बढ़ती बेरोजगारी, निजीकरण का दुष्प्रभाव और आम बजट 2021-22

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hastakshep
14 Feb 2021
बढ़ती बेरोजगारी, निजीकरण का दुष्प्रभाव और आम बजट 2021-22

आम बजट 2021-22 की समीक्षा | Review Union Budget 2021-22

Rising unemployment, side effects of privatization and Union budget 2021-22: Vijay Shankar Singh

कहने को तो हमारा सालाना बजट आम बजट कहलाता है, पर यह धीरे-धीरे खास बजट बन गया है। आम लोगों की संसद में, आम लोगों के नाम पर, आम चुनावों द्वारा चुनी गयी सरकार द्वारा पेश किया जाने वाला यह वार्षिक आय व्यय का लेखा जोखा, खास लोगों को ध्यान में रख कर बनाया हुआ बजट बन गया है। पेश किए गए, बजट 2021 के बारे में सारे अर्थशास्त्रियों की एक राय बहुमत से है कि, यह बजट आय व्यय के किसी लेखे जोखे के बजाय, सरकारी संपत्तियों के विनिवेश का एक घोषणापत्र है। विनिवेश, यानी, सरकारी कंपनियों में सरकार की जो हिस्सेदारी है, उसे बेचने का तकनीकी नामकरण है। सच तो यह है कि सरकार अपनी कम्पनियों को कॉरपोरेट सेक्टर को बेच रही है। कभी निवेश आमंत्रित करने को सतत उत्सुक रहने वाली सरकार अब अपनी पूंजी अपनी ही बनाई सरकारी कम्पनियों से निकालने की जुगत में है।

Why is the government selling its assets

यहीं यह सवाल उठता है कि सरकार आखिर अपनी संपत्तियां बेच क्यों रही है

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने इसका एक कारण यह बताया है कि, जब सरकार अपनी कम्पनियों को चला ही नहीं पा रही है तो, वह उसे रख कर क्या करेगी ?

बात भी सही है कि एक अक्षम सरकार, अपनी सम्पत्तियों की रक्षा, प्रबंधन और विकास नहीं कर सकती, तो वह उसे बेचने की ही बात सोचने लगती है। एक गीत की खूबसूरत पंक्ति की तरह, वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना बेहतर !

अब सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी कम्पनियां, जिन्होंने, देश के इंफ्रास्ट्रक्चर विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है, अब अफसाने के ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई हैं, कि सरकार उन्हें अब विनिवेश जैसे खूबसूरत नाम के साथ ही छोड़ देना चाहती है।

2014 के चुनाव में लोकप्रियता के पंख पर सवार जब एनडीए या बेहतर हो यह कहें कि भाजपा की सरकार आयी तो सबसे अधिक उम्मीद, इस सरकार से युवा, व्यापारी, किसान और उद्योगपतियों की थी। अन्ना आन्दोलन ने युवाओं की अपेक्षाओं को जगा दिया था। गुजरात के विकास की अंतर्कथा की जानकारी से वंचित लोग, गुजरात जैसे विकास की उम्मीद में मुब्तिला थे। दो करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष का वादा, युवाओं को लुभा रहा था। और लोगों को लग रहा था, 12 साल में गुजरात की तकदीर बदल देने वाले विकास पुरूष की पट्टिका से अलंकृत नरेंद मोदी, देश की काया पलट कर देंगे। पर 2016 की नोटबन्दी के बाद, हम बजट दर बजट खिसकते जीडीपी के साथ साथ नीचे आने लगे और, 2020 की 31 मार्च को जीडीपी 5 % पर आ गयी। फिर तो उसके बाद, कोरोना महामारी ने देश की अर्थव्यवस्था को ही संक्रमित कर दिया।

Ten years ago India was the world's most emerging economy, now it has become the world's falling economy.

जीडीपी में अभूतपूर्व गिरावट दर्ज की गयी और माइनस 23.9% पर आ गयी। इस साल अनुमान है कि 11% की वृद्धि होगी, लेकिन, इतनी वृद्धि के बावजूद भी जीडीपी माइनस में ही रहेगी। दस साल पहले भारत दुनिया की सबसे उभरती हुई आर्थिकी था, अब वह दुनिया की सबसे गिरती हुई आर्थिकी बन गया है। कोरोना आपदा, इस स्थिति के जिम्मेदार है, लेकिन यदि आर्थिकी के पिछले 6 साल के आंकड़ों का, यदि अध्ययन किया जाय तो, साल 2016 के 8 नवम्बर, की रात 8 बजे, देश की 84 % मुद्रा का विमुद्रीकरण कर देना, आधुनिक भारत के आर्थिक इतिहास में, किसी भी सरकार द्वारा उठाया गया सबसे अपरिपक्व और आत्मघाती कदम कहा जायेगा, और यह एक ऐतिहासिक भूल थी।

नये बजट के अनुसार, सरकार व्यापक स्तर पर सरकारी उपक्रमों का निजीकरण करने जा रही है।

बिजनेस स्टैंडर्ड के एक लेख के अनुसार, इस साल 23 कंपनियों में निजीकरण या उन्हें बेचने की मंजूरी दी जा चुकी है। साल, 2019 के पब्लिक इंटरप्राइजेस सर्वे के अनुसार, भारत में कुल 348 सरकारी कंपनियां हैं। नीति आयोग, जो इस समय निजीकरण आयोग की तरह काम करने लगा है, ऐसी कंपनियों की एक सूची बना कर इस कार्ययोजना पर काम कर रहा है जिन्हें सरकार निजी क्षेत्र को बेच देना चाहती है। इन कंपनियों में बैंक और बीमा कंपनियां भी शामिल हैं।

जीवन बीमा निगम, यानी एलआईसी भी नीति आयोग की सूची और कार्ययोजना में शामिल है। सरकारी उपक्रमों के बारे में अध्ययन करने वाले कंपनी कानून के विशेषज्ञों के एक समूह का अनुमान है कि, अगले कुछ वर्षों में सरकारी कंपनियों की संख्या सिमटकर लगभग 25 के आसपास बच जाएगी। पिछले 70 सालों में जनता के टैक्स से बनायी गयी, 348 सरकारी कंपनियों में से 330 कंपनियां निजी क्षेत्र को बेंच दी जायेंगी।

यह विनिवेश या कम्पनी बेचो अभियान का असर, न केवल बेरोजगारी पर पड़ेगा, बल्कि इसका एक घातक प्रभाव, संविधान में सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिये, आरक्षण के अधिकार पर भी पड़ेगा। 348 से सिमट कर 25 सरकारी कम्पनियां हों जाने पर, अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उन युवाओं के सामने, नौकरी की नयी चुनौती खड़ी हो जाएगी, जिन्हें सरकारी नौकरियों में अब तक 49.5% तक आरक्षण मिलता था। निजी क्षेत्र, आरक्षण के उक्त संवैधानिक प्राविधान से मुक्त हैं, तो उनकी ऐसी कोई बाध्यता भी नहीं है कि वे, देश के आरक्षित समूहों को नौकरी दें। बिजनेस स्टैंडर्ड ने इस समस्या का अध्ययन, देश की दूसरी सबसे बड़ी तेल कंपनी भारत पेट्रोलियम के संदर्भ में किया है। सरकार बीपीसीएल की 53.3% हिस्सेदारी बेचने की तैयारी में है।

बिजनेस स्टैंडर्ड के लेख में, बीपीसीएल के ह्यूमन रिसोर्स पर किए अध्ययन के अनुसार,

"इस कम्पनी में, 1 जनवरी 2019 तक 11,894 कर्मचारी काम कर रहे थे। इनमें पिछड़ा वर्ग के 2042, अनुसूचित जाति के 1921 और 743 अनुसूचित जनजाति के कर्मचारी थे। इनमें 90% से ज्यादा भर्तियां आरक्षण के तहत हुई थीं। प्राइवेटाइजेशन के बाद वहां की चार हजार से ज्यादा आरक्षित भर्तियों को भी खुली भर्ती से भरा जाएगा। यह एक उदाहरण है।"

इसी उदाहरण के पैटर्न पर अन्य सरकारी कंपनियों का सिलसिलेवार अध्ययन किया जा सकता है। इससे जिन उद्देश्यों से समाज के वंचित वर्ग के सामाजिक उत्थान के लिये आरक्षण की सुविधा, संविधान में दी गयी है, वे उद्देश्य पूरे नहीं हो सकेंगे।

सात लाख आरक्षित नौकरियों पर आएगा संकट

एक अनुमान के अनुसार, सरकारी कंपनियों के निजी हाथों में चले जाने से करीब सात लाख आरक्षित नौकरियों पर संकट आ सकता है। पब्लिक इंटरप्राइजेस सर्वे की साल 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी कंपनियों में कर्मचारियों की कुल संख्या करीब 15 लाख है। इसमें से 10.4 लाख स्थायी कर्मचारी हैं। इन नौकरियों में अनुसूचित जाति के लिए 15%, अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5% और ओबीसी के लिए 27% आरक्षण है। सरकारी कंपनियां विनिवेश के बाद निजी हाथों में जाएंगी तो नौकरियों से आरक्षण की कोई गारंटी नहीं रहेगी। इससे 49.5 प्रतिशत भर्तियां होंगी, जिनकी संख्या करीब 7 लाख हो सकती है।

ऐसा नहीं है कि इन सब विसंगतियों पर अध्ययन और प्रतिक्रियाएं नहीं आ रही हैं। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया तो, यहां तक कहते हैं कि,

"सरकारी कंपनियों का प्राइवेटाइजेशन आरक्षण खत्म करने के लिए ही किया जा रहा है। अब रिवर्स आरक्षण का दौर चल रहा है। सरकार ने पहली बार आर्थ‌िक तौर पर कमजोर सवर्ण के नाम पर कथ‌ित जातीय आरक्षण लागू किया है। आने वाले दिनों में एक बार फिर से समाज में एक बड़ी खाई देखने को मिलेगी।"

ऐसी प्रतिक्रिया केवल अनिल चमड़िया की ही नहीं है, बल्कि सोशल मीडिया पर सामाजिक न्याय के मुद्दों को लगातार उठाने वाले, वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल सरकार पर आरक्षण को खत्म करने की साज़िश करने का, सीधा आरोप लगाते हैं। वे कहते हैं,

"आरक्षण पर भाजपा सरकार ने 5 बड़े हमले किए हैं। हाल ही में लैटरल एंट्री वाली नौकरियां निकली थीं। इनमें आरक्षण लागू नहीं था। ओपन सीटों में 10% आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्ण को आरक्षण दिया जा रहा हैं, जबकि निजीकरण के जरिए पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग में आरक्षण खत्म करने की तैयारी में हैं। आरक्षण से बचने के लिए ही सरकार इन दिनों भर्तियां निकालने के बजाय कॉन्ट्रैक्ट कर्मियों से काम करा रही हैं, क्योंकि इसमें आरक्षण नहीं देना पड़ता।"

आरक्षण एक संवेदनशील मुद्दा है, और जब बेरोजगारी की गति बढ़ने लगती है, नौकरियों के अवसर सिकुड़ने लगते हैं तो, यह मुद्दा और संवेदनशील हो जाता है। जैसे-जैसे प्राइवेटाइजेशन बढ़ा, आरक्षण से मिलने वाली नौकरियां वैसे वैसे कम होती गयीं। वर्ष 2001 से 2004 के बीच अब तक का सबसे बड़ा निजीकरण अभियान चलाया गया। 14 बड़ी सरकारी कंपनियों को पूरी तरह प्राइवेटाइज करने की कोशिश की गई।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित क्रिस्टोफर जैफरलॉट के एक लेख के अनुसार, 2003 में केंद्र सरकार के अनुसूचित जाति/जनजाति के 5.40 लाख कर्मचारी थे जो 2012 तक 16% घटकर 4.55 लाख हो गए।

इसी प्रकार उसी लेख के अनुसार,

"साल 1992 में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये आरक्षण की शुरुआत हुई। तब 2004 तक केंद्र की सरकारी नौकरियों में उनकी भागीदारी 16.6% थी, 2014 आते-आते 28.5% हो गई। देश में ओबीसी की जनसंख्या करीब 41% है। आरक्षण के चलते सरकारी नौकरियों में वे बराबरी की ओर बढ़ रहे थे, लेकिन प्राइवेटाइजेशन के बाद इसकी भी गारंटी नहीं रह जाएगी।"

इन बड़ी कंपनियों के अतिरिक्त, भारत सरकार ने, होटल कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, एचटीएल लिमिटेड, आईबीपी कॉर्पोरेशन लिमिटेड, इंडियन टूरिज्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड को भी प्राइवेट कर चुकी है। इसका सबसे बड़ा असर नौकरियों में पड़ा। केंद्र सरकार की नौकरियों में साल 2003 में 32.69 लाख लोग थे। प्राइवेटाइजेशन के चलते 2019 आते-आते 50% से ज्यादा घटकर सिर्फ 15.14 लाख कर्मचारी ही बचे। यानी 16 सालों में केंद्र सरकार की नौकरियों में 17.55 लाख की कमी आई। मई 2014 से अब तक सरकार ने 121 कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेच दी है और साल 2014 के बाद से आई भर्तियों का आंकड़ा जारी नहीं किया गया है।

इंडियन पोलिटिकल ड्रामा में 19 जनवरी 2021 को त्रिरंजन चक्रवर्ती ने देश की बढ़ती बेरोजगारी पर एक शोधपरक लेख लिखा था। लेख में उन्होंने बेरोज़गारी की समस्या की विकरालता पर एक छोटी मगर सारगर्भित टिप्पणी की है।

उक्त लेख के अनुसार, दिसंबर 2020 में बेरोजगारी की दर, नवम्बर 2020 की बेरोजगारी की दर, जो 6.50% थी से, तेजी से बढ़ कर, 9.06% हो गयी है। यह आंकड़ा, सरकार के ही विभाग, सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी ( सीएमआईई ) द्वारा जारी किया गया है। पिछली बार बेरोजगारी में इतनी तेज वृद्धि, जून 2020 में हुई थी। जून 2020, कोरोना आपदा का सबसे कठिन काल था, जब देश भर में लॉकडाउन था, और सारी औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियां, लगभग ठप थीं। उस समय बेरोजगारी दर में इतनी तेज बढोत्तरी का काऱण एक कारण था, और वह काऱण उचित तथा वैश्विक था। उस समय सीएमआईई के अनुसार, बेरोजगारी की दर 10.18% थी। लेकिन जुलाई से औद्योगिक और व्यायसायिक गतिविधियों में तेजी आयी और बाजारों में रौनक भी बढ़ी, लेकिन क्या कारण है कि बेरोजगारी दर जून 2020 के ही आसपास दिसंबर 2020 में ही रही ? इस पर त्रिरंजन चक्रवर्ती अपनी राय देते हुए कहते हैं कि, हमारी आर्थिकी, लॉक डाउन और कोरोना आपदा के बाद सामान्य होती हुई परिस्थितियों में भी नौकरी या रोजगार के उतने अवसर नहीं पैदा कर सकी, जितनी की उसे करना चाहिए था। अगर शहरी और ग्रामीण सेक्टरों में बांट कर अलग अलग इस दर को देखें तो, बेरोजगारी की दर, ग्रामीण क्षेत्र में अधिक भयावह और चिंताजनक है।

अब सीएमआईई के दो आंकड़ों की चर्चा करते हैं

एक आंकड़ा है, जुलाई 2020 से दिसंबर 2020 तक, देश में कुल और फिर शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग बढ़ती हुए बेरोजगारी दर की। जुलाई 2020 में, कुल बेरोजगारी दर, 7.40% रही है और फिर हर माह कुछ न कुछ बढ़ते घटते हुए, अगस्त में, 8.35%, सितंबर में, 6.68%, अक्टूबर में, 7.02%, नवंबर में,6.50 और दिसंबर में, 9.06% तक पहुंच गयी।

इसी प्रकार, शहरी क्षेत्र में बेरोजगारी दर, जुलाई में, 9.37%, अगस्त में,9.83%, सितंबर में, 8.45%, अक्टूबर में,7.18%,  नवंबर में, 7.07% और दिसंबर में, 8.84% रही है।

इसी अवधि में ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी दर, जुलाई में, 6.52%, अगस्त में, 7.65%, सितंबर में,5.88%, अक्टूबर में,  6.95%, नवंबर में, 6.24% और दिसंबर में, 9.15% रही है।

सीएमआईई, जब बेरोजगारी के आंकड़े तैयार करती है तो वह एक तकनीकी शब्द प्रयुक्त करती है, लेबर पार्टिसिपेशन रेट ( एलपीआर ). एलपीआर का अर्थ (Meaning of LPR) है कि, रोजगार की तलाश में कितने लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है। यदि यह संख्या बढ़ रही है तो इसका एक अर्थ यह भी है कि वर्कफोर्स में हो रही वृद्धि की तुलना में नौकरी या रोजगार के अवसर उतने नहीं बढ़ रहे हैं। यानी या तो औद्योगिक, व्यावसायिक औऱ अन्य नौकरी प्रदाता संस्थान बढ़ नहीं रहे हैं या उनकी क्षमता कम हो रही है। ऐसी स्थिति में बेरोजगारी का दर बढ़ना लाज़िमी ही होगा।

सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार, दिसंबर 2020 में, 4 करोड़ 27 लाख लोग काम की तलाश में थे, जबकि नवम्बर 2020 में यह आंकड़ा, 4 करोड़ 21 लाख का था। एक माह में यह वृद्धि 6 लाख की है। यही कारण है कि दिसम्बर 2020 में बेरोजगारी के आंकड़ों में चिंताजनक वृद्धि हुई है। देश में सबसे अधिक श्रम बल, कृषि क्षेत्र देता है और दिसंबर मे खेती का काम कम हो जाता है तो उसका सीधा असर, देश के बेरोजगारी के आंकड़ों पर पड़ता है। यह इस बात को भी बताता है कि सरकार देश को सबसे अधिक काम देने वाले सेक्टर के प्रति सबसे अधिक उपेक्षा भाव से ट्रीट करती है।

 अब कुछ राज्यों के बेरोजगारी दर के आंकड़े देखते हैं | Now let's see the unemployment rate figures of some states.

दिसंबर 2020 में, सबसे अधिक बेरोजगारी दर, 32.5%, हरियाणा में रही। उसके बाद, 28.2% राजस्थान मे रही है। दो अंकों में जिन राज्यों की बेरोजगारी दर रही है, वे हैं, झारखंड, 12.4%, बिहार 12.7%, गोवा 13.2%, उत्तर प्रदेश 14.9%, जम्मूकश्मीर 16.6% और त्रिपुरा 18.2%. इसके अतिरिक्त देश के अन्य राज्य और केंद्र शासित राज्यों की बेरोजगारी दर, एक अंक में रही है।

बेरोजगारी का बढ़ने का क्या अर्थ है ? | What does rising unemployment mean?

बेरोजगारी का बढ़ना, महज कुछ आंकड़ों का परिवर्तन ही नहीं है बल्कि समाज में व्याप्त अंसन्तोष, आक्रोश और अवसाद का भी एक बड़ा कारण है। बढ़ती हुई बेरोजगार युवाओं की संख्या का असर, समाज के तानेबाने और अपराध की स्थिति पर पड़ता है। यह जब जनअसंतोष का रूप ले लेता है, तो बेरोजगारी की समस्या तो अलग छूट जाती है और अन्य नयी समस्यायें पैदा होने लगती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती बेरोजगारी का कारण सूक्ष्म, लघु और मध्यम इकाइयों पर सरकार की आर्थिक नीतियों का असर पड़ना है।

नोटबन्दी का सबसे बुरा प्रभाव, एमएसएमई कम्पनियों पर पड़ा। जिन्हें हम कुटीर उद्योग के रूप में कभी जानते थे। स्थानीय लोगो को अपने घर गांव के आसपास रोजगार और नौकरियों का अवसर देने वाला यह सेक्टर बुरी तरह से तबाह हो गया था। अब यह धीरे-धीरे सुधर तो रहा है, पर इसे और बेहतर तरह से तरक़्की करने के लिये सरकार को अपनी प्राथमिकता में इस सेक्टर को लाना पड़ेगा। जबकि सरकार की प्राथमिकता में कॉरपोरेट है और अब तो यही स्थिति हो गयी है कि कॉरपोरेट की ही सरकार है और शेष कॉरपोरेट के शोषित उपनिवेश की तरह हैं।

स्थानीय स्तर पर एमएसएमई के विस्तार और उनकी सबलता से न केवल कामगारों के पलायन और विस्थापन पर असर पड़ेगा, बल्कि, इससे ग्रामीण क्षेत्रों का सम्यक विकास भी हो सकेगा। अब यह तो समय ही बता पायेगा कि, बजट 2021 देश की बेरोजगारी की समस्या को दूर करने में कितना सक्षम होता है।

विजय शंकर सिंह

लेखक अवकाशप्राप्त वरिष्ठ आअईपीएस अफसर हैं।

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