हाँ मैं बेशर्म हूँ….
झुंड के साथ गोठ में शामिल नहीं होती
रवायतें ताक पर रख कर खुद अपनी राह चलती हूँ
तो लिहाजों की गढ़ी परिभाषाओं के अल्फ़ाज़ गड़बड़ाने लगते हैं..
और खुद के मिट जाने की फ़िकरों में डूबी रिवाजी औरतों की इक बासी उबाऊ नस्ल सामने से वार करती है…
झुंड में यह मुँह चलाती भेड़ें भरकस कोशिशों में है कि मुझे भेड़ कर दें…
मेरा खिलखिलाना…
फलक तक ले जा के आँखें..
ख़्वाबों की पतंगें उड़ाना..
इन्हें हरगिज़ पसंद नहीं…
संस्कारों की खिड़कियों से घूरती हैं कई जोड़ियाँ आँखों की… कसमसाहटें हैं इन्हें अपनी-अपनी सलाखों की…
मेरी बेपरवाहियों से घबड़ाये…
उधड़े फटे नियमों की तुरपाइयों पे नज़रें गड़ाये
लोगों की आँख में खट्ट से चुभती है सुइयाँ
और फिर
नाबीना लोगों का झुंड मशालें लिये रस्ते बताता है..
कुंठित फुसफुसाहटों का स्वर शोर मचाता है..
बड़ी बदमाश औरत है…
और यूँ ही आपस आपस के कानों तक पहुँचे इत्मिनान से भरमायें ..
खुद को छुपाये…
इक दूजे की पीठों में मुँह डाले..
बिना देखे बिना भाले..
में में की आवाज़ करता झुंड शराफ़ती खुड्ड में वापस जा धँसता है…
जहां गोष्ठ में बंधी कुछ भेड़ें गरड़ियां पुराण बाँचती हैं..
ये यूँ ही युगों से घोटती आ रही हैं सीता के सतीत्व के शराफती क़िस्से..
जिसे बाँचना लिखा है इनके हिस्से..
ये बाँचती हैं सीता ने उम्र भर घोंटी घुट्टी राम की…
महज कथायें मेरे किस काम की..
गर सब कुछ राम के बस का था
फिर परीक्षा जला सच किसका था…
युगों-युगों का यह प्रश्न अब फिर है उबाल पर..
तमाम रेवड़ चुप्प हैं मेरे इस सवाल पर …..
डॉ. कविता अरोरा
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