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रतनलाल बंसल
सन् 1266 में दिल्ली के तख्त पर बलबन का अधिपत्य हो गया और वह लगभग बीस बर्ष तक बड़ी दृढ़ता से अपने विजित प्रदेश पर शासन करता रहा। बलबन वंशानुगत दृष्टि से इस पद का अधिकारी नहीं था। तत्कालीन परंपरा के अनुसार षड़यंत्र, हत्याएं और दमन के सहारे उस ने सत्ता प्राप्त की थी। फिर भी उस में राज्य करने की क्षमता थी और बाहृय आक्रमणों तथा आंतरिक विद्रोहों को दबाने में उसे बड़ी सफलता मिली। विद्रोहियों आक्रमणकारियों और प्रतिद्वंदियों के लिए बलबन साक्षात काल था और जिस व्यक्ति पर विरोधी होने का किंचित भी संदेह उसे होता उसे समूल नष्ट करने में जुट जाता। बलवन की इस नीति के कारण उस के सामंत ऊपर से आज्ञाकारी और आंतरिक रूप से विद्रोही बने रहे। परिणामस्वरूप 1289 में बलवन की मृत्यु होते ही सामंतो ने इस का बदला लिया और बलवन के वंशजों तथा प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को, जो बलबन के प्रति वफादार था, शासन -तंत्र से उखाड़ फेंका। बलवन के अनेक पक्षपाती मारे गये और बहुत से ऐसे अमीरजादे तथा सामंत, जो बलबन के राज्यकाल में वैभवशाली थे, दर-दर के भिखारी बन गये। राजधानी दिल्ली को बलवन के पक्षपतियों से शून्य कर दिया गया।
किंतु जब बलबन ने समर्थकों के ऊपर दमन की आग बरस रही थी उस समय दिल्ली में ही एक स्थान ऐसा था जो दमन से त्रस्त उन अभागों के लिए शांतिपूर्ण आश्रम स्थल था। यह स्थान किसी बड़े सामंत का किला नहीं था, बल्कि एक सीधे-सादे फकीर की खानकाह थी, जिस के द्वार प्रत्येक आपत्तिग्रस्त के लिए दिन-रात खुले रहते थे।
इस फकीर का नाम सीदी मौला था और बलबन के राज्यारोहण के कुछ वर्ष बाद वह दिल्ली में आ बसा था। सादगी और संयम के लिए उस की ख्याति दूर-दूर तक व्याप्त थी। सूखी रोटी उस का भोजन और गाढ़े की कफनी उस का लिबास था। वह प्रत्येक समय प्रार्थना में लीन रहता था। वह मुसलमान था, किंतु कर्मकांड की विधियों में स्वतंत्रता बरतता था। जुम्मे की नमाज पढ़ता किंतु इस के लिए जामा मसजिद न जाता और समूह के साथ भी नमाज नहीं पढ़ता था, यद्यपि ये दोनों बातें मुसलिम धर्मनुयायियों के लिए अनिवार्य हैं। कट्टर मोलवी सीदी मौला के इस स्वच्छंद आचरण से चिढ़ते, किंतु साधारण मुसलिम जनता समझती थी कि सीदी मौला ऐसा पहुँचा हुआ संत है जिस के निकट धार्मिक कर्मकांड का पालन महत्व नहीं रखता। अनेक बड़े-बड़े राज-दरबारी और सामंत सीदी मौला के भक्त थे और उस की कृपा-दृष्टि के याचक थे।
सीदी मौला अपनी दानवीरता के लिए भी प्रसिद्ध था। वह स्वयं कभी किसी की भी भेंट स्वीकार नहीं करता था, फिर भी हजारों लाखों की सम्पत्ति दान करता रहता था। संकटग्रस्त सामंत पचास-पचास हजार तनके (उस समय का सिक्का, जो एक रूपये के मूल्य के बराबर होता था) एक मुश्त उस से प्राप्त करते थे। उस का खानखाह में हजारों व्यक्ति भोजन करते थे। अतः तत्कालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी, जो सीदी मौला में व्यक्तिगत परिचय रखता था, लिखता है- ‘‘ हजारों मन मैदा, पांच सौ जानवरों का गोश्त, दो-तीन सौ मन शक़्कर सौ-दो-सौ मन मिश्री खानवाह के लंगरखाने के लिए खरीदी जाती थी। उस की खानवाह के सामने भीड़ जमा रहती। उस के दस्तर ख्वान पर नाना प्रकार के ऐसे भोजन चुने जाते जो बड़े-बड़े खानों अहौर मलिकों को भी प्राप्त न थे।’’ किंतु वह स्वयं सूखी रोटी खाता था।
बरनी सीदी मौला के संबंध में आगे लिखता है -‘‘उसे यदि किसी व्यापारी को किसी वस्तु का मूल्य अदा करना पड़ता तो वह कह देता-जाओ, उस पत्थर या उस ईट के नीचे इतने चाँदी के तनके रखे हैं ले लो। वे वैसा ही करते। किसी ताक अथवा पत्थर या ईट के नीचे ऐसे सोने या चाँदी के तनके मिल जाते जैसे कि उन्हें टकसाल से अभी-अभी निकाला गया हो और वे अभी अभी बनाये गये हों..... अधिकतर लोगों का विश्वास था कि सीदी मौला को कीमिया (वनस्पतियों से सोना बनाने ) का ज्ञान है।’’
यह उल्लेखनीय है कि जियाउद्दीन बरनी, जिस की पुस्तक से उपर्युक्त उद्धरण दिये गये हैं, यद्यपि अमीर खुसरो और अमीर हसन-जैसे सूफी, मतावलंबियों का घनिष्ट मित्र था, किंतु स्वयं संकीर्ण विचारों का सुन्नी मुसलमान था और सूफी मत का विरोधी था। इस के अतिरिक्त बरनी राज्याश्रय की भी आकांक्षा रखता था, अतः वह सीदी मौला के प्रति, जो एक सूफी था और जिसे तत्कालीन सुल्तान अपना विरोधी समझता था, किसी प्रकार पक्षपात नहीं बरत सकता था। बरनी में अपनी पुस्तक में सीदी मौला और उस के हत्यारे सुलतान, दोनों की प्रशंसा की है। अपनी यह पुस्तक बरनी ने उस समय लिखी जब सीदी मौला को स्वर्गस्थ हुए आघी सदी से अधिक बीत चुकी थी और सीदी मौला का प्राणहंता सुलतान भी मृत्यु की गोद में सो चुका था। इन तथ्यों के आधार पर हमें मानना होगा कि बरनी में सीदी मौला के संबंध में जो कुछ लिखा है, निश्चंत हो कर लिखा है।
ऊपर बताया जा चुका है कि बलबन की मृत्यु के बाद बलबन के वंशज तथा पक्षपाती घोर आपत्तियों से घिर गय थे और उन में से कुछ ने सीदी मौला के चरणों में आश्रय लिया था। इन राजनीतिक पीड़ितों की सहायता करने में सीदी मौला का कोई स्वार्थ था, ऐसा संकेत इतिहास में हमें नहीं मिलता।
बलबन की मृत्यु 1287 में हुई और नया सुल्तान जलालुद्दीन 13 जून 1290 को दिल्ली के तख्त पर बैठा। यह बीच का समय अराजकता का रहा होगा। यदि सीदी मौला की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा होती तो वह इस समय कोई हलचल अवश्य दिखाता, लेकिन सीदी मौला ने ऐसा कुछ नहीं किया और पूवर्वत ध्यान-समाधि में मग्न रहा। अतः कहा जाता है कि राजनीतिक पीड़ितों को उस ने जो आश्रय दिया था सहायता दी, उस के मूल में केवल दया भावना थी।
किंतु नये सुलतान को शीघ्र ही इस संत से भय लगने लगा।
इतिहास में सुलतान जलालुद्दीन अपनी धर्मभीरूता, वीरता, क्षमाशीलता और उदारता के लिए प्रसिद्ध है। सभी इतिहासकार लिखते हैं कि सुलतान जलालुद्दीन विद्रोहियों का न केवल क्षमा कर देता था बल्कि उन को मर्यादा तथा उच्च पद प्रदान करता था। उस के पुत्र एवं परामर्शदाता उस की इस नीति को घातक बताते थे और उससे आग्रह करते थे कि पहले सुलतानों की ही भाँति उसे भी विद्रोहियों को मृत्युदंड देना चाहिये। सुलतान इस के उत्तर में सदैव यही कहा करता था कि नश्वर राजपाट के लिए वह किसी मुसलमान का रक्त नहीं बहायेगा।
जब विद्रोही सामंत सुलतान के सामने बंदी अवस्था में दंड के लिए उपस्थित किये जाते तो सुलतान उन की दयनीय अवस्था देख कर दरबार में ही रोने लगता और उन को मुक्त करके पुनः उन के पद पर प्रतिष्ठित कर देता। एक बार उस ने कुछ ऐसे दरबारियों को, जो उस की हत्या का षड़यंत्र कर रहे थे, केवल भर्त्सना करके छोड़, दिया और उन को पदच्युत तक नहीं किया।
सुलतान को अपने बाहुबल पर इतना भरोसा था कि वह विद्रोहों और षड्यंत्रों को अधिक महत्व नहीं देता था। साथ वह धर्मनिष्ठ भी था और सहधर्मियों का रक्त बहाने में उसे बहुत कष्ट होता था।
किंतु सीदी मौला जैसे संत के प्रति वह अपनी इस नीति पर क्यों स्थिर नहीं रह सका इसका कोई स्पष्ट उत्तर इतिहासकारों के पास नहीं हैं सीदी मौला भी एक मुसलमान ही था। वह प्रसिद्ध संत था और उस के कोई धार्मिक मतभेद भी सुलतान के साथ नहीं थे। स्वयं सुलतान का एक पुत्र सीदी मौला का शिष्य था और प्रायः उस की सेवा में उपस्थित रहता था।
एक दिन सुलतान को उस के एक दरबारी ने यह सूचना दी कि सीदी मौला तथा उसके कुछ भक्तों ने यह षड़यंत्र किया है कि जुम्मे के दिन जब सलतान की सवारी निकले तो सुलतान की हत्या कर दी जाए और सुलतान की पुत्री का विवाह सीदी मौला के साथ करके सीदी मौला को दिल्ली का सुलतान घोषित कर दिया जायें।
सुलतान ने सीदी मौला तथा कुछ और व्यक्तियों को बंदी बना लिया। चरनों के लेखानुसार सूचना देने वाला ‘एक प्रतिष्ठित साथ ही बकवादी’ व्यक्ति था और उस ने स्वयं को भी इस षड़यंत्र में सम्मिलित बताया था।
उपर्युक्त तथ्यों से यही अनुमान किया जा सकता है कि सीदी मौला इतना अधिक प्रभावशाली था कि इस सूचना के पाते ही सुलतान अपना संतुलन खो बैठा और इतना भयभीत हो गया कि इस सैन्यविहीन संत के रक्त का प्यासा बन गया।
उस समय के आम रिवाज के मुताबिक सुलतान तत्काल ही सीदी मौला की गरदन उड़वा सकता था, किंतु संभवतः सुलतान को भय हुआ होगा कि इस से जनता विद्रोह कर सकती है। अतः न्याय का नाटक खेला गया। सभी बंदियो ने उन के कथित अपराध के विषय में पूछताछ की गयी और सभी ने अपने को निरपराधी बताया। तब दिल्ली के निकट भारपुर के मैदान में आग का एक बहुत बड़ा अलाव जलाया गया। सभी बंदी वहाँ पहुँचाये गये। सुलतान के साथ दरबारी, न्याया चित्रकारी और धार्मिक व्यवस्था देने वाले काजी वहाँ पहुँचे। जनता भी बहुत बड़ी संख्या में उपस्थित थी।
सुलतान ने कहा कि सभी अपराधियों को इस जलते अलाव में डाल दिया जाये। यदि अपराधी होंगें तो जल जायेंगें, निरपराधी होगें तो बच जायेंगें। अपने इस प्रस्ताव पर जब सुलतान ने धार्मिक विद्वानों की व्यवस्थ माँगी तो उन्होंने इस का विरोध किया। विद्वानों का कहना था कि अग्नि का स्वभाव भस्म करना है, वह अपराधी और निरपराधी में भेद नहीं कर सकती। इस विरोध के कारण सुलतान अपने प्रस्ताव को कार्यान्वित नहीं कर सका। बंदी वापस बंदीगृह में भेज दिये गये।
इस के पश्चात् सुलतान ने सभी बंदियों से अलग-अलग पूछताछ की और सभी बंदियों ने अपने को पुनः निर्दोष बताया। इस पर सुलतान ने कुछ बंदियों को मुक्त कर दिया। एक बंदी, जिस का नाम काजी जलाल था और जिसे षड़यंत्र का नेता बताया गया था, दिल्ली से हटा कर बदायूँ भेज दिया गया और उसे वहाँ का काजी बना दिया गया। कुछ अन्य बंदी भी दिल्ली से दूर स्थानों पर भेज दिये गये। बलबन के समय दिल्ली के कोतवाल पद पर प्रतिष्ठित निरंजन और उसी समय का एक दूसरा प्रभावशाली सरदार हतियापायक भी बंदियों में थे। ये दोनों बलबन के राजकाल में बहुत ही प्रतिष्ठित समझे जाते थे और इनका वेतन एक लाख जतिल प्रतिमास था। बलबन की मृत्यु के पश्चात् ये दोनों निर्धन हो गये और तभी से सीदी मौला के आश्रय में रहने लगे थे। इन दोनों को सुलतान ने थोड़ा-सा दंड दिया।
इस प्रकार सीदी मौला के अतिरिक्त अन्य सभी बंदी थोड़ी यातना सहन करके ही छूट गये।
किन्तु सीदी मौला के प्रति न जाने क्यों सुलतान के हृदय में भयानक विद्वेष था। साथ ही ऐसा भी प्रतीत होता है कि वह उस की हत्या की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने से भी घबराता था। बहुत सोच-विचार करने के पष्चात् सुलतान ने कुछ ऐसे सूफी एकत्रित किये जो सीदी मौला के विरोधी थे और विरोधी सूफियों की हत्या करने के लिए बदनाम थे। सुलतान ने इस सूफी कहे जाने वाले हत्यारों की उपस्थिति में अपने महल के भीतर सीदी मौला को बंदी-अवस्था में अपने सम्मुख बुलाया और उस से षड़यंत्र के संबंध में पूछताछ करने लगा। सीदी मौला ने पुनः अपने को निर्दोष बताया। इस पर सुलतान ने उन हत्यारे सूफियों से कहा कि अब तुम ही मेरा न्याय कर दो। सुलतान का इतना कहना ही था कि बहरी नामक हत्यारा तुरंत उठ खड़ा हुआ और उस ने चाकू निकाल कर हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े हुए सीदी मौला पर कई बार किये। सीदी मौला अर्धमृत हो कर गिर गया। इस के पष्चात् सुलतान के बड़े पुत्र अर्कली खां ने महावत को संकेत किया और अब तुरंत ही महावत ने एक मस्त हाथी को सीदी मौला के शरीर पर चढ़ा कर उसे परलोक भेज दिया।
इस अन्यायपूर्ण हत्या की प्रतिक्रिया स्वरूप जनता ने कोई विद्रोह किया अथवा नहीं, इस का तो कोई उल्लेख इतिहास में नहीं मिलता; किन्तु वरनी ने अपनी पुस्तक में इस विषय पर जो विचार प्रकट किये हैं, उस से जनता की भावनाओं पर प्रकाश अवश्य पड़ता है। बरनी में लिखा है -
‘‘जिस दिन सीदी मौला की हत्या की गयी उस दिन एक ऐसी काली आँधी चली कि संसार में अँधेरा छा गया। सीदी मौला की हत्या के पष्चात् जलाली राजय में विघ्न पड़ गया। बुजुर्गों ने कहा है कि दरवेशों की हत्या उचित नहीं है और किसी बादशाह को उस से कोई लाभ नहीं हो सकता। मौला की हत्या के बाद वर्षा बंद हो गयी और दिल्ली में अकाल पड़ गया। अनाज का भाव एक जतिल प्रति सेर तक पहुँच गया। बीस-बीस और तीस-तीस आदमी इकट्ठे हो कर, भूख के मारे, यमुना नदी में डूब कर आत्महत्या कर लेते थे।’’
इस घटना के लगभग पाँच वर्ष बाद जब सुलतान जलालुद्दीन अपने भतीजे और दामाद अलालुद्दीन के हाथों कुत्ते की मौत मारा गया, तब भी जनता ने इसे सीदी मौला की हत्या का ही श्राप समझा।
यों सुलतान जलालुद्दीन के गुणों के कारण तत्कालीन जनता, कम से कम मुसलित जनता, उस पर मुग्ध थी; किंतु सीदी मौला की हत्या के लिए वह कभी उसे क्षमा नहीं कर सकी। आधुनिक इतिहासकार भी सीदी मौला की हत्या को सुलतान जलालुद्दीन के पतन के कारणों में से एक कारण मानते हैं।
( यह लेख कादम्बनी में मई १९६७ के अंक में प्रकाशित हुआ था. प्रस्तुति – अशोक बंसल )
Sidi Maula, a saint who became the reign of Sultan Jalaluddin