यह कौन सी फ़िक्रें हैं, जो रात को रात नहीं रहने देतीं
उफ्फ
यह कौन सी फ़िक्रें हैं,
जो रात को
रात नहीं रहने देतीं
रोज़ सुबह
आइने में देखती हूँ
कुछ और गहरा गया है
बल पेशानी का,
अक्स
घड़ी की टिक- टिक
पलों के खिसकने की
कुनमुनाहट
नल से टपकती
बूँदों की आवाज़
सब साफ़ सुनाई देती है
रात के दूसरे पहर में,
देर
बहुत देर तक
छनकती है
गुज़रे हुए दिन के
घुँघरुओं की आवाज़,
मैं नींद को
बेचैन टहलते हुए
देखती हूँ
घर के पीछे वाले बाग में,
सपने
पलकों के कोरों पर
बैठे हैं इंतज़ार में,
मगर आँख है
कि झपकना ही नहीं चाहती,
उफ्फ
यह कौन सी फ़िक्रें हैं,
जो रात को
रात नहीं रहने देतीं
रोज़ सुबह
आइने में देखती हूँ
कुछ और गहरा गया है
बल पेशानी का,
और
कुछ और सिकुड़ गयी हैं
लकीरें चेहरे की,
साफ़ नज़र आते हैं
चिन्ताओं के
पैरों के निशान
शक्ल पर,
कोई अक्स है
उदास उदास,
सफेद रंगत लिये बालो में
आइने के
उस तरफ़ दिखता है,
आइने के
इस तरफ़
मुझे
मैं
नज़र नहीं आती ...
डॉ. कविता अरोरा