Rukhsar Shayari in Hindi
सर्वोच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने निम्न नज़्म उपलब्ध कराई है। यह नज़्म आज के दौर में भी मौजूँ है। शायर का नाम अज्ञात है।
ऐ वतन कैसे ये धब्बे दर-ओ-दीवार पर हैं ?
किस साकी के ये तमाचे तेरे रुखसार पर हैं ?
ए वतन तेरा ये उतरा हुआ चेहरा क्यूँ है ?
दर्द पलकों से लहू बनके छलकता क्यूँ है ?
इतनी वीरान तो कभी सुबह बयाबाँ न थी ?
कोई साथ कभी इस दर्ज बुरे ज़मीन पे न थी.
ज़मीन बेच डाला,
ज़मन बेच डाला,
लहू बेच डाला,
बदन बेच डाला,
और किया मेरे गुलशन की हर शै का सौदा,
शजर बेच डाला
चमन बेच डाला,
और जो किए थे ज़मीन-ओ-मकानों के वादे,
मेरी जा-ए- मरकत कफ़न बेच डाला,
मैं रोटी और कपड़ों में उलझा रहा,
और एक फरेबी ने मेरा वतन बेच डाला.
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