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बाकी बचा "प्रधान" : क्या राष्ट्रपति चुनाव भी सीधे जनता द्वारा होना चाहिए?

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hastakshep
20 Jul 2022
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मुद्दा : क्या खोए फौजी का भी कोई मानवाधिकार है?

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क्या राष्ट्रपति वाकई रबर स्टाम्प होता है?             

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हमारे शब्दकोष में एक शब्द है "मंत्रणा" जिसका अर्थ है – सलाह देना। मंत्रणा से बना है "मंत्री", यानी सलाहकार, और मंत्रियों का मुखिया प्रधानमंत्री, यानी, मुख्य सलाहकार। हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू (First Prime Minister Jawaharlal Nehru) एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री थे और वे कभी किसी राष्ट्रपति से दबते नहीं थे और वे कभी किसी राष्ट्रपति के लिए सिर्फ सलाहकार की भूमिका में नहीं रहे बल्कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री की तर्ज़ पर सर्वशक्तिमान ही रहे।

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बाद में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो सिंडीकेट के नाम से प्रसिद्ध तत्कालीन वरिष्ठ कांग्रेसजनों का अहंकार तोड़ने के लिए उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार के मुकाबले में अपना अलग उम्मीदवार खड़ा किया और अपने ही दल के अधिकृत उम्मीदवार को हरवा दिया। उसके बाद जब तक वे प्रधानमंत्री रहीं, राष्ट्रपति के पद के लिए उम्मीदवार का चुनाव उनका विशेषाधिकार हो गया और उन्होंने अपने निष्ठावान मंत्रियों अथवा कांग्रेस के जूनियर पदाधिकारियों को राष्ट्रपति बनवाना आरंभ कर दिया। इससे राष्ट्रपति के अधिकार ही कम नहीं हुए, राष्ट्रपति पद की प्रतिष्ठा (prestige of the presidency) भी कम हुई।

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इंदिरा गांधी ने स्वयं को देश की अग्रणी सेविका कहा लेकिन उन्हीं इंदिरा गांधी ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ के कथन "इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा" को खुशी से स्वीकार किया, और खुद ही खुद को भारतरत्न से सम्मानित भी करवाया।

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सन् 1975 में जब न्यायमूर्ति जगमोहन सिन्हा (Justice Jagmohan Sinha) ने उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया तो अपनी कुर्सी बचाने के लिए उन्होंने देश पर आपातकाल थोप दिया। उस समय देश पर ऐसा कोई खतरा नहीं था कि आपातकाल लागू किया जाता, तो भी आपातकाल लागू हो गया। ऐसा इसलिए संभव हो सका क्योंकि उनके मंत्रिमंडल में मंत्री रह चुके उनके निष्ठावान फ़खरुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल लागू करने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिये।

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इसके बाद इंदिरा गांधी ने संविधान में कई अवांछित संशोधन करके राष्ट्रपति को पूरी तरह से रबड़ की मोहर बना डाला, संसद में कोरम की आवश्यकता को खत्म कर दिया, लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल 5 साल से बढ़ाकर 6 साल कर दिया, निर्देशक सिद्धांत अस्तित्व में आये और उन्हें मौलिक अधिकारों के मुकाबले वरीयता दे दी गई और कुछ विशेष परिस्थितियों में सरकार को मौलिक अधिकार भी स्थगित करने की छूट मिल गई।

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सर्वोच्च न्यायालय से राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित बिलों की सुनवाई का अधिकार छिन गया और उच्च न्यायालयों से संसद द्वारा पारित बिलों की सुनवाई का अधिकार वापिस ले लिया गया, सर्वोच्च न्यायालय से चुनाव संबंधी याचिकाओं की सुनवाई का अधिकार भी छिन गया। जो संविधान खुद को ही नहीं बचा पाया वह देश को क्या बचायेगा? 

इसके बाद राजीव गांधी ने दलबदल विरोधी कानून के रूप में प्रसिद्ध बावनवां संविधान संशोधन लागू करके राजनीतिक दलों के मुखिया को अपने दल के अंदर सर्वशक्तिमान बना डाला जिसने पार्टी सुप्रीमो की अवधारणा को जन्म दिया। राजनीतिक दलों द्वारा ह्विप जारी करने का अधिकार देकर राष्ट्रपति की ही तरह तमाम सांसदों और विधायकों को भी रबड़ की मोहर बना डाला। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के लिए पार्टी आलाकमान के निर्देश मानना अनिवार्य हो गया। पार्टी का अध्यक्ष सर्वेसर्वा हो गया। एक व्यक्ति या एक परिवार पार्टी का आलाकमान बन गया और उनके आदेश मानना पार्टी के कार्यकर्ताओं की ही नहीं, बल्कि वरिष्ठतम नेताओं तक की विवशता हो गई। इस एक व्यवस्था के कारण पार्टी अध्यक्ष के अलावा हर दूसरा व्यक्ति अध्यक्ष का गुलाम हो गया।

प्रधानमंत्री की शक्तियों के खतरनाक पहलू (Dangerous Aspects of Prime Minister's Powers)

प्रधानमंत्री यदि शक्तिशाली हो और खुद ही पार्टी का अध्यक्ष भी हो तो वह सर्वशक्तिमान हो जाता है, लेकिन यदि पार्टी का अध्यक्ष कोई और हो पर वह ऐसा व्यक्ति हो जिसे प्रधानमंत्री ने चुना हो, और वह प्रधानमंत्री के सामने बहुत बौना हो तो भी अपरोक्ष रूप से प्रधानमंत्री ही पार्टी अध्यक्ष की शक्तियों का उपभोग करता है।

बात यहीं खत्म नहीं होती। तीनों सेनाओं के सेनापतियों की नियुक्ति, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति, चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का अधिकार प्रधानमंत्री के पास है। इनके अवकाशप्राप्ति के बाद इन्हें लाभ का कोई अन्य पद देना प्रधानमंत्री के हाथ में है। इनके परिवारजनों को लाभ का पद देना प्रधानमंत्री के हाथ में है, ऐसे में प्रधानमंत्री सचमुच सर्वेसर्वा ही होता है।

प्रधानमंत्री की शक्तियों का एक और खतरनाक पहलू भी है जिससे हम भारतीय एकदम अनजान हैं।

बयालीसवें संविधान संशोधन से भी पहले, चौबीसवें संविधान संशोधन ने संसद को असीम शक्तियां दे दीं, यहां तक कि संसद के पास यह शक्ति आ गई है कि वह देश में संसद के कानून द्वारा स्थापित किसी भी संस्था को समाप्त कर दे, चुनाव आयोग को समाप्त कर दे, सुप्रीम कोर्ट को समाप्त कर दे, यहां तक कि पूरा संविधान बदल दे या संविधान को ही निरस्त कर दे।

संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार संसद सर्वोच्च है, लेकिन व्यावहारिक स्थिति यह है कि संसद में वही कानून पास हो सकता है जिसे सरकार लाये क्योंकि बहुमत सरकार के साथ होता है। प्रधानमंत्री शक्तिशाली हो तो अकेला वही तय करता है कि सरकार कौन से नये कानून बनाए, किस कानून को रद्द कर दे, इस प्रकार संसद की इन शक्तियों का उपभोग भी अकेला प्रधानमंत्री ही करता है।

द्रौपदी मुर्मू को मोदी ने चुना है, जनता ने नहीं

राम नाथ कोविंद केवल मोदी की इच्छा से राष्ट्रपति बने और द्रोपदी मुर्मू और जगदीप धनखड़ भी उन्हीं का चुनाव हैं। जो लोग द्रोपदी मुर्मू के चुनाव को लेकर गाल बजा रहे हैं कि वे आदिवासी हैं, महिला हैं, वे यह भूल जाते हैं कि मोदी द्वारा अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता बनाये रखने की यह एक रणनीति मात्र है। द्रोपदी मुर्मू को जनता ने नहीं चुना, मोदी ने चुना है।

आपात‍्काल लगाते समय इंदिरा गांधी ने न मंत्रिमंडल को बताया, न संसद से मंजूरी ली। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करते समय वीपी सिंह ने किसी और की राय नहीं मानी। प्रधानमंत्री बनते ही मोदी ने योजना आयोग को इतिहास बना दिया, बाद में नोटबंदी लागू कर दी।

नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं, और उन्होंने एक बार खुद को प्रधान सेवक कहा था, लेकिन असलियत यही है कि कोई शक्तिशाली प्रधानमंत्री, सलाहकार मंडल का मुखिया मात्र नहीं होता, न ही वह प्रधान सेवक होता है। वह सिर्फ "प्रधान" होता है, मुखिया होता है, सर्वशक्तिमान होता है।

यह समझना आवश्यक है कि प्रधानमंत्री के रूप में एक अकेला व्यक्ति इतना शक्तिशाली है कि वह इस ब्रह्मांड में किसी भी दूसरे व्यक्ति की सहमति या राय की परवाह किये बिना, देश को किसी भी दिशा में हांक सकता है। यह कोई मज़ाक नहीं है बल्कि एक अत्यंत गंभीर स्थिति है। यही कारण है कि अब यह सोचना आवश्यक है कि क्या राष्ट्रपति का चुनाव भी सीधे जनता द्वारा किया जाए? आज यह सिर्फ एक विचार है, इस पर विमर्श होना आवश्यक है, वरना हमारा कोई भी प्रधानमंत्री, सिर्फ सलाहकार नहीं होगा, सेवक तो नहीं ही होगा, तो फिर बाकी बचा "प्रधान", यानी मुखिया, यानी सर्वशक्तिमान तानाशाह, जो देश को किसी भी दिशा में हांक सकता है। सवाल यह है कि क्या हम ऐसा ही लोकतंत्र चाहते हैं?

सोचिये, सोचिये, सोचिये, पर सिर्फ सोचते ही न रहिए, कुछ कीजिए भी ! 

पी. के. खुराना

लेखक एक हैपीनेस गुरू, मोटिवेशनल स्पीकर और विचारक हैं।

Should the presidential election also be directly by the people?

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