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Silent consent on Cheer Haran in Karnataka Raj Sabha
राजनेताओं पर विचार करने के क्रम में राजनैतिक मानसिकता पर विचार-विमर्श की उपेक्षा करना शोषण मुक्त समाज की परिकल्पना से कोसो दूर होना है. इसका एक अर्थ यह भी है कि असली लड़ाई साम्राज्यवादी मानसिकता से होनी चाहिए. क्योंकि जब संघर्ष के रास्ते मानसिकता में तब्दीलियां होती है तब शोषण के समर्थकों को हर हाल में स्वयं को बदलना ही होता है. सम्राज्यवादी मानसिकता की व्यवस्था शोषण के समर्थकों के लिए एक ईश्वरीय व्यवस्था होती है और उस मानसिकता का टूटना उनके ईश्वर के मृत्यु की समाजवादी घोषणा होती है.
कर्नाटक विधानसभा में कांग्रेस विधायक रमेश कुमार के बलात्कार संबंधी बयान के निहितार्थ (Implications of Congress MLA Ramesh Kumar's rape statement in Karnataka Assembly)
कर्नाटक विधानसभा में कांग्रेस विधायक रमेश कुमार के बलात्कार संबंधी बयान को उसी मानसिकता से जोड़कर देखने की आवश्यकता है. जब वे कहते हैं कि - ‘जब बलात्कार होना ही है, तो लेटो और मजे लो’ तब स्वाभाविक रूप से वे उसी मानसिकता का प्रदर्शन कर रहे होते हैं जो आज की राजनैतिक व्यवस्था का मूल चरित्र है.
अगर इस मानसिकता के विरोध की बात करें तो हम पाते हैं कि सामजिक संगठनों द्वारा इस तरह की अश्लील प्रतिक्रियाओं पर लगभग चुप्पी बनी हुई है और राजनैतिक व्यवस्था के अंदर ही इसका विरोध तथा इसका समर्थन भी देखने को मिलता है. यह विरोध और समर्थन राजनैतिक गणित का वह खेल है जहाँ प्लस और माइनस मिलकर अंततः माइनस ही होता है. राजनैतिक गणित का यह माइनस ऐसी मानसिकता के संरक्षण और समर्थन से ही जुड़ा होता है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि इसमें समाजवाद के नेता मुलायम सिंह यादव के उस बयान को भी संरक्षण देना होता है जिसमें वे कहते हैं कि – ‘लड़के हैं कभी कभी लड़कों से गलतियां हो जाती है. बचाव शरद यादव और तोताराम यादव समेत तृणमूल के चिरंजीत चक्रवर्ती के बयानों का भी करना होता है जिसमें वे क्रमशः कहते हैं कि – ‘वोट की इज्ज़त आपकी बेटी की इज्ज़त से बड़ी होती है’.... ‘बलात्कार जैसी कोई चीज होती ही नहीं है’.... ‘लड़कियों की स्कर्ट छोटी होती चली जा रही है, इसलिए रेप की वारदात बढ़ती जा रही है’... . स्पष्ट है कि इस मानसिकता से भरी राजनैतिक व्यवस्था के भीतर से उठ रहे विरोध को वास्तविक विरोध समझना एक भारी भूल होगी.
फिर सवाल यह उठता है कि महिला संगठन (बृंदा अडिगा समेत कुछ ही कार्यकर्ताओं ने विरोध किया) या सोशल मीडिया पर ‘मी टू’ जैसे केम्पेन द्वारा इस तरह के स्टेटमेंट का विरोध क्यों नहीं हो रहा है? इसके पीछे के कारणों का अध्ययन करें तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है.
पहले भी इस तथ्य को देखा जा चुका है कि मानसिकता की व्यवस्था को पहचाने वगैर किया गया संघर्ष अंततः सेलेक्टिव संघर्ष में तब्दील हो जाता है. यही कारण है कि ‘मी टू’ जो महिला शोषण के विरुद्ध आंदोलन का भ्रम तैयार करता है, वह व्यक्ति (आरोपी) विरोधी तो है लेकिन उस व्यक्ति और उस समाज के प्रति लगभग उदासीन है जहाँ से व्यक्ति की स्त्री विरोधी मानसिकता तैयार होती है. इसलिए एम. जे अकबर का विरोध तो होता है लेकिन मुलायम छूट जाते हैं. नागार्जुन पर फासीवादी प्रतिक्रिया तो दी जाती है लेकिन रमेश, हेगड़े, तोताराम, शरद आदि छूट जाते हैं, शहरी प्रतिरोध तो दिखता है लेकिन अररिया की वह बलात्कार पीड़िता लड़की छूट जाती है जिसके बालात्कार के बाद ‘मी लार्ड’ उसे और उसके परिवार को ही जेल में डाल देते हैं. संघर्ष के सेलेक्टिव होने का यह सबसे बड़ा उदाहरण है.
‘मीटू’ व्यवस्था की समस्या क्या है?
‘मीटू’ व्यवस्था की समस्या यह है कि वह अंततः व्यक्तिवाद का शिकार हो जाती है और उसकी व्याख्या उसकी आंतरिक व्यवस्था की प्रक्रिया पर ही कई सारे प्रश्न भी खड़े कर देती है. इसकी संरचना का निर्माण इस प्रकार से होता है कि वह शोषण के विरुद्ध लड़ रहे दूसरे संगठनों द्वारा किए गए हस्तक्षेप, विचार या आलोचना को स्वीकार नहीं कर पाती. इसका परिणाम यह निकलता है कि दूसरे संगठन स्वाभाविक रूप से ‘मी टू’ की व्यवस्था से दूरी बना लेते हैं. इस प्रक्रिया में एक हास्यास्पद स्थिति की भी निर्मिति होती है. जो इस व्यवस्था के सानिध्य में रहना चाहते हैं उन्हें अपने स्वतंत्र विचार और तर्कों की तिलांजलि देनी पड़ती है.
विनोद दुआ को दी गई श्रद्धांजलि और फिर उस श्रद्धांजलि को वापस लेना तथा नागार्जुन की मृत्यु के दशकों बाद उन पर आरोप लगाते हुए उनके साहित्य को ख़ारिज करने की मांग के क्रम में दिए गए तर्कों के व्यावहारिक अध्ययन से यह और भी स्पष्ट हो जाता है. हालांकि विनोद दुआ भले ‘मी टू’ का मजाक उड़ा रहे थे, लेकिन उस व्यवस्था की मानसिकता उनके भीतर भी ठीक वैसी ही थी जैसा कि इससे जुड़े लोगों की मानसिकता है. कई ऐसे मौकों पर आरोप और जांच की प्रक्रिया के बीच या जांच से पहले ही वे आरोपी को ‘द वायर’ के माध्यम से दोषी करार दे दिया करते थे. इस आधार पर देखें तो विनोद दुआ भी ‘अघोषित’ रूप से मी टू के पक्षधर ही हुए. घोषित – अघोषित की यह व्याख्या ठीक वैसी ही है जैसी व्याख्या हमें प्रभा खेतान और मन्नू भंडारी के संदर्भ में अभय कुमार दुबे (हिंदी में हम) की व्याख्या में देखने को मिलती है.
‘मी टू’ व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वहां शोषण के अन्य प्रारूपों की जबर्दस्त उपेक्षा देखने को मिलती है. कर्नाटक विधानसभा में जहाँ रमेश कुमार ने महिला विरोधी मानसिकता का प्रदर्शन किया वहां के उदाहरण से भी इस तथ्य को समझा जा सकता है.
विधानसभा में बारिश और बाढ़ से हुए नुकसान पर चर्चा हो रही थी. इस नुकसान पर चर्चा के क्रम में कुछ सदस्य समय को बढ़ाने की मांग कर रहे थे. लेकिन स्पीकर विश्वेश्वर हेगड़े ने कहा – ‘मैं उस स्थिति में हूँ, जहाँ मुझे मजा लेना है और हाँ हाँ करना है’.
किस विषय पर हेगड़े साहब को मजा लेना है? बाढ़ और बारिश से हुई तबाही पर? इसमें किस वर्ग की तबाही होती है? स्पष्ट है कि शोषित समाज और उसकी समस्याओं पर हेगड़े साहब को मजा लेना है.
अब यहाँ यह सवाल उठता है कि जिन महिला कार्यकर्ताओं ने रेप संबंधी रमेश कुमार के बयान पर आपत्ति जताई उन्होंने या अन्य ने उस शोषित समाज पर मजे की बात पर आपत्ति साथ में क्यों नहीं जताई? रेप संबंधित बयान पर आपत्ति जरुरी है लेकिन साथ ही गरीबी का, शोषित समाज का मजाक उड़ाना भी आपत्तिजनक ही है.
अब यहाँ दो बातें साफ़ है सोशल मीडिया पर मीटू केम्पेन करने वालों की सेलेक्टिविटी यह है कि उनके लिए यह मुद्दा अहम नहीं है और महिला संगठनों की सेलेक्टिविटी है कि वे सिर्फ़ शोषण के एक स्तर पर ही आवाज़ उठायेंगी. फिर एतिहासिक भौतिकवाद के उस सिद्धांत के क्या मायने हैं जिसके तहत ‘शोषित और उत्पीड़ित वर्ग...सर्वहारा, शोषक और उत्पीड़क वर्ग ...(पूंजीपति) से अपने को तब तक मुक्त नहीं कर सकते, जब तक कि साथ ही सारे समाज को सदा के लिए शोषण और उत्पीड़न से मुक्त नहीं कर देता’. साथ ही राजेन्द्र यादव के स्त्री, दलित और दलित स्त्री संबंधी विचारों की व्याख्या का संगठन के स्तर पर एकजुटता के प्रश्न के कोई मायने हैं या नहीं? कम से कम इन आधारों पर आंदोलन की व्याख्या के अनुरूप तो ‘मीटू’ की व्यवस्था बिल्कुल भी नहीं है.
कांग्रेस के विधायक ने अपमानजनक टिप्पणी की और बीजेपी के विधायक ने ठहाका लगाकर स्वीकृति दी.
यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि राजनैतिक व्यवस्था के भीतर से किया गया विरोध वास्तविक विरोध नहीं है. ठीक उसी तरह की स्थिति अन्य जगहों पर भी है. हम देखते हैं कि छोटी बड़ी लगभग सभी समस्याओं पर क्रांतिकारी विश्वविद्यालय कहे जाने वाले जे.एन.यू के छात्र प्रदर्शन जरुर करते हैं. लेकिन इस मुद्दे पर वे भी चुप्पी क्यों साधे हुए हैं - खासकर लडकियाँ?
जो लोग जे.एन.यू. के छात्र का सीधा अर्थ मार्क्सवादी छात्रों से जोड़कर समझते हैं, अपनी व्याख्या में बेवकूफी वे भी खूब करते हैं. वहां आर.जे.डी., बी.एस.पी और सपा पार्टी के समर्थकों के छात्र छात्राएँ भी बड़ी संख्या में हस्तक्षेप रखते हैं. फिर वे लोग तब क्यों चुप हैं जब अभी हाल में ही लड़कियों की उम्र शादी के लिए 18 से बढ़ाकर 21 करने पर यह कहा गया कि – ‘इससे लड़कियों को ज्यादा आवारगी का मौका मिलेगा और हालत बिगड़ेंगे’. इसका अर्थ यह भी निकलता है कि जो लड़कियां आज विश्वविद्यालयों में 17 वर्ष से ऊपर की उम्र में अपनी पढाई कर रही हैं वे सभी आवारा हैं. ऐसे में तो विरोध लाजमी है लेकिन रत्ती भर भी विरोध नहीं हुआ. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि तब उन्हें यह भी स्पष्ट करना पड़ेगा कि लड़कियों की ऐसी व्याख्या करने वाले उन्हीं की विचारधारा और उन्हीं की समजावादी पार्टी के शफीकुर्ररहमान हैं. यह मेम्बर नियति की समस्या का सबसे खतरनाक उदाहरण भी है.
जो लोग पहले यह कहते नहीं थकते थे कि ‘राजनीति नहीं करने वालों की भी अपनी राजनीति होती है’ उन्हें कम से कम अब यह तो तय करना ही पड़ेगा कि पार्टी लाइन से ऊपर उठकर अपनी प्रतिक्रिया देने का अधिकार सभी मेम्बर को होना ही चाहिए. भले वह पार्टी के किसी सदस्य के ख़िलाफ ही क्यों न हो? लेकिन सवाल यह है कि आज भारतीय राजनीति में क्या कोई एक भी ऐसी पार्टी है जहाँ किसी सदस्य को यह लोकतांत्रिक अधिकार प्राप्त हो कि यदि उसे अपनी ही पार्टी की कोई व्यवस्था समाज के विरुद्ध लगे तो वह उसकी खुली आलोचना कर सके?
स्पष्ट है कि हमारी राजनैतिक मानसिकता प्रश्नचिन्ह के कटघरे में है और हमारी लड़ाई अपने अपने संगठनों के बचाव के प्रति प्रतिबद्ध है. ऐसे में किसी हस्तिनापुर की सभा में चीरहरण पर सहमति बनते जाना आम बात है.
. डॉ. संजीव कुमार
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।