसरी सबसे बड़ी बढ़ोतरी थी।

बजट में निजीक्षेत्र के लिए अवसरों का द्वार पूरी तरह मुक्त किये जाने पर निजीक्षेत्र के स्वामियों में जो भाव पनपा उसका सही प्रतिबिम्बन एईपीसी के चेयरमैन ए. शक्तिवेल के इन शब्दों में हुआ था, ’हाइवे,रेल और सड़क इंफ़्रा पर बड़े निवेश से कंपनियों को लॉजिस्टिक्स लागत घटाने में मदद मिलेगी। इससे इज ऑफ डूइंग क्षेत्र में भी भारत की स्थिति सुधरेगी।‘

बहरहाल सरकारी परिसंपत्तियों की बिक्री से होने वाले लाभ एवं निजीक्षेत्र को अवसर प्रदान किये जाने की साहसिक घोषणा करने के बावजूद वित्त मंत्री यह घोषणा करने का साहस न कर सकीं कि यह हिन्दू राष्ट्र का बजट है, जबकि सच्ची बात यही है कि इस बार का बजट हिन्दू राष्ट्र का ही बजट रहा।

यह बजट हिन्दू राष्ट्र का ही बजट है इसे समझने के लिये मोदी और संघ के संबंधों पर एक बार नए सिरे से दृष्टि निक्षेप कर लेनी होगी।

मोदी जिस संघ से प्रशिक्षित होकर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे हैं, उस संघ का लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र की स्थापना रहा है, यह राजनीति में रुचि रखने वाला एक बच्चा तक जानता है।

हिन्दू राष्ट्र का मतलब एक ऐसा राष्ट्र, जिसमें अम्बेडकरी संविधान नहीं, उन हिन्दू धार्मिक कानूनों द्वारा देश चलेगा, जिसमें शूद्रातिशूद्र अधिकारविहीन नर-पशु एवं शक्ति के समस्त स्रोत- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- सिर्फ और सिर्फ सवर्णो के लिए आरक्षित रहे।

संघ के एकनिष्ठ सेवक होने के नाते मोदी हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य से अपना ध्यान एक पल के लिए भी नहीं हटाये और 2014 में सत्ता में आने के बाद ही अपनी समस्त गतिविधियां हिन्दू राष्ट्र के निर्माण पर केंद्रित रखे। सत्ता में आने के बाद मोदी जिस हिन्दू राष्ट्र को आकार देने में निमग्न हुए, उसके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा रहा संविधान! संविधान इसलिए बाधा रहा क्योंकि यह शूद्रातिशूद्रों को उन सभी पेशे/कर्मों में हिस्सेदारी प्रदान करता है जो पेशे/ कर्म हिन्दू धर्मशास्त्रों द्वारा सिर्फ हिन्दू- ईश्वर के उत्तमाँग ( मुख- बाहु- जंघा) से उत्पन्न लोगों( ब्राह्मण – क्षत्रिय- वैश्यों ) के लिए आरक्षित रहे। संविधान के रहते सवर्णों का शक्ति के स्रोतों पर वैसा एकाधिकार कभी नहीं हो सकता जो अधिकार हिन्दू धर्मशास्त्रों में दिया गया है। किन्तु संविधान के रहते हुए भी हिन्दू ईश्वर के उत्तमाँग से जन्मे लोगों का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार हो सकता है, यदि इन्हें निजीक्षेत्र में शिफ्ट करा दिया जाय। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही मोदी जिस दिन से सत्ता में आये, ऊपरी तौर पर संविधान के प्रति अतिशय आदर व्यक्त करते हुए भी, लगातार इसे व्यर्थ करने में जुटे रहे। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही वे लाभजनक सरकारी उपक्रमों तक को औने- पौने दामों में बेचने: अस्पतालों, रेलवे, हवाई व बस अड्डों इत्यादि को निजीक्षेत्र में देने के लिए युद्ध स्तर पर मुस्तैद रहे।

जिसे निजीक्षेत्र कहा जाता है, दरअसल में वह हिन्दू ईश्वर के उत्तमाँग से जन्मे लोगों का क्षेत्र है। इनके हाथ में ही सब कुछ सौंपने के लिए उन्होंने कोरोना काल तक को अवसर के रूप में तब्दील किया।

कोरोना काल में ही देश की अर्थव्यवस्था पर जो बुरा प्रभाव पड़ा, उससे पार पाने के नाम पर ही मौजूदा बजट में सरकारी कंपनियों को बेचने तथा निजीक्षेत्र के लिए अवसर बढ़ाने की खुली घोषणा हुई। बहरहाल जिन्हें 2021 के आम बजट के हिन्दू राष्ट्र का बजट होने पर संदेह है, उन्हें वित्त मंत्री द्वारा एनजीओ के साथ मिलकर 100 सैनिक स्कूल खोले जाने की घोषणा के गहराई में जाने का थोड़ा कष्ट उठाना चाहिए।

वित्तमंत्री सीतारमण बजट पेश करते हुए घोषणा किया था कि एनजीओ के साथ मिलकर 100 नए सैनिक स्कूल खोले जाएंगे। स्मरण रहे देश में पहले से 31 सैनिक स्कूल हैं, जहां से 2016,2017 और 2018 में नेशनल डिफेंस एकेडमी ( एनडीए) में क्रमशः 595 में से 158, 644 में से 179 और 662 में से 147 बच्चे सैनिक स्कूलों के भर्ती हुए थे। अब सैनिक स्कूलों की संख्या में तीन गुना से ज्यादा वृद्धि किये जाने के बाद यहां से एनडीए में भर्ती होने वाले छात्रों की संख्या प्रायः शत प्रतिशत हो जाएगी। एक ऐसे दौर में जबकि सरकार शिक्षा बजट में लगातार कटौती कर रही है, जैसे इस बार 6000 करोड़ कम कर दिया : सैनिक स्कूलों की संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि को ढेरों लोग भारत में हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा के जनक बीडी सावरकर की हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना से जोड़कर देख रहे हैं।

हिंदुत्व की राजनीति में रुचि लेने वालों को भलीभांति पता होगा कि 1922 में हिन्दू महासभा के संस्थापक सावरकर ने हिन्दू राष्ट्र के निर्माण, हिंदुओं को संगठित करने एवं हिन्दू विरोधी शक्तियों से निपटने के लिए हिन्दू सेना के निर्माण एवं हिटलर के नाजी पार्टी के तर्ज पर जांबाज़ हिन्दू युवाओं के सैन्यीकरण का अभियान चलाने की परिकल्पना पेश की थी। लोगों का ख्याल है कि इन स्कूलों में रिटायर्ड हिन्दू फौजी और संघ प्रशिक्षित लोगों के जरिये नाजियों की मानसिकता से पुष्ट हिन्दू सैनिक तैयार किये जायेंगे, जो हिन्दू धर्माधारित राज्य व्यवस्था के संचालन में प्रभावी भूमिका अदा करेंगे।

वैसे हिन्दू देश में जब शक्ति के समस्त स्रोत हिन्दू ईश्वर के उत्तमाँग से जन्मे लोगों के हाथों में सौंप दिए जाएंगे, तब निश्चय ही गुलामों के स्थिति में पहुंचे वंचित वर्गों में विद्रोह की भावना पनपेगी, जिसे तभी दबाया जा सकता है जब मिलिट्री और पुलिस पर विभाग पर उच्च वर्ण हिंदुओं का सम्पूर्ण एकाधिकार हो।

संघ को संभवतः हिन्दू राष्ट्र में वंचित वर्गों में पनपने वाले विद्रोह का इल्म है इसलिए भविष्य के उस संकट से पार पाने हेतु पुलिस और मिलिट्री फोर्स हिन्दू जाबांजों के हाथ में देने के लिए अपने राजनीतिक संगठन भाजपा को सैनिक स्कूलों के निर्माण की दिशा में अग्रसर होने का निर्देश दे दिया है।

एच. एल. दुसाध

( लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

एच.एल. दुसाध (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)  

लेखक एच एल दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इन्होंने आर्थिक और सामाजिक विषमताओं से जुड़ी गंभीर समस्याओं को संबोधित ‘ज्वलंत समस्याएं श्रृंखला’ की पुस्तकों का संपादन, लेखन और प्रकाशन किया है। सेज, आरक्षण पर संघर्ष, मुद्दाविहीन चुनाव, महिला सशक्तिकरण, मुस्लिम समुदाय की बदहाली, जाति जनगणना, नक्सलवाद, ब्राह्मणवाद, जाति उन्मूलन, दलित उत्पीड़न जैसे विषयों पर डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित हुई हैं।

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