प्रकाश प्रियम की पाँच कविताएँ (1)
वक़्त बुरा है
और मैं ख़ुद को
अच्छा दिखा रहा हूँ
वक़्त से
कि हो सकूँ अभ्यस्त
अच्छे वक़्त के लिए
कि चुक जाएँगे जब
ये बुरे दिन
अपने वर्तमान
अस्तित्व से
तब कोई न कह सके
मुझे बुरा
इनके साथ गतिमान
न होने का कारण
बताकर
चला जा रहा हूँ मैं
इसीलिए निर्लिप्त हो
समय के कुचक्रों से
ख़ुद को बचाते हुए
(2)
क्या तुम समझ पाते हो
मेरी कविताओं के ज़हन की
आंतरिक संवेदना को
मैं कविता में क्या लिखता हूँ
मेरे शब्द कैसे होते हैं
क्या तुम विवेचन कर सकते हो
क्या तुम्हारे मन को झिंझोड़ा
मेरे शब्दों ने कभी
क्या उन्हें पढ़कर तुम्हें रोना आया है
अथवा कभी ख़ुशी मिली
क्या कभी क्रोध जगा
या कि फिर स्वेद बहा तन से
या कभी किसी के लिए करुणा जगी
कि मन में कोई बदलाव आया तुम्हारे
ये सब तुममें यदि उद्भूत नहीं हुए
यदि मेरी कविता तुम्हारी बुद्धि को
नहीं जाग्रत कर पाई
तो तुम्हें कविता पढ़ना बंद कर देनी चाहिए
अथवा फिर मुझे लिखना
(3)
पत्थर पर कविता लिखने और
कागज़ पर कविता लिखने में
कोई ख़ास अंतर नहीं है
दोनों ही के पास आकर
समाप्त हो जाती है
मृत्यु के अधिकारों की सीमा
जैसे व्यक्ति दूर भागता है सर्प से
आसन्न भय से आक्रांत होकर
वैसे ही मृत्यु भी इनके पास आकर
लौट जाती है उलटे पाँव
किसी दूसरे अज्ञात जीव को
अपना निवाला बनाने के लिए
कविता चंद्रमा पर छपे
धब्बों के समान है
जिनको बादलों का पानी और
सूरज का ताप मिटा नहीं सकता
कविता को भी पढ़ा जाता रहेगा
अनंत काल के लिए
चंद्रमा के धब्बों के मिटने तक
अनवरत
(4)
कोई कवि नहीं हूँ मैं कविवरों
तुम्हारे धंधे में भला
बलात् हस्तक्षेप क्यों करूँ मैं
प्योर काँच का बना हूँ मैं
तटस्थ रहकर कुछ भी नहीं लिखता मैं
मेरे पास कुछ भी तो नहीं है
सिवाय वास्तविकता के
मैं कवि नहीं हूँ
इसलिए रूबरू करवा देता हूँ
पत्थरों के भीतरी दर्द से
मैं कवि थोड़े ही हूँ
वरना झोपड़ियों के भीतर न करता
ताक़-झाँक
तुम ठहरे कवि श्रेष्ठ
भला तुम्हारा क्या काम यहाँ
तुम्हारे लिए तो महल हैं हवेलियाँ हैं
क्या कुछ नहीं मिलता होगा वहाँ
खेतों में जाकर क्या मिलेगा तुम्हें
महज़ धूप के
वहाँ ए सी थोड़े ही मिलेगी
आराम से बैठकर
बिरुदावलियाँ कहने के लिए
इसलिए तुम तकल्लुफ़ न उठाओ
तुम तो मीर की शोहरतें और सुख-चैन लिखो
चैन से बैठकर
ये काम मेरे लिए ही रहने दो
क्योंकि ये काम कवियों का नहीं है
और मैं तो कवि हूँ नहीं
इसलिए राष्ट्रहित मेरे हवाले ही रहने दो
मैं कोई कवि नहीं हूँ
अतः पीड़ाओं का ये बीड़ा मैं
ही उठाए रख लेता हूँ
तुम मज़े करो
तुमने ये मनुष्य योनि
ये सब करने के लिए थोड़े ही ली है
वो भी बाक़ायदा कवि बनकर
(5)
पत्थरों में भी नफ़स देखा है मैंने
दिल होता है उनके भी सीने में
देख सकता है जिसे सिर्फ़ कोई पत्थरदिल ही
उनके सीने पर बने निशान
कहानी कह रहे हैं सभ्यताओं के
कोमलकांत मनोभावों की
जिसमें विकसित और अविकसित
दोनों तरह के समाजों के
दृष्टांत छपे हैं विस्तार से
पत्थरों पर उत्कीर्ण शब्दों ने हमें
रूबरू करवाया सभ्यताओं के सभ्यपन से
यदि ग़ौर से सुना जाए तो
पत्थर प्रकट करते हैं अपनी भावनाएँ
ये भावनाएँ भावनाशील मनुष्य के भीतर
हवा देती हैं एक आंदोलन को
और बनाती हैं सभ्य सुसंस्कृत व्यक्ति
इनके भीतर छिपे अक्षरों में ढूँढ़ सकता है व्यक्ति
लुप्त होती अपनी संवेदनाओं को
इससे उलट अविकसित सभ्यताओं में
पत्थर से पत्थर टकराकर
फेंक दिया जाता है पत्थरों को
महज़ आग सुलगाकर
अथवा छापामार युद्ध में एक-दूसरे पर
पत्थरों की वर्षा करते हुए लहू बहाकर
इन दोनों व्यतिरेकों में
पत्थरों का सही इस्तेमाल करते हुए
मान रखा जा सकता है सभ्यताओं का
प्रकाश प्रियम
जयपुर (राजस्थान)
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