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Shah Alam will fast unto death to recognize the revolutionary Gendalal Dixit
क्रांतिकारियों में मास्साब नाम से मशहूर थे गेंदालाल दीक्षित, पहचान दिलाने हो रहा आमरण अनशन
क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित को पहचान दिलाने के लिए आगरा में आमरण अनशन (fast unto death in Agra) होने जा रहा है. गेंदालाल दीक्षित ने देश को आज़ाद कराने के लिए जो सपना देखा और जिस तरह से दूसरे बड़े क्रांतिकारियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के लिए मुसीबत बने, वह मिसाल है. अपने अतुलनीय योगदान के बाद भी गेंदालाल दीक्षित को वो सम्मान नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे.
गेंदालाल दीक्षित को लेकर क्रांतिकारियों को लेकर काम करने वाले, दस्तावेजी फ़िल्में बनाने वाले और अवाम का सिनेमा के जरिये क्रांतिकारियों और समाज की सही तस्वीर सामने लाने वाले शाह आलम अभियान शुरू कर रहे हैं.
आमरण अनशन करने जा रहे हैं शाह आलम.
ये आमरण अनशन आगरा के मई गाँव में किया जाएगा. मई गाँव ही पंडित गेंदालाल दीक्षित का जन्म स्थान (Birthplace of Pandit Gendalal Dixit) है.
अनिश्चितकालीन आमरण अनशन 19 से, क्या हैं मांगें
आजादी आंदोलन के महानायक कमांडर-इन-चीफ गेंदालाल दीक्षित के जीवनीकार और महुआ डाबर एक्शन के महानायक पिरई खां के वंशज शाह आलम क्रांतिवीर राम प्रसाद बिस्मिल के बलिदान दिवस पर आगामी 19 दिसंबर, 2021 से पं. गेंदालाल दीक्षित जी के जन्म स्थान मई गांव, आगरा में आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में आजादी आंदोलन के योद्धाओं की कीर्ति रक्षा के लिए निम्न मांगों को लेकर आमरण अनशन करने जा रहे हैं।
1. कमांडर-इन-चीफ गेंदालाल दीक्षित के जन्म स्थान आगरा के मई गांव तक पक्की सड़क का निर्माण कराया जाए।
2. जन्म स्थान मई गांव में जमीदोज हो चुके उनके घर को राष्ट्रीय स्मारक बनाया जाए।
3. जंग-ए-आजादी के इस महानायक के बलिदान शताब्दी वर्ष पर भारतीय डाक टिकट जारी किया जाए।
4. डॉ. भीमराव आंबेडकर विश्विविद्यालय, आगरा में परास्नाक स्तर पर सर्वोच्च अंक पाने वाले विद्यार्थी को प्रति वर्ष पं. गेदालाल दीक्षित स्वर्ण पदक प्रदान किया जाए।
5. उनके जन्म स्थान मई गांव, आगरा को पर्यटन मानचित्र से जोड़ा जाए।
6. क्रांतिकारियों के गुरू के नाम से सुविख्यात महान क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित का गौरवशाली इतिहास पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।
कौन हैं शाह आलम (who is shah alam)?
शाह आलम ने डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या और जामिया मिल्लिया इस्लामिया केन्द्रीय विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से पढ़ाई की है। वह एक घुमंतू पत्रकार (itinerant journalist) के रूप में करीब दो दशक से दस्तावेजी फिल्मों के निर्माण प्रकिया में सक्रिय हैं। सामाजिक सरोकारों के लिए 2002 में चित्रकूट से अयोध्या तक, 2004 में मेंहदीगंज से सिंहचर तक, 2005 में इंडो-पाक पीस मार्च दिल्ली से मुल्तान तक, 2005 में ही सांप्रदायिक सौहार्द के लिए कन्नौज से अयोध्या, 2007 में कबीर पीस हॉर्मोनी मार्च अयोध्या से मगहर, 2009 में कोसी से गंगा तक पैदल यात्रा की है। उत्तर प्रदेश के पहले फिल्म समारोह की वर्ष 2006 से अयोध्या फिल्म फेस्टिवल की नींव रखी। 2009 में लावारिसों के वारिस शरीफ चाचा पर उनकी दस्तावेजी फिल्म काफी चर्चा में रही। सात वर्षों से चौरी चौरा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन भी कर रहे हैं।
शाह आलम ने वर्ष 2016 में 2800 किमी से अधिक दूरी साइकिल से तय करके चंबल के बीहड़ों का दस्तावेजीकरण (Documentation of the ravines of Chambal) किया। ‘चंबल जनसंसद’ और आजादी के 70 साल पूरे होने पर ‘आजादी की डगर पे पांव’ 2338 किमी की यात्रा क्रांतिकारियों के भूलने के विरुद्ध की।
मातृवेदी-बागियों की अमरगाथा, चंबल मेनीफेस्टो, बीहड़ में साइकिल, आजादी की डगर पे पांव, कमांडर-इन-चीफ गेंदालाल दीक्षित आदि पुस्तकों के लेखक हैं। चंबल संग्रहालय, के आसिफ चंबल इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, पंचनद दीप पर्व के संस्थापक, चंबल लिट्रेरी फेस्टिवल और चंबल मैराथन के संस्थापक भी हैं। साथ ही प्रेस क्लब आफ इंडिया, नई दिल्ली के सद्स्य हैं।
कैसा था गेंदालाल दीक्षित का क्रांतिकारी जीवन?
जंग-ए-आजादी के दौरान संयुक्त प्रांत के क्रांतिकारियों के बीच मास्साब नाम से सुविख्यात गेंदालाल दीक्षित ने न सिर्फ सैकड़ों छात्रों और नवयुवकों को स्वतंत्रता की लड़ाई से जोड़ा बल्कि बीहड़ के दस्यु सरदारों में राष्ट्रीय भावना जगाकर उन्हें स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए जीवन सौंपने की शपथ दिलवाई थी। इतिहास में गेंदालाल दीक्षित की पहचान मैनपुरी षड्यंत्र केस के सूत्रधार (Mainpuri conspiracy case mastermind), उस दौर के सबसे बड़े सशस्त्र संगठनों शिवाजी समिति व मातृवेदी के संस्थापक-कमांडर के रूप में होती है। संगठन में युवाओं व बागियों को जोड़ने के बाद उन्हें राष्ट्र प्रेम की दीक्षा और हथियार चलाने की शिक्षा देने के नाते उन्हें क्रांतिकारियों का गुरू कहा जाता है।
महान क्रांतिकारी पं. रामप्रसाद बिस्मिल को स्वतंत्रता आन्दोलन से जोड़ने व शस्त्र शिक्षा देने का श्रेय भी गेंदालाल दीक्षित को है। उन्होंने अलग-अलग प्रान्तों में काम कर रहे क्रांतिक्रारी संगठनों को एकीकृत कर विप्लवी महानायक रास बिहारी बोस की सन् 1915 की क्रांति योजना का खाका खींचा था।
पं. गेंदालाल दीक्षित की जीवनी | गेंदालाल दीक्षित का जीवन परिचय | Genda Lal Dixit Biography in Hindi
गेंदालाल दीक्षित की पढ़ाई कहां हुई?
पं. गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवंबर 1890 को संयुक्त प्रांत के आगरा में बटेश्वर के पास मई गांव में हुआ था। उनकी आरंभिक शिक्षा गांव में ही हुई और आगे की पढ़ाई उन्होंने इटावा व आगरा में की। स्वतंत्रता के आन्दोलन से वे मिडिल पास करने के बाद ही जुड़ गये थे, जब 1905 में बंग-भंग के विरोध में देशव्यापी आन्दोलन शुरू हुआ था। इसी के चलते वह कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर आगरा से औरैया चले आये और वहां डीएवी स्कूल में पढ़ाने लगे।
जब पहले विश्व युद्ध की आहट हुई तो अधिकतर ब्रितानिया सेना सुदूर मोर्चों पर भेज दी गई। यह अन्य क्रांतिकारियों सहित गेंदालाल दीक्षित के लिए सुनहरा मौका था। उन्होंने प्रांत भर में दौरे शुरू किये। इसी दौरान शाहजहांपुर में उनकी मुलाकात राम प्रसाद बिस्मिल से हुई। बिस्मिल उनसे प्रभावित हुए और संगठन से जुड़ गये। आगरा जनपद के अंतर्गत बाह तहसील के पिनाहट कस्बे के नजदीक चंबल घाटी के बीहड़ों में बिस्मिल को सैनिक प्रशिक्षण दिया गया।
इन क्रांतिकारियों के संपर्कों के सहारे उन्होंने पंजाब, महाराष्ट्र, दिल्ली, राजपूताना और बंगाल के क्रांतिकारी संगठनों को एक सूत्र में पिरोया। रासबिहारी बोस ने 21 फरवरी 1915 जिस महान क्रांति की तैयारी की थी, उसके लिए दीक्षित ने उन्हें 5000 लड़ाके देने का वादा किया था। हालांकि मुखबिरी के चलते वह क्रांति असफल रही और रासबिहारी को देश छोड़ना पड़ा। इसके बाद गेंदालाल सिंगापुर गए और गदर पार्टी के नेताओं से मिलकर तख्तापलट की रणनीति बनाई।
सिंगापुर से वापस आकर उन्होंने बिस्मिल सहित कई बड़े क्रांतिकारियों के साथ 1916 में मातृवेदी दल की स्थापना की। मातृवेदी के कमांडर स्वयं गेंदालाल दीक्षित थे, इसका अध्यक्ष दस्युराज पंचम सिंह को बनाया गया और संगठन की जिम्मेदारी लक्ष्मणानंद ब्रह्मचारी को दी गई। दल को चलाने के लिए 40 लोगों की केंद्रीय समिति बनी जिसमें 30 चंबल के बागी और 10 क्रांतिकारी शामिल थे। इन 10 क्रांतिकारियों में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और पत्रकार शिव चरण लाल शर्मा भी शामिल थे।
दल का गठन पूरी तरीके से गोपनीय रखा गया था और इसमें शामिल होने के लिए सैनिकों को मर मिटने की शपथ लेनी होती थी। यह शपथ हाथ में गंगाजल लेकर दीक्षित के सहयोगी क्रांतिकारी देवनारायण भारतीय दिलाते थे। उनका नारा था, भाइयों आगे बढ़ो फोर्ट विलियम छीन लो, जितने भी अंग्रेज सारे एक-एक कर बीन लो। मातृवेदी के इन मतवालों के उद्घोष से वीरान पड़े चंबल के बीहड़ गूंज उठे, लेकिन इसकी भनक ब्रितानी सत्ता तक न पहुंचने दी गई।
मातृवेदी दल के पास एक व्यवस्थित वर्दीधारी सेना थी, इसमें बड़ी संख्या में बीहड़ों के डाकू शामिल थे। सैनिकों को वेतन दिया जाता था। उस समय दल की सेना में 2000 पैदल सैनिक और 500 घुड़सवार शामिल थे। दल के पास करीब आठ लाख रूपये का कोष संग्रह था। इसका सैन्य मुख्यालय जालौन रखा गया।
उधर सन 1915 की क्रांति असफल होने के बाद हो रही तख्तापलट की तैयारियों की भनक ब्रितानी सरकार को लग गई। इस तैयारी के तार संयुक्त प्रान्त से जुड़े तो ब्रिटिश सरकार ने फैड्रिक यंग (जिसने बाद में सुल्ताना डाकू को पकड़ा था) नामक पुलिस कमिश्नर को विशेष रूप से मलाया से बुलाकर आगरा में विशेष अधीक्षक नियुक्त किया और क्रांतिकारियों के दल को कुचलने का आदेश दिया। उसकी धरपकड़ में कुछ क्रांतिकारी पकड़े गए।
गेंदालाल और पंचम सिंह के 90 सदस्यों का दल दल भिंड जिले के मिहोना में घने जंगल में था तो 31 जनवरी 1918 को फैड्रिक यंग की अगुवाई में पुलिस की बड़ी टुकड़ी ने चारों तरफ से घेर कर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं। यंग के जासूस ने खाने में जहर मिला दिया था, जिससे दल बेहोशी की हालत में था इसलिये जवाबी कार्रवाई न हो सकी। इस गोलीबारी में 36 क्रांतिकारी शहीद हुए। गेंदालाल दीक्षित को तीन और लक्ष्मणानंद ब्रह्मचारी को नौ गोली लगी, दोनों गिरफ्तार हुए। सभी घायल गिरफ्तार क्रांतिकारियों को ग्वालियर किले में मिलिट्री की निगरानी में बंद कर दिया गया। इस मामले का मुकदमा मैनपुरी षड्यंत्र केस के रूप में चलाया गया, क्योंकि दल के सदस्य दलपत सिंह ने मुखबिरी मैनपुरी जिलाधिकारी को ही की थी।
जब गेंदालाल को किले के बंदीगृह से निकालकर मैनपुरी में आईजी सामने लाया गया तो उन्होंने कहा, आपने इन बच्चों को व्यर्थ ही पकड़ रखा है। इस केस का तो मैं स्वयं जिम्मेदार हूं। पंजाब, बंगाल, बम्बई, गुजरात सहित विदेशों से मेरा कनेक्शन है, इन सबको आप छोड़ दीजिये। आईजी ने उनकी बात पर भरोसा कर लिया, और कई नौजवानों को छोड़ दिया। इसके बाद उन्हें कप्तान की कोठी पर ले जाकर मुखबिरों के साथ ही हवालात में बंद कर दिया गया।
मैनपुरी में हवालात में बंद होने के दौरान उनके सहयोगी देवनारायण भारतीय ने उनतक फलों की टोकरी में रिवाल्वर व लोहा काटने की आरी पहुंचा दी, जिसकी मदद से गेंदालाल सलाखें काटकर फरार हो गये। इस दौरान कुछ समय उन्होंने ग्वालियर स्टेट के छोटे से गांव में मात्र राशन पर अध्यापन किया, लेकिन किले में कैद के समय हुआ क्षय रोग बढ़ता जा रहा था, वह हरिद्वार गये फिर दिल्ली होते हुए बीमारी की हालत में अपने वीरान पड़े गांव आए। उनकी हवेली काफी समय से खाली पड़ी थी, उनके सहयोगी वहीं रात में खाना-पानी और दवा पहुंचाते थे। उनके साथ परिवार भी न उलझ जाए यह सोचकर गेंदालाल फिर हरिद्वार चले गये। जब वह वापस दिल्ली लौटे तो पहाड़गंज के महावीर मंदिर में प्याऊ पर नौकरी कर ली। प्याऊ पर नौकरी करने के दौरान उनका स्वास्थ्य बिगड़ता रहा और दिल्ली के एक अस्पताल में 21 दिसंबर 1920 को मात्र 30 वर्ष की अवस्था में उनका देहांत हो गया।
देश को आजाद कराने का सपना लेकर यमुना तट के एक छोटे से गांव में जन्मे गेंदालाल को फिर उसी यमुना तट ने प्रश्रय दी। पार्थिव को लावारिस समझकर मिट्टी के तेल से झुलसाकर यमुना तट पर फेंक दिया गया।
सरकारी तंत्र में गेंदालाल को लेकर जो रिपोर्ट दी गई थी, उसके आधार पर पुलिस के लिए यह स्वीकार करना कठिन था कि इतने बड़े क्रान्तिकारी की ऐसी गुमनाम व सामान्य मृत्यु हो सकती है। इसलिए अगले 20 वर्षों तक पुलिस उनकी खोज करती रही और उनके परिवार पर नजर रखती रही। कई बार उनके घर के पास में सेना की टुकड़ियों ने पड़ाव भी डाला, परिजनों से पूछताछ भी हुई। युवाओं, छात्रों और दस्युओं के हृदय में राष्ट्रीयता के अरमान भरने और हाथ में स्वतंत्रता के लिए हथियार थमाने वाले इस योद्धा के साथ न इतिहास लिखने वालों ने न्याय किया, न आजाद भारत की सरकार ने। स्वतंत्र भारत में उनकी विधवा पति व पुत्री के बिछोह में रो-रोकर अपने ही आंसुओं में घुल गईं, किसी ने उनकी सुधि न ली। जिस चंबल परिवार ने उनके इतिहास से नई पीढ़ी का परिचय कराया, आज आजादी के इस महानायक गेंदालाल दीक्षित का जन्म स्थान जमीदोज हो चुका है, लेकिन मांग अब तक अनसुनी है।