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...पर सरकार कहां है?
मोदी सरकार सिर्फ देश को कोविड-19 की दूसरी लहर (Second wave of corona) के लिए पूरी तरह से बिना-तैयारी के रखने की ही दोषी नहीं है, बल्कि वह, खुद अपने बढ़ाए इस संकट के बीच, देश को बेसहारा छोड़ देने की भी अपराधी है। उसके देश को बेसहारा छोड़ने में ऑक्सीजन और अस्पताल बैडों के एक पखवाड़े से लगातार जारी जानलेवा संकट के बाद भी अगर किसी को शक हो तो, राजधानी में स्थित विदेशी दूतावासों से जुड़े ताजा घटनाक्रम से दूर हो जाना चाहिए।
इस संकट के बीच नई-दिल्ली स्थित न्यूजीलेंड के उच्चायोग को, सरकार पर भरोसा नहीं रहने के चलते ऑक्सीजन के लिए उसी तरह सार्वजनिक रूप से गुहार लगानी पड़ी है, जैसे कितनी ही संस्थाओं तथा व्यक्तियों को लगानी पड़ रही है।
इस क्रम में उच्चायोग ने विपक्षी पार्टी, कांग्रेस के युवा संगठन, यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष से भी मदद की गुहार लगायी, जिनकी हैल्पलाइन इस संकट के बीच काफी लोगों की मदद कर रही है। मदद की इस पुकार की सुनवाई भी वहीं हुई और इस संगठन के कार्यकर्ताओं ने ऑक्सीजन से भरे कई सिलेंडर न्यूजीलेंड उच्चायोग में पहुंचा भी दिए और इसके लिए उच्चायोग ने उनका हार्दिक धन्यवाद भी किया।
साफ है कि न्यूजीलेंड उच्चायोग को इस संकट के बीच मदद के लिए मोदी सरकार न दूर-दूर तक नजर आयी और न उससे कोई मदद मिली।
खबरों और सांसों पर सरकार का पहरा ?
बहरहाल, मोदी सरकार ने इस संकट के बीच देश की जनता को ही नहीं, विदेशी दूतावासों तक को भले ही उनकी किस्मत के भरोसे छोड़ दिया हो, मोदी राज और उसके नेता की छवि बचाने के लिए अपनी मुस्तैदी में इन हालात में भी वह कोई कमी नहीं होने दे रही है।
न्यूजीलेंड उच्चायोग द्वारा निजी स्रोतों से मदद मांगे जाने की खबर फैलना शुरू होते ही मोदी सरकार हरकत में आयी और कूटनीतिक स्रोतों से दबाव डालकर, विदेशी उच्चायोग से यह स्पष्टीकरण जारी कराया गया कि उसने आम तौर पर सभी स्रोतों से मदद मांगी थी, न कि विशेष तौर पर यूथ कांग्रेस से। हाई कमीशन को मदद की अपील का अपना ट्वीट डिलीट करने के लिए भी ‘तैयार’ कर लिया गया! इतने से भी संतोष नहीं हुआ तो खुद विदेश मंत्री यह प्रचार करने के लिए ट्विटर पर कूद पड़े कि विपक्ष झूठे प्रचार के लिए जबरन दूतावासों को मदद देने का स्वांग कर रहा है।
विदेश मंत्री ने आरोप लगाया कि इसी तरह यूथ कांग्रेस ने बिना मांगे जबरन फिलीपीन्स के दूतावास में ऑक्सीजन सिलेंडर ले जाकर पटक दिए थे, जबकि उस दूतावास में तो कोविड का कोई मरीज तक था ही नहीं!
यह तब था जबकि फिलीपीन्स के दूतावास की ओर से दो मरीजों के लिए ऑक्सीजन की मदद मांगी गयी थी और यूथ कांग्रेस ने दूतावास में छ: ऑक्सीजन सिलेंडर पहुंचाए थे, जिसके लिए दूतावास ने उसका हार्दिक धन्यवाद भी किया था।
नामुमकिन नहीं है कि न्यूजीलेंड उच्चायोग ने फिलीपीन्स के दूतावास के मदद की मांग के सकारात्मक अनुभव को देखते हुए ही, यूथ कांग्रेस से मदद की गुहार लगायी हो।
दूसरी ओर, मोदी सरकार इस संकट के बीच मदद की गुहारों को सुनने के बजाए, उन्हें झुठलाने या नकारने में ही लगी रही है। नतीजा यह कि यह पूरा प्रकरण अंतत: इस अप्रिय बिंदु तक पहुंच गया कि विदेश मंत्रालय ने दूतावासों को इसका उपदेश दे डाला कि अपने यहां ऑक्सीजन और अन्य आवश्यक चिकित्सकीय सामग्री की जमाखोरी नहीं करें!
इस तरह, सिर्फ मोदी राज की छवि बचाने के लिए विदेश मंत्रालय विदेशी दूतावासों पर जमाखोरी करने जैसा भोंडा आरोप लगाने के लिए तो तैयार हो गया, पर उसे इस बात का ख्याल ही नहीं आया कि अगर यह आरोप सच भी हो, तब भी दूतावासों का ऐसी सामग्री को जमा कर के रखना क्या मोदी सरकार से वक्त पर मदद मिलने का भरोसा नहीं रह जाने को ही नहीं दिखाता है! क्या यह भरोसा नहीं रहना अपने आप में, मौजूदा संकट के बीच मोदी राज की भूमिका पर पर्याप्त टिप्पणी नहीं है।
लेकिन इस सरकार की तो सबसे बड़ी चिंता यही है कि मदद की गुहारें अनसुनी रहने से जितनी भी जानें जाती हैं, चली जाएं, पर मोदी की छवि पर आंच नहीं आए।
अचरज की बात नहीं है कि विदेश मंत्रालय को, भारत में कोरोना की दूसरी खतरनाक लहर के विस्फोट और उससे पैदा हुए भारी संकट के विदेशी मीडिया में कवरेज ने मोदी सरकार को काफी चिंतित कर दिया है। लेकिन, इन कठोर सचाइयों को वह चाहे भी तो नकार नहीं सकती है। उल्टे, संकट इतना भारी है कि दुनिया भर की मदद की जरूरत से किसी भी तरह से इंकार नहीं किया जा सकता है। फिर भी विदेश मंत्रालय विदेशी मीडिया में इस संकट को संभालने में मोदी सरकार की विफलताओं के रेखांकित किए जाने पर, विरोध दर्ज कराए बिना नहीं रहा है। आखिर, मोदी की छवि का सवाल है। यह दूसरी बात है कि अखबार द आस्ट्रेलियन के मामले में भारतीय उच्चायोग का विरोध दर्ज कराना उल्टा ही पड़ा है।
इस बीच, विदेश मंत्रालय द्वारा बुलायी गयी भारतीय राजदूतों की ऑनलाइन बैठक में धीमे सुर में यह सलाह आयी बताते हैं कि किसान आंदोलन संबंधी रिपोर्टों की तरह, इस मामले में सरकार की आलोचना करने वाली हरेक रिपोर्ट पर विरोध दर्ज कराने से बचा ही जाना चाहिए, क्योंकि यह उल्टा पड़ सकता है।
जनता तो छोड़िए विदेशी दूतावासों तक को यह महसूस हो रहा है कि इस संकट के बीच उन्हें मोदी सरकार ने अकेला छोड़ दिया
अगर विदेशी दूतावासों तक को यह महसूस हो रहा है कि इस संकट के बीच उन्हें मोदी सरकार ने अकेला छोड़ दिया है, तो देश की जनता को क्या महसूस हो रहा होगा, इसका आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है।
दूर क्यों जाएं, देश की राजधानी में ऑक्सीजन का जानलेवा संकट शुरू होने के पूरे दस दिन बाद भी हालात इतने भयानक बने रहे हैं कि मई की पहली तारीख को दिल्ली हाई कोर्ट को केंद्र सरकार को बाकायदा इसके लिए फटकार लगानी पड़ी कि ऑक्सीजन की कमी से दिल्ली में मरीजों की जान जा रही है (Lack of oxygen is killing patients in Delhi) और सरकार हाथ पर हाथ धरकर बैठी है।
अदालत ने सख्त शब्दों में कहा कि पानी सिर के ऊपर निकल चुका है। उसने यह भी आदेश दिया कि कुछ भी किया जाए पर दिल्ली को शाम तक उसके कोटे का पूरा 490 मीट्रिक टन ऑक्सीजन दिया जाए। वर्ना हम कल देखेंगे!
इससे पहले, अदालत ने राजधानी के बत्रा अस्पताल में एक घंटा बीस मिनट तक ऑक्सीजन न रहने से, एक डाक्टर समेत आठ मरीजों के दम तोडऩे का गंभीरता से संज्ञान लिया। यह संख्या बाद में बढ़कर बारह हो गयी।
इसी रोज गुडग़ांव के एक अस्पताल से छ: मरीजों की ऑक्सीजन न मिलने से मौत की खबर आयी। इन मौतों के साथ राजधानी क्षेत्र में घोषित रूप से अस्पतालों को ऑक्सीजन न मिलने से होने वाली मौतों का आंकड़ा, पांच दर्जन से ऊपर तो जरूर ही निकल चुका है।
बेशक, राजधानी दिल्ली को इस संकट के बीच भी, जाहिर है कि राजनीतिक कारणों से, केंद्र का सौतिया बर्ताव झेलना पड़ रहा है।
कोविड-19 की तेजी से ऊंची उठती लहर के बीच ऑक्सीजन का गंभीर संकट फूट पड़ने के बाद, केंद्र सरकार ने कुछ हड़बड़ी में और कुछ दुर्भावना से ऐसे कदम उठाए, जिन्होंने प्रकटत: ऑक्सीजन की तंगी को कम करने के प्रयास करते हुए भी, दिल्ली की ऑक्सीजन की कमी की तकलीफ को असह्य रूप से लंबा खींच दिया है।
इस संकट की पृष्ठभूमि में चिकित्सकीय उपयोग की द्रव ऑक्सीजन का केंद्र सरकार ने जो नये सिरे से आवंटन किया, उसमें अन्य राज्यों की तरह दिल्ली के कोटा में भी बढ़ोतरी जरूर की गयी, फिर भी यह कोटा दिल्ली द्वारा रखी गयी 900 मीट्रिक टन रोजाना की मांग से आधे से भी कम था। इसके अलावा द्रव ऑक्सीजन के आपूर्तिकर्ता कारखानों का आवंटन इस तरह किया गया कि दिल्ली के कोटे का बड़ा हिस्सा, देश के पूर्वी छोर पर स्थित राज्यों से, हजार किलोमीटर से ज्यादा की दूरी से ढोकर लाया जाना था। इसके ऊपर से, इस द्रव ऑक्सीजन की ढुलाई के लिए क्रायोजैनिक टैंकर जुटाने के लिए दिल्ली की कोई मदद करने से केंद्र ने हाथ खींच लिया। नतीजा यह कि दिल्ली हाई कोर्ट को दर्ज करना पड़ा कि नये आवंटन के दसवें दिन तक, एक दिन भी दिल्ली को उसके उस कोटे जितनी ऑक्सीजन नहीं मिली थी, जो उसकी मांग से आधा ही था।
हाई कोर्ट के ऑक्सीजन का कोटा तय करने के मामले में दिल्ली के साथ प्रकट भेदभाव के लिए केंद्र को फटकार लगाने के बाद, केंद्र ने दिल्ली के कोटा में 100 मीट्रिक टन का इजाफा जरूर किया, लेकिन बत्रा अस्पताल में ऑक्सीजन के अभाव में बारह मरीजों के तड़प-तड़पकर दम तोड़ देने की खबर आने के बाद।
यह ऑक्सीजन की आपूर्ति जैसे जिंदगी-मौत के सवाल के मामले में अपनी जिम्मेदारी अदा करने से केंद्र सरकार के पीछे हट जाने का ही सबूत है कि दिल्ली हाई कोर्ट से दस दिन से लगभग दिल्ली में ऑक्सीजन की आपूर्ति के सवाल पर सुनवाई करने के बाद भी, इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय हाई कोर्ट इस मुद्दे की सुनवाई कर ही रही थी। और एक शिशु चिकित्सालय समेत राजधानी में अस्पतालों से ऑक्सीजन खत्म होने के करीब होने के, एसओएस संदेश सोशल मीडिया में आ ही रहे हैं।
जब राजधानी का यह हाल है तो देश के बाकी हिस्सों में क्या स्थिति होगी इसका आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। यह दूसरी बात है कि केंद्र में मोदी सरकार की ही तरह, राज्यों की भाजपायी सरकारें भी, इस संकट को दबाने, छुपाने और नकारने के जरिए, अपनी नाकामियों को ढांपने में ही ज्यादा मुस्तैदी दिखा रही हैं। राजधानी की बगल में, हरियाणा के भाजपाई मुख्यमंत्री ने राज्य के विभिन्न हिस्सों में कोविड से मौतों के सरकारी आंकड़े के, कोविड से मरने वालों के दाह संस्कारों के आंकड़े से बहुत कम होने की रिपोर्टों को यह कहकर हंसी में उड़ाने की कोशिश की कि गिनती से, मरने वाले वापस तो आ नही जाएंगे! अचरज की बात नहीं है कि हरिणाया, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड से लेकर, गुजरात तथा कर्नाटक तक , भाजपा की सरकारें आम तौर पर संक्रमण से लेकर मौतों तक के आंकड़े छुपाकर, हालात को अपने नियंत्रण में दिखाने की विफल कोशिशों में लगी हुई हैं। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार इसमें और भी आगे निकल गयी और उसने ऑक्सीजन, अस्पताल में बैड, रेमडेसिविर जैसी दवाओं आदि की सोशल मीडिया में गुहारों को, सरकार को बदनाम करने का षडयंत्र घोषित कर, लोगों तथा मीडियाकर्मियों के खिलाफ मुकद्दमे थोपना शुरू कर दिया था।
आखिरकार, सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप कर के कहना पड़ा कि इन जीवन रक्षक चीजों की भारी तंगी किसी का झूठा प्रचार नहीं एक ठोस सचाई है और अगर ऐसी गुहार लगाने के लिए किसी के भी खिलाफ कार्रवाई की गयी, तो इसे अदालत की अवमानना माना जाएगा।
सभी देशवासियों के टीकाकरण की जिम्मेदारी से तो मोदी सरकार पहले ही पल्ला झाड़ चुकी थी। उसकी कथित नयी टीका नीति के नतीजे, 1 मई को तब खुलकर सामने आ गए, जब केंद्र सरकार की घोषणा के मुताबिक टीकाकरण का तीसरा चरण शुरू हुआ, जिसके साथ 18 वर्ष से ऊपर के सभी लोगों को टीकों की सुरक्षा से कवर किया जाना है। तीसरे चरण की शुरूआत, एक ओर कई राज्यों के इसकी घोषणा करने के साथ हुई कि किसी बड़े पैमाने पर 45 से 18 वर्ष तक के लोगों का टीकाकरण अभी दूर है क्योंकि इसके लिए टीके ही उपलब्ध नहीं हैं, वहीं एक ओर जहां-तहां थोड़ी सी संख्या में ये टीके पहुंच गए हैं, जो इलाकों के बीच भेद की शिकायतें पैदा करेगा, वहीं दूसरी ओर खास तौर पर मैक्स तथा अपोलो जैसी सबसे बड़ी अस्पताल शृंखलाओं में ये टीके पहुंच गए हैं, 1200 रु0 प्रति खुराक खर्च कर के ये टीके लगवाने के लिए तैयार लोगों के लिए! दूसरी ओर, देश अनेक हिस्सों में टीकों की तंगी के चलते, पहले से काम कर रहे अनेक टीकाकरण केंद्र बंद हो गए हैं और इसके चलते, दूसरे चरण में टीका लेने वालों की खासी संख्या को टीके की दूसरे खुराक के लिए चक्कर लगाने पड़ रहे हैं।
राजेंद्र शर्मा
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