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पुराने दिनों की यादें : गायत्री प्रियदर्शिनी की कविताएं

हमारे बचपन अपनेपन शरारतों की न जाने कितनी यादें कितनी बातें। लगते हैं फीके उस आत्मीय गंध के आगे हमारे समय के स्मार्ट सुंदर ब्रीफकेस!

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hastakshep
10 Jun 2023
Poems of Gayatri Priyadarshini

गायत्री प्रियदर्शिनी की कविताएं

गायत्री प्रियदर्शिनी की कविताएं

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(1)

यादों की भट्टियॉं ( प्यारे भाई के लिए)

दफ्न कर दो

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मन की सीली

ठंडी अंधेरी गुफाओं में

दर्द की शिलाऍं।

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जड़ दो

अंधेरी

निस्तब्ध

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अकेली रातों के

होठों पर

चुप्पियों के

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सात ताले।

ओढ़ लो

चेहरे पर

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नीलकंठी मुस्कान।

एक हूक

एक टीस

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फॉंसकी तरह

सालती 

एक चुभन

और

भरभरा के

ढह जाते हैं

रेतीले तटबंध

जैसे

पुरानी डायरियों के

पीले पन्नों पर

छूटे

सूखे फूलों के

निशान।

मन की

दराजों में

गुमी हुई

अचानक ही

आ लिपटी

कोई

जिद्दी सी याद!

बिना मुड़े

बिना हाथ हिलाते

बिना कुछ कहे

जैसे अधूरी कहानी के

बीच से

उठ कर

चला गया है

कोई।

धूं-धूं कर

जल रही हैं

रात- दिन

यादों की

भट्टियॉं।

ये

विदाई भी

कैसी विदाई

ये जाना भी

कैसा जाना

हाथ से

छूट तो रही हैं

हथेलियॉं

लेकिन

बरबस ही

कसती जा रही है

मन को

छूट रहे

रिश्तों की डोर!

(2) खुशबू का रिश्ता!

जाना नहीं था

कि

होता है प्यार ऐसा।

रात के बिछौने में

चाँदनी को ओढ़े

युक्लिप्टिस की

शाखों पर

टूटी चूड़ी की तरह

अटके

दूज के चाँद को

निरखते रहने जैसा।

बाँहों के तकिये पर

सिर रखते ही

नींद के नीड़ में

खो जाने जैसा।

बच्चों के सपनों में

मीठी हँसी सी घुलती

माँ की लोरी की

थपकी जैसा।

सुबह - सवेरे की

पहली चाय की

गरमागरम भाप में

महकती मुस्कान जैसा।

होता है शायद

ऐसा ही

सह - अनुभूति

संग - साथ से

उपजा

प्यार का रिश्ता

जैसे

हाथों की हथेलियों से

मेंहदी की रंगत

और

खुशबू का रिश्ता!

(3) पुराने दिनों की यादें

उपेक्षाओं के

इस समय में

निस्पंद हैं

वर्षों से

घर की कुठरिया में

पुराने संदूक।

नकली 

चकाचौंध- भरे

खोखले उजालों के

समय में

दीख रहें हैं

ग़ैर ज़रूरी

तरीके से

बेआबदार

संदूक -

काठ के

लोहे के

टीन के।

समेटे है

पुराने बर्तनों,

बचपन के कपड़ों,

खिलौनों

रगड़ों- झगड़ों को

काठ का संदूक।

मम्मी- पापा की

यादों वाला

शादी की

सौगातों वाला

नानी के

आशीषों वाला

थोड़े से गहने

थोड़े से पैसे

बच्चों के लिए

खजाने वाला।

जादू- भरी

पिटारी वाला

मम्मी का

शादी का संदूक।

रजाइयों

लिहाफों

पुराने स्वेटरों की

ऊन से बने

समेटे

क्रोशिए के

कंबलों की गरमाई

बन जाता

हमारे छिपने की जगह

बिस्तर वाला

बड़ा संदूक।

सहेजे हुए हैं

संदूक

कपूर की 

महक की तरह

हमारे बचपन

अपनेपन

शरारतों की

न जाने

कितनी यादें

कितनी बातें।

लगते हैं फीके

उस

आत्मीय गंध के आगे

हमारे समय के

स्मार्ट

सुंदर

ब्रीफकेस!

         ------ गायत्री प्रियदर्शिनी

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