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रेलवे ने कल 13 मई से 15 जोड़ी यात्री ट्रेन (AC) चलाने का निर्णय लिया है। इसमें लॉकडाउन में फंसे हुए लोग (People trapped in lockdown) यात्रा कर सकते हैं अन्य कोई शर्त नहीं है। लेकिन अभी भी जो दसियों लाख प्रवासी मजदूर देशभर में फंसे हुए हैं उनके लिए चलाई जा रही श्रमिक स्पेशल ट्रेन (Shramik Special Train) में मजदूरों को पहले पंजीकरण कराना होगा उसके बाद संबधित राज्य तय करेंगे कि किसे इजाजत देना है और किसे नहीं।
फिलहाल इस सबके बीच मुफ्त किराया का मुद्दा पीछे छूट गया है और जैसे-तैसे मजदूर किराया देने को तैयार भी हैं। लेकिन अभी लाखों मजदूर पैदल निकलने के लिए बाध्य हैं।
Railways has announced to run 300 workers special trains
रेलवे ने 300 श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाने की घोषणा की है लेकिन ज्यादातर राज्य बेहद कम ट्रेन की डिमांड कर रहे हैं। पंजीकरण की प्रक्रिया भी बेहद जटिल होने से उम्मीद जताई जा रही है कि मजदूरों का छोटा हिस्सा ही पंजीकृत हुआ होगा। बावजूद इसके पंजीकरण कराने वाले मजदूरों की संख्या भी बड़े राज्यों में लाखों में है। इसका स्पष्ट मतलब यह है कि अभी भी मजदूरों को अपने घरों को लौटने का जो मौलिक अधिकार है का हनन हो रहा है।
तीसरे चरण के लॉकडाउन के साथ 29 अप्रैल को जारी की गई गाईडलाईन में राज्यों को प्रवासी मजदूरों को बसों द्वारा लाने की इजाजत दी गई थी, इसमें केंद्र सरकार ने खुद अपनी किसी जवाबदेही तय नहीं की सिवाय गाईडलाईन जारी करने के। लेकिन मजदूरों के आक्रोश और देशव्यापी मुद्दा बनने के बाद 1 मई को मोदी सरकार ने 3 मई से श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाने की घोषणा की।
तमाम विवादों के बीच 7 दिनों में मात्र 366 श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाई गई और अभी तक इससे 4 लाख प्रवासी मजदूर ही गंतव्य तक पहुंच पायेंगे।
नोट करने की बात है कि लॉकडाउन अवधि में इससे कई गुना ज्यादा मजदूर पैदल ही निकल पड़े। जहां विदेश से लाये जा रहे लोगों का दूतावास से लेकर देश के हवाई अड्डों में प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा स्वागत किया जा रहा है, वहीं इन लाचार, बेबस मजदूरों जिनके साथ छोटे छोटे बच्चे, बुजुर्ग और गभर्वती महिलाएं तक हैं, के साथ बर्बर व्यवहार व दमन किया जा रहा है।
दरअसल कारपोरेट और शासक वर्ग MSME sector को चौपट होने से बचाने के बजाय इनके बड़ी ईकाइयों में विलय और आधुनिकीकरण के लिए आम राय बन सकती है जिससे इन मजदूरों में बड़े हिस्से की छंटनी तय हैं। इसलिए इन मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ देने की आम राय भी शासक वर्ग में बनती जा रही है।
जब अभी मजदूरों की उपेक्षा और बुरा बर्ताव उन्हें घरों तक पहुंचाने जैसे बेहद साधारण मामले में हो रहा है। तब अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब महामारी का प्रकोप बढ़ेगा तब इनके इलाज को लेकर सरकार की कैसी नीति होगी।
अभी तक लोकल लेवल पर ही community transmission की संभावना जताई जा रही है और देश भर में मरीजों की संख्या 65 हजार पार कर गई है। एम्स के निदेशक का भी मानना है कि जून-जुलाई में पीक होगा। ऐसे हालात में तो गरीबों को इलाज की सुविधा मिल पायेगी कि उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जायेगा? यह इससे निर्धारित होगा कि मजदूरों-गरीबों का राजनीतिक ताकत के बतौर गोलबंदी होती है कि नहीं।
दरअसल कोरोना महामारी के दौर में पूंजीवादी-सामंती राज्य और सरकारों का मजदूर-गरीब विरोधी चरित्र पूरी तरह उजागर हो गया है।
राजेश सचान
युवा मंच