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शेष नारायण सिंह अचानक और असमय चले गए। परिजनों और मित्रों तथा चाहने वालों की विशाल संख्या को शोकाकुल छोड़ गए। हिंदी पत्रकारिता को, जिसमें खबरिया चैनलों की टीवी बहसें भी शामिल हैं, दरिद्र कर गए। और चार दशक से ज्यादा की प्यार और परस्पर सम्मान से गुलजार दोस्ती पर विराम लगाकर, मेरे जैसे दोस्तों को भीतर से खाली कर गए।
सुल्तानपुर में शिक्षक की अपनी नौकरी छोड़कर, सत्तर के दशक के उत्तरार्द्ध में शेष नारायण सिंह, बिना किसी हीले के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में आ पहुंचे और जम गए। उनके लिए इतना की काफी था कि जेएनयू में सुल्तानपुर के दूर-पास के कुछ परिचित मौजूद थे।
जेएनयू उस जमाने में उत्तरी भारत के उभरते हुए बुद्धिजीवियों के लिए ऐसा ही चुम्बक बना हुआ था।
जेएनयू में उस जमाने जैसे रिवाज में ही था कि होस्टल की जगह को लेकर निजी संपत्तिभाव बहुत कम रहता था और नये आये छात्रों को खुला आतिथ्य मिलता था। संभवत: एक-दो दिन की गैरहाजिरी के बाद, होस्टल के अपने कमरे पर पहुंचा तो वहां, शेष नारायण सिंह जमे हुए थे। पता चला कि मित्र घनश्याम मिश्र ने उन्हें मेरे कमरे पर टिका दिया था। तब से शुरू हुई हमारी दोस्ती, जिसमें राजनीतिक-वैचारिक दोस्ती का तत्व ही ज्यादा था, कभी क्षीण तो कभी वेगवान जरूर हुई, लेकिन एक सदानीरा की तरह इन तमाम दशकों में उसमें तरलता बराबर बनी रही।
यह वह जमाना था जब पढ़ाई-लिखाई और सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता, निजी कैरियर की चिंता के लिए बहुत कम जगह छोड़ती थी। वह अचानक भाषा इंडोनेशिया के छात्र हो गए। फिर कुछ और। यह सबसे पहले ज्ञानार्जन का समय था, बाकी सब बाद में आता था।
शेष नारायण ने उस जमाने में मार्क्सवाद की कितनी ही किताबें मुझसे लेकर पढ़ी होंगी और कुछ तो लौटाई भी नहीं होंगी। एक किताब तो दसियों साल बाद, जब मैं शेष नारायण की किसी अस्वस्थता के चलते हाल जानने के लिए उनके घर पर गया था, साथ ले जाने के लिए मैंने उठा भी ली थी। लेकिन, शेष नारायण की इस हास्यमिश्रित दलील ने मुझे निरुत्तर कर दिया कर दिया कि छोड़ दो बच्चे क्या कहेंगे? अंकल दोस्त को देखने नहीं किताब लेने आए हैं! किताब वहां की वहीं रखी रह गयी।
पर जेएनयू का सपना भी एक दिन तो खत्म होना ही था। मैं लोकलहर में चला आया। शेष नारायण ने भी समझ लिया कि परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ और नहीं टाला जा सकता है। रोजी-रोटी के लिए वह अचानक सेल्स प्रतिनिधि के काम पर हाथ आजमाने के लिए भी तैयार हो गए। एक विचारवान व्यक्ति के लिए यह बेशक एक मुश्किल तजुर्बा था। शायद यह चरण ज्यादा चला भी नहीं। जल्द ही शेष नारायण पत्रकारिता की दुनिया में आ गए, जिसके लिए इतिहास की उनकी पढ़ाई और जेएनयू की पढ़ाई के योग ने, उन्हें बखूबी तैयार कर दिया था।
राष्ट्रीय सहारा में संपादन की जिम्मेदारी संभालने के बाद, फिर शेष नारायण ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
अपने विशद अनुभव, पैनी विश्लेषण क्षमता और भाषा पर अपनी गहरी पकड़ से, उन्होंने हिंदी पत्रकारिता में अपनी पुख्ता जगह बनायी। एनडीटीवी से होते हुए उन्होंने टेलीविजन पर राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषकों में भी अपनी महत्वपूर्ण जगह बनायी।
पिछले कुछ वर्षों से बड़े आदर के साथ उनका परिचय एक ‘वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक’ का बना हुआ था।
बहरहाल, सत्तर के दशक के जेएनयू में पुख्ता हुई धर्मनिरपेक्षता, जनतंत्र और बराबरी की अपनी निष्ठाओं को, उन्होंने कभी नहीं छोड़ा।
शेष नारायण सिंह के संबंधों और संपर्कों का दायरा इतना बड़ा था कि मेरे जैसे लोग उस पर हैरान ही हो सकते हैं। प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश के पूर्व-मुख्यमंत्री के उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने से, इस दायरे विशदता तथा संबंधों की ताकत का कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। बेशक, वह संबंधों व संपर्कों को सहेजना जानते थे। लेकिन, इससे भी महत्वपूर्ण था, उनका संबंधों को बड़ी निश्छलता से जीना। पुराने मित्रों के साथ ही नहीं, नये संपर्क में आने वालों के साथ भी और मित्रों के सभी परिवारीजनों के साथ भी, शेष नारायण बराबरी का बर्ताव करते थे। और किसी की जरूरत का जरा सा पता लगते ही, मदद के लिए तैयार रहते थे। स्वाभाविक ही है कि जेएनयू के सत्तर के दशक के मित्रों के बारे में, ताजा अपडेट के लिए, शेष नारायण सबसे विश्वसनीय स्रोत थे।
शेष नारायण की जितनी जीवन यात्रा का मैं साक्षी हूं, उसमें मुझे एक यायावर दिखाई देता है, ज्ञान की अनथक खोज में भटकता हुआ। मुझे शेष नारायण से कोई ऐसी मुलाकात याद नहीं है, जिसमें वह कोई किताब नहीं लिए रहा हो या किसी किताब की तलाश में नहीं रहा हो।
आखिर में, मैंने शेष नारायण का देशबंधु से पत्रकारीय परिचय कराया था और शेष नारायण ने उससे मेरा लेखकीय परिचय। देशबंधु से इसके बाद उन्होंने जीवन भर यह रिश्ता निभाया। कोशिश होगी मैं भी निभा सकूं।
अलविदा दोस्त!
राजेंद्र शर्मा