शिमला डायरी : पीछे छूट गई धूल को समेट लाया कौन खानाबदोश

hastakshep
31 Aug 2020
शिमला डायरी : पीछे छूट गई धूल को समेट लाया कौन खानाबदोश

शिमला डायरी’ (Shimla diary) अपने समय और समाज की एक ऐसी साहित्यिक-सांस्कृतिक डायरी और दस्तावेज है, जिसका एक अहम हिस्सा हिंदी पत्रकारिता (Hindi journalism) की दुनिया है। इसका विहंगम अवलोकन किया है चर्चित कवि और पत्रकार प्रमोद कौंसवाल (journalist Pramod Kaunswal) ने, जिन्होंने काफी समय तक चंडीगढ़ में रहते हुए खुद शिमला, चंडीगढ़ और पंजाब की पत्रकारिता की दुनिया को बहुत करीब से देखा है।  यह किताब की सिर्फ एक समीक्षा नहीं है, बल्कि उस काल खंड की पत्रकारिता व चंडीगढ़-हिमाचल की साहित्यिक-सांस्कृतिक दुनिया का एक संक्षिप्त, रोचक संस्मरण भी है :

पीछे छूट गई धूल को समेट लाया कौन खानाबदोश

प्रमोद कौंसवाल 

क दुनिया है किताबों के भीतर

एक किताबों की अपनी दुनिया

गर चाहें तो कहें-

दुनिया भी है एक बड़ी किताब

आद्यांतहीन

(‘किताब’ शीर्षक कविता, शिमला डायरी)

‘शिमला डायरी’ में मेरे लिए बची हुई किताब, किताब में रखी बर्फ, उसमें अनमोल हीरों की तरह पिरोए गए दोस्त सब मौजूद हैं। यह अलग बात है कि मैं किताब में वर्णित धौलधार को देखती पहाड़ियों को  वर्षों पहले खुद कई बार नाप चुका हूं- कांगड़ा घाटी से पालमपुर के आंगन से।

वर्षों पहले ही मैं धौलधार में कविता जैसा काफी कुछ देख आया हूं। सोभा सिंह अंद्रेटा आर्ट गैलरी का खाका तो जैसे मैंने ही बनाया था- इतना जीवंत है। लेकिन मेरे जीवन में अब ना तो धौलधार बात करता है और ना सोभा सिंह की पेंटिंग का कोई रंग बचा दिखता है। ऐसे ही मेक्लोडगंज की पहाड़ी चढ़ते हुए वहां के तिब्बती लोगों के चेहरे, उनकी संसद याद पड़ती है और स्थानीय लोगों के साथ कथित टकराव और कुंठा भी। किताब में लेखक बताते हैं कि किसी प्रकार वह कुछ बोरी किताबें, एक भारी-भरकम कैमरा और एक अनगढ़ सपना लिए पहली बार हिमाचल के एक छोटे से कस्बे में उतरे। मैं भी एक दिन उसी तरह भोर के साढ़े चार बजे धर्मशाला की किसी हल्की ढलान पर कुछ सामान और अपनी एक मित्र के साथ उनींदे में बस से उतरा था। नींद और प्यार के उनींदेपन में। उस ‘कहानी’ का भी कुछ नहीं बना। हां, इतना पता है कि वह बाद में कई कविताओं के रूप में ढली और निखरी थी लेकिन बाकी उसका कोई हिस्सा मेरे पास नहीं है जो उस सुबह की पहली किरण-सा जीवन में कुछ उजास बिखेर रही हो। याद नहीं आता? शुक्रिया ‘शिमला डायरी’ ने याद दिलाया।

याद आ रही है  वह बिनवा नदी, कांगड़ा घाटी को काटती उसकी पतली-सी धार। सामने फोटो के फ्रेम में पत्नी और गुरमीत बेदी और परम (गुरमीत की पत्नी) अपने बच्चे के साथ खड़े हैं- एक लोहे की रंगीन रेलिंग से सटे हुए। बिनवा की विडंबना पर भी कुछ लिखा था, लेकिन अब तो वह जनसत्ता की लाइब्रेरी से ही मिल सकेगा। चाय की पत्तियां बीनते लोग जीवन में पहली बार देखी और चाय बनाने की फैक्टरी भी जीवन में पहली बार देखी। अब तो सुबह-शाम होते जीवन के सफर में वे चमकीले पन्ने रंग खो चुके हैं।

प्रमोद रंजन (Pramod Ranjan) की सद्य प्रकाशित पुस्तक शिमला डायरी साहित्य की कई विधाओं को समेटे है। लेकिन तमाम विधाओं में भीतर बैठा लेखक एक ही है जो मुकम्मल जीवन के लिए हर मोड़ पर संघर्षरत दिखाई पड़ता है। जाहिर है, जीवन की खोज में उसके संघर्ष, उसके विचार, उसके संस्कार, उसके मूल्य और तमाम तरह की दुर्दम आकांक्षाएं साथ-साथ चलती हैं। पुस्तक के दो खंडों में कविता और कहानी जैसी ‘कल्पनाशीलता’ वाली विधा होने के बावजूद वहां दूसरा कोई आदमी नहीं है जो प्रमोद रंजन से बाहर का हो। प्रकृति के बदलते रंग-रूप के बीच हर परिस्थिति, हर किस्म के आदमी के भीतर यहां प्रमोद रंजन मौजूद हैं। क्या ‘डायरी’ होने से- इसलिए?  जो हो लेकिन यह पुस्तक इतनी गतिमान है कि इसे गति में नहीं बांधा जा सकता। वास्तव में, यह एक साथ दस या पंद्रह साल (वर्ष 2000 से आरंभ) जीने के अनुभव से इतनी घनीभूत है कि जैसे उस शख्स से साथ हम भी सहयात्री हों, जो इनका मुख्य वाहक है। दरअसल, यह जीवन मूल्यों से मिलता या उनसे मेल खाने का सहज वर्णन भर नहीं है, बल्कि उनसे टकराने का ज्यादा है। और यहीं से हमारे दौर कीसामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक विडंबनाओं, विद्रूपताओं और राजनीतिक कुरूपताओं के साथ ”(फ्लैप) प्रकट होती दुनिया दिखाई पड़ती है या उससे साबका पड़ता है।

जन लगभग एक हवा के झोंके की तरह हिमाचल प्रदेश में दाखिल होते हैं और वहां की प्रकृति के रहस्य में अपने को भौंचक पाते हैं। यह संयोग है इस धरती में 22 साल का वह नौजवान सैन्नी अशेष से मिलता है जो जीवन के सच और दुनिया के रहस्यों को जानने के लिए काफी कुछ ओशो-अशेष है। रहस्य के प्रति आकर्षण दोनों मनुष्यों में भले ही कॉमन फैक्टर हो लेकिन प्रमोद रंजन का रहस्य, साहित्य की भाषा में कहें तो बाबा नागार्जुन और मुक्तिबोध की खोज को आगे बढ़ाता है, जबकि सैन्नी अशेष शायद किसी निर्मल अज्ञेय के मौन की तलाश में अपने ठीयों और आश्रमों में विचरते हैं। बहरहाल, प्रमोद रंजन का असली प्रवेश तो वह है जहां वह हिंदी पत्रकारिता के भीतरी संसार में डेव्यू करते हैं और अपने मूल्यों की पोटली से रोज-ब-रोज कुछ ना कुछ छीजता हुआ देखते हैं। यह बात अलग है कि कम उम्र में पत्रकारिता के कुरूप होते जाने की जैसी तीक्ष्ण पहचान की समझ प्रमोद रंजन को हुई, वह हिंदी पत्रकारिता में भविष्य के चेहरे से सटीक मेल खाती है।

हालांकि हिंदी पत्रकारिता इससे पहले ही संपादकों से छिटककर जैनों और साहुओं जैसे मालिकों के हाथों की कठपुतली होकर अश्लीलता की हद तक नग्न हो चुकी थी, जब एक बार तो रघुवीर सहाय छिटक गए या फिर आगे चलकर प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर जैसे ‘संस्थान’ भराभरा कर धराशाई हो गए। हालांकि यह एक तरह से यह खूबसूरत, बहुत हद तक सरोकारी, लेकिन अपनी अंतस्चेतना में ब्राह्मणवादी किलों के धवस्त होने की अच्छी शुरुआत थी; मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो मठों और गढ़ों का टूटना था, जो अब तक न पायी गयी अनिवार अभिव्यक्तिको पाने की संभावना में बदल सकता था, लेकिन उन पुरोधाओं का विकल्प खड़ा नहीं हो सका और इसका सबसे बड़ा नुकसान भाषा और उस जन-पक्षधरता को हुआ, जिसे उन्होंने अपनी अनेक संस्कारगत पूर्वग्रहों के बावजूद स्थापित किया था।

जाहिर है, जिस दौर में प्रमोद रंजन प्रवेश करते हैं, वहां पत्र-पत्रिकाओं की भाषा ही नहीं, अखबारों की अधकचरी प्रवृतियों, प्रस्तुतियों और कुरुचियों और उसके घटिया बाजारवाद ने अपनी जगह पक्की कर दी थी। वैसे भी, पंजाब-हिमाचल का क्षेत्र ‘पंजाब केसरी’ प्रभाव का क्षेत्र रहा है तो स्वाभाविक है कि बिहार से जाने वाला एक शख्स जिसे प्रगतिशील रुझान की पत्रिकाओं ने वैचारिक रूप से संवारा था, वह बिलाबिलाएगा नहीं- कैसे हो सकता था! वह ब्रेख्त से लेकर गिरधर राठी, अरुण कमल से कुमार अंबुज तक को याद करता है और उनकी कविताएं कहते हुए जीवन-अनुभवों को पाठकों के साथ साझा करते हुए उन्हें पाठकों के पास धकेलकर कुछ राहत महसूस करता है?

हिमाचल प्रदेश के अपने जीवनानुभवों में वहां के अखबारों के अवरोध पर प्रमोद रंजन रुके नहीं हैं और उन्होंने इसको ज्यादा तवज्जो नहीं दी तो इसके पीछे था उनका अपना दृष्टिकोण, अपना साहित्य, अपना संस्कार- सब साथ थे जो यह पहचानने में मददगार हुए कि सुख-दुख, जय-पराजय के बीच अपना रास्ता किधर है।

जड़मति वाले अखबारों और लोगों के बाह्य प्रभाव में वह बह जाते या स्वीकार कर लेते तो वह खोजने की तलाश में आज असम और नागलैंड के एक सीमावर्ती कस्बे  (पुस्तक प्रकाशन के समय प्रमोद रंजन असम केंद्रीय विश्वविद्यालय में अध्यापन कर रहे हैं) तक नहीं गए होते। बुझी हुई आत्माओं वाले और उत्कंठाहीन हिंदी पत्रकार और साहित्यकारों को प्रमोद की खानाबदोशी अगर अबूझ और रहस्मय लगती है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।

बहरहाल, डायरी बताती है कि प्रमोद रंजन ने जीवन के उस दौर में भी अपने भीतर के रचनाकार को सर्वाधिक तवज्जो दी। इस पुस्तक को पढ़ते हुए उनके इस रचनाकार को पहचानने की सही और सच्ची कोशिश करनी चाहिए।  इस कविता पर ध्यान दें- घाटियों में अटका/ पहाड़ों पर लटका शहर/ गिरा गिरा/ अब गिरा/ इतनी बरफ़ पड़ी/ तब भी नहीं गिरा! ( शिमला)। या जैसे शिमला में बरफ़ के बाद / खिली/ और पसरती ही गई/ धूप!  (तुम्हारी हंसी)। प्रकृति से इतर एक दुनियावी कविता देखें- खूब देखना सपने, उन्हें/ जीने के लिए/ मुझ इतिहास की उंगली छोड़/ अद्यतन के मुहाने से, लेना/ छलांग भविष्य की ओर/ और हरदम/  समय को रखना/ पैरों की नोक पर/ शत् शत् सूर्यों की ऊष्मा भर/करना प्रेम/ चिर युवा/ क्रांति गीतों सा दमकना/ बिटिया,/ जुदा नहीं जीवन और स्वप्न (आशीष)

ये कविताएं संख्या में कम हैं लेकिन जीवन बोध और मूल्यों में नहीं। इनमें पहाड़, बरफ़, प्रकृति, दोस्तों के सरोकार, पिता की उपस्थिति और बिटिया के लिए जीवन का बोध और आश्वस्ति है। ये सभी कविताएं रोज के हमारे व्यवहार से निकली हैं। इनमें किताबें, बच्चे और समय की धुंध है। कहीं भी घटनाएं नहीं हैं बल्कि अनिश्चिताओं के बोझिल प्रयत्न से थामानिशाकाल का आकाश है। चेतना और चित्त की जागृति वाले प्रमोद रंजन का पत्रकार, कविता की जागरूकता और संवेदना को खत्म नहीं होने देता है, यह इन कविताओँ की खास पहचान है। कविता के हिस्से को पढ़ते हुए ध्यान रखना चाहिए कि इन पंक्तियों के लिखे जाने और रचना काल के बीच करीब डेढ़ दशक का समय बीत चुका है। इस दौर की भी कविताएं होंगी। जाहिर है, इसका हिसाब लेखक ही दे सकता है कि उनकी कविता का उत्तरोत्तर विकास कैसा हुआ है? क्या वह उनके भीतर अपने मूल फार्म में बची हुई है? या वह गद्य की अन्य विधाओं की ओर मुड़ गई है? या फिर उसने अपना रास्ता आलोचना और शोध-परक लेखन की उस अनूठी शैली में में ढ़ूंढ लिया है, जिसके संकेत इस किताब के अंतिम हिस्से में शामिल साक्षात्कारों में मिलता है?

संग्रह में एक कहानी भी है जो लेखक ने अखबारी पृष्ठभूमि पर लिखी है।

यह कहानी अखबार की भीतरी दुनिया का एक चेहरा दिखाती है जिसमें रामकीरत नाम का अखबारकर्मी मुख्य संपादक और पूर्व मुख्यमंत्री की लघुकथा, फिल्मी और सरकारी प्रचार वाली सामग्री के बीच चयन का विकल्प तलाश रहा है। अपने हिमाचल प्रवास के दौरान लिखी गई अखबारी पत्रकारिता में प्रमोद रंजन बड़े सचेतक की तरह काम कर रहे थे- यह उनकी उस दौर में प्रकाशित टिप्पणियों से साफ हो जाता है। उनका दस्तावेजी महत्व है और वे भी डायरी या कुछ-कुछ संस्मरण जैसा पढ़ने की जिज्ञासा पैदा करते हैं।

किसी भी लेखक का अपने रचना-संसार से सह-अस्तित्व का तब पता चलता है जब समय का एक अंतराल बीत जाता है। मसलन जब कोई डेढ़ दशक बाद प्रमोद हिमाचल प्रदेश का दौरा करते हैं, तो उन क्षेत्रों में जाते हैं जहां की सामाजिक बनावट-बुनावट बाकी हिमाचल से अलग है और सांस्कृतिक विरासत में बहुत जुदा भी। पुस्तक में शामिल साक्षात्कार किन्नौर, लाहौल और पांगी घाटी के लोगों से किए गए हैं। ऐसे लोगों में बौद्ध धर्म मानने वाला, जनजाति क्षेत्र की मान्यताओं और पौराणिक आस्थाओं पर जीवित रहने वाला समाज मुख्य है। यहां एक ऐसी दुनिया भी बसती है जो शहरी लोगों के लिए कुछ खास कारणों से विचित्र भी है लेकिन जहां कुल मिलाकर धर्म और विश्वास के नाम पर अनपढ़ता का अंधकार दिखलाई पड़ता है। अंधकार की ये धरती शहरीपन से इस मायने में दूर नहीं कि वहां भी बौद्ध और अन्य मान्यता वाले लोगों के देवी देवताओं पर हिंदू धर्म के नए उभार वाले भगवाई अपना कब्जा ना जमा सकें। वो कब्जा करने के लिए आजकल उधर का रुख करने लगे हैं। ये साक्षात्कार एक मायने में सच्ची रिपोर्टिंग भी है कि किस तरह के यहां के समाज पर सत्ता और सरकार के अमले अपने धर्म को वहां थोपने की पुरजोर कोशिश में लगे हैं। बहरहाल, समाज और वहां की संस्कृति को गहरी संवेदना से बताने, उनसे बातचीत में जिज्ञासा को बढ़ाने वाले सवाल पैदा करने और उनके जरिए नया आयाम दिखाने की प्रमोद रंजन के अनुसंधानकर्म और पत्रकारिता की एक उल्लेखनीय विशेषता है।

हिंदी साहित्य में ऐसा कम हुआ है जब चालीस साल की उम्र में किसी लेखक-कवि-पत्रकार की उसके जीवन संघर्ष की कथा-व्यथा, डायरी और यात्रा वृतांत की पुस्तक प्रकाशित हुई हो। ‘शिमला डायरी’ जिस रूप में सामने आई है उससे एक कम-ख्यात कवि, कुछ अधिक जाने गए पत्रकार और सर्वाधिक बहुजन हितों के लिए पहचाने गए इस लेखक की कुछ अब तक अनदेखी छवियां ठोस रूप से स्थापित होती हैं।

आप पुस्तक को पढ़कर उसमें लिखी हर टीका से संवाद कर सकते हैं क्योंकि वहां कुछ भी अतिरेकी नहीं है- उनके सारे वर्णन से आप खुद को को-रिलेट कर पाते हैं- उससे अपने आंतरिक रिश्ते को गहनता से महसूस कर सकते हैं। मेरा अनुभव है कि रूसी क्लासिक में गोर्की की मां से लेकर चेखव और तोलस्तोय के चरित्रों से हम जितना ‘अपना’ पाते हैं, उससे आंतरिकता महसूस करते हैं और पाते हैं कि वहां जिस जगह का जिक्र है- वह हमारे आसपास की है, जो उनमें आई मां है- वह मेरी ही है, जो स्कूल है, जो शिक्षा, जो संघर्ष, जो पीड़ा और जो विषाद है- वह सब मेरा है, भारत भूमि का है। हम इसीलिए इतने बड़े रचना संसार को विपुल रूप से पढ़ लेते हैं। शिमला डायरी में आए तमाम चरित्र भी आपको लगेंगे भी कि वो मेरे अपने या मेरे आसपास से ही गहरे जुड़े हैं। जुड़े ही नहीं बल्कि उनकी बहुत संवेदनशील पहचान की गई है।

पुस्तक मिलते ही शुरू में मैं यह पढ़कर वाकई काफी असहज हो गया कि अगर मेरा घर गढ़वाल की जगह कहीं हिमाचल में होता, और मैं किराये के घर में रह रहा होता; और पता चलता कि बेरोजगारी और संघर्ष के ताप में बुखार से कांपता कोई आदमी बिहार से यकायक मेरी देहरी पर आ जाए तो क्यो हो!

ऐसा आदमी जो बहुत दूर से अपने किताबों के कुछ बोरे और कपड़ों का संदूक लेकर और वह भी आजीविका के लिए दुर्गम पहाड़ों में आ जाए! प्रमोद रंजन इन पहाड़ों में किसी बदहवाशी में नहीं बल्कि पूरे जज्बे के साथ  सैन्नी अशेष नामक आध्यात्मिक मिजाज के लेखक से मिलते हैं- उनके साथ रहते, पढ़ते- लिखते-सीखते हैं, जीवन और जगत को लेकर उनकी वायवीय अवधाराणाओं  से अपने यथार्थ-अनुभव के सहारे संघर्ष करते हैं।  विजय विशाल, राजकुमार राकेश और एसआर हरनोट, तुलसी रमण, अमरीक, शिमला, ठियोग, धर्मशाला, धौलधार, दिव्य हिमाचल, अमर उजाला, दैनिक भास्कर, पंजाब केसरी, भारतेंदु शिखर आदि के संपर्क में आते हैं।

इसी दौर (2001-05 ई.) में तक तब  दम तोड़ते 'जनसत्ता’ का चंडीगढ़ संस्करण भी था। नाम और जगहें असंख्य हैं जिनमें से मैं कुछ को गिना रहा हूं। आप समझ सकते हैं, प्रमोद रंजन साहित्य और पत्रकारिता के एक मिलेजुले संसार से राफ्ता हुए। शायद इस गड्डमड्ड संसार से प्रभावित हुए होंगे? बिलकुल भी नहीं! हां, इनसे गुजरते हुए मुझे हैरानी हुई कि अरे ये वही जगहें और लोग हैं जिनसे मैं किताब में वर्णित कालखंड से वर्षों पहले-1989-90 में मिला था; 95 तक मेरा भी इनमें से अधिकांश लोगों और स्थानों  से वास्ता रहा, बल्कि उसके बाद 1999 में भी दो साल और।

साझी जिंदगियां

यह भी महज संयोग है कि 21वीं सदी के जिस प्रस्थान-बिंदु से पुस्तक में उल्लेख किया गया दौर शुरू हुआ, तब तक मैं अचानक ही उस ‘दुनिया’ से दूर चला गया था। पीछे छूट गई मेरी ही धूल को जैसे प्रमोद रंजन ने अपने साथ लाकर मेरे सामने झाड़ पोंछ दिया है! एक और वजह यह भी है कि ‘शिमला डायरी’ किसी एक कहानी में नहीं बुनी गई है। मेरे लिए पुस्तक में कई आरंभ बिंदु हैं, कई मध्यांतर और कई सारे क्लाइमेक्स हैं। चंडीगढ़ में मैं कोई एक दशक रहा। चंडीगढ़ को केंद्र बनाकर पत्रकारिता करने का अर्थ  पूरे हिमाचल और पंजाब पर विहंगम दृष्टि रखना है। जैसा कि ‘शिमला डायरी’ में भी शिमला का मतलब पंजाब या महापंजाब से है। मेरे जनसत्ता ज्वाइन करने के समय यानी 1989 तक वहां ‘गुरुवारी जनसत्ता’ नाम से चार पेज का एक रंगीन परिशिष्ट होता था। इसमें आमतौर पर कवर स्टोरी के नाम पर या उसकी जगह पर किसी भड़काऊ कहानी या उपन्यास का अंश छपता था जिसके साथ आधी कमर दिखाती, ब्लाउज गिराती और नैन तरेरती युवतियों के फोटो या स्केच छपते थे। कहने की जरूरत नहीं कि ये कितने घटिया होते थे। एक दिन संपादक ने कहा कि इसे दिल्ली की तरह की ‘रविवारी जनसत्ता’ बनाना है जिसमें पंजाब, हिमाचल, चंडीगढ़, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर राज्यों की सामाजिक सांस्कृतिक झलक मिले। पहल पत्रिका में छपे कुछ क्षेत्रीय लोगों के पते लेकर , जिसके 1983 के अंक में मेरी पहली बार कविताएं प्रकाशित हुई थीं- जब मैं तलाश में लगा तो मुझे सत्यपाल सहगल, लाल्टू, निरुपमा दत्त आदि मिले और फिर हिमाचल में राजकुमार राकेश और तुलसी रमण और यहां के सैकड़ों लिख्खाड़ों से पाला पड़ा। बल्कि इनके ही बूते करीब एक दशक तक पत्रकारिता संभव हो सकी जिसमें एक छोटे समय में ‘गुरुवारी जनसत्ता’ क्षेत्र का एक बड़ा नाम हो गया।

इनमें से कई लोग प्रमोद रंजन से भी मिलते हैं,  जिनमें ढेर सारे युवा रचनाकार भी थे। शिमला डायरी एक सांस्कृतिक यात्रा है।  मुझे लगा कि पुस्तक के रूप में एक बहुत बड़ा भारी गुरुवारी जनसत्ता मेरे सामने रख लिया गया हो। इसे पढ़ते हुए सांस्कृतिक संवाददाता के तौर पर किए गए अपने संघर्ष को भी याद कर रहा हूं; जिसमें फुट्टे से कॉलम नापकर मुझे मेहनताना मिलता था, और मेरा घर चलता था। प्रमोद रंजन ने अपने समय में बहुत सारी अन्य चीजों के साथ आर्थिक तंगी भी देखी, जबकि मैंने अपने उस दौर में अमीरी और गरीबी दोनों देख ली थी!

पिछले दशक से जाते वर्षों में मुझे लगा था मैं अंतिम आदमी हूं जो हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, चंडीगढ़ में रह गया था, लेकिन आज पता चला और भी हमसफर औऱ हमप्याले इस सफर में साथ भले ना थे, लेकिन पीछे-पीछे आ रहे थे। यह व्यक्तिगत सुकून है।

‘शिमला डायरी’ पढ़ते हुए लगा कि 1989 से भी बुरा दौर शिमला-चंडीगढ़ में 2000 में चल रहा था। कम से कम मैं सोच कर इतना कह सकता हूं कि प्रमोद रंजन को अगर अच्छा अखबार और अच्छा संपादक मिला होता- तो वे वहां एक नहीं बीसों ‘गुरुवारी’ खड़ा कर सकते थे, क्योंकि गुरुवारी जनसत्ता तो राजीव गांधी के दौर में न्यूज प्रिंट का संकट खड़ा होने पर बंद हुआ था। भले ही उसकी जगह जनसत्ता में रोज एक पेज उन फीचर्स और साहित्य का होता था जो गुरुवारी के हिस्सा थे।

भारतीय रंगमंच, कला, साहित्य और संगीत में ख़ास महारत रखने वाले कवि, पत्रकार प्रमोद कौंसवाल (Pramod Kaunswal) ने 1986 में मेरठ के अमर उजाला की स्थापना से पत्रकारिता की शुरूआत की थी। उसके बाद वे अरसे तक जनसत्ता में रहे।  “अपनी ही तरह का आदमी”, “रूपिन-सूपिन” (कविता संग्रह), “रात की चीख़” (दुनिया के 14 जानेमाने लेखकों की कहानियों का अनुवाद), “क्या संबंध था सड़क का आदमी से“ (देश के प्रमुख युवा कवियों की रचनाओं का संपादन), और “सुरों की सोहबत में” (भारत के संगीत-नृत्य पर चुनिंदा आलेख) उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। संप्रति : सहारा इंडिया टीवी में कार्यरत। भारतीय रंगमंच, कला, साहित्य और संगीत में ख़ास महारत रखने वाले कवि, पत्रकार प्रमोद कौंसवाल (Pramod Kaunswal) ने 1986 में मेरठ के अमर उजाला की स्थापना से पत्रकारिता की शुरूआत की थी। उसके बाद वे अरसे तक जनसत्ता में रहे। “अपनी ही तरह का आदमी”, “रूपिन-सूपिन” (कविता संग्रह), “रात की चीख़” (दुनिया के 14 जानेमाने लेखकों की कहानियों का अनुवाद), “क्या संबंध था सड़क का आदमी से“ (देश के प्रमुख युवा कवियों की रचनाओं का संपादन), और “सुरों की सोहबत में” (भारत के संगीत-नृत्य पर चुनिंदा आलेख) उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। संप्रति : सहारा इंडिया टीवी में कार्यरत।

इस किताब को पढ़ते हुए यह भी ध्यान आता है कि संघर्ष और ग़रीबी के बुखार से भीषण कोई दूसरा बुखार नहीं होता। बस, पीछे देखने की जरूरत होती है अगर उससे बचकर जीवित निकल आए हों। या इसे तभी महसूस कर सकते हैं अगर आप वहां से छिटक गए हों और आगे या दूसरी तरफ कहीं बच निकल गए हों। इसे महसूस करने के लिए जिंदा रहना जरूरी है और उससे भी ज्यादा उसे इतना भींच लेना कि कम से कम उतनी दूर ना जाएं कि दिखे ही नहीं, ओझल और विस्मृत हो जाएं। अजीत कौर के उपन्यास खानाबदोश में प्रेम में धोखा खाई स्त्री अंत में अकेले रह जाती है, वह बुखार में कांपती है औऱ कहती है- कम से कम बुखार तो मेरे साथ है! मुझे, जाहिर है किसी खानाबदोश साथी की लिखी ‘शिमला डायरी’ इसलिए भी ज़्यादा समझ आई है, क्योंकि उसका दायरा- सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक और पत्रकारी समाज, मेरा बहुत पास से देखा हुआ है। वहां इस दौर में पत्रकारिता का चेहरा- कुछ ही दुरुस्त है बल्कि ज्यादातर बदरंग और डरावना है- इतना कि अपने अस्तित्व का संघर्ष भी भूल जाएं!

हां, एक बात और। बकौल सर्वेश्वर अपना घर  ना बनाइए- बार-बार चौखटों से सिर टकराता है। जो स्वतंत्र और खानाबदोश हैं, उनको ही बुखार आता है और ‘शिमला डायरी’ भी ऐसे ही लोग लिख पाते हैं!  इसलिए, खानाबदोश रहिए, स्वतंत्र रहिए, प्रलोभनों में ना पड़िए।शिमला डायरी इसी खुद्दारी की प्रस्तावना करती है। यही कारण है कि यह सिर्फ मेरे ही नहीं, न ही सिर्फ एक विशेष कालखंड के लिए, बल्कि हर दौर के लिए सार्थक है। इसकी विश्व-दृष्टि निरंतर समाज को उसकी विसंगतियों का आईना दिखाती रहेगी।

पुस्तक : शिमला-डायरी
लेखक : प्रमोद रंजन
पृष्ठ : 216
मूल्य: 350/- रुपये
प्रकाशक: द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन, दिल्ली, फ़ोन: +918130284314,9650164016

<भारतीय रंगमंच, कला, साहित्य और संगीत में ख़ास महारत रखने वाले कवि, पत्रकार प्रमोद कौंसवाल ने 1986 में मेरठ के अमर उजाला की स्थापना से पत्रकारिता की शुरूआत की थी। उसके बाद वे अरसे तक जनसत्ता में रहे।  “अपनी ही तरह का आदमी”, “रूपिन-सूपिन” (कविता संग्रह), “रात की चीख़” (दुनिया के 14 जानेमाने लेखकों की कहानियों का अनुवाद), “क्या संबंध था सड़क का आदमी से“ (देश के प्रमुख युवा कवियों की रचनाओं का संपादन), औरसुरों की सोहबत में” (भारत के संगीत-नृत्य पर चुनिंदा आलेख) उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। संप्रति : सहारा इंडिया टीवी में कार्यरत।

अगला आर्टिकल