/hastakshep-prod/media/post_banners/bV0yVu8e9vQi798dH2b3.jpg)
विश्व पर्यावरण दिवस 2020 पर विशेष लेख | Special article on World Environment Day 2020
5 जून यानी विश्व पर्यावरण दिवस (June 5 means World Environment Day), जिसकी शुरूआत 1972 से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा की गयी थी। आज पर्यावरण संकट एक वैश्विक मुद्दा (Environmental crisis a global issue) बन चुका है और कई दशकों से पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर समय-समय पर कई सम्मेलन आयोजित किये जाते रहे हैं। बावजूद पर्यावरण का संकट (Environmental crisis) और गहराता जा रहा है।
पिछले वर्ष 2019 में 2 दिसम्बर से स्पेन के मैड्रिड में चलने वाले वार्षिक संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सम्मेलन (बवच.25) में ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए वार्ता की गयी थी जिसमें 200 देशों के प्रतिनिधि ने भाग लिया था।
इस सम्मेलन में मौजूद प्रतिनिधियों पर तत्काल चल रहे आंदोलन ‘‘फ्राइडे फॉर फ्यूचर’’ (Friday for future) का दबाव था। यह आंदोलन जिसे स्वीडन की छात्रा ग्रेटा थुनबर्ग ( Greta Thunberg) ने शुरू किया था, आस्ट्रेलिया से लेकर भारत और यूरोप के हजारों लोगों द्वारा पर्यावरण सुरक्षा (Environmental protection) को लेकर किया गया था। इस सम्मेलन के दौरान यह बातें सामने आई थी कि विश्व स्तर पर कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड का स्तर खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने अपनी रिपोर्ट में सचेत किया कि पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि को 1.5°c तक सीमित रखने के लिए वर्ष 2020 से 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में प्रतिवर्ष 7.6% की कमी सुनिश्चित करना जरूरी है। वरना वर्तमान रूझान के दर से तापवृद्धि से सदी के अंत तक यह 3.4°C से 3.9°C हो सकती है। इससे पहले भी विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व मौसम विभाग संगठन और यूएनईपी द्वारा संयुक्त रूप से कहा गया था कि ‘‘ हमें वैश्विक पर्यावरण को स्वच्छ करने की तत्काल आवश्यकता है।’’ ये सारे आंकड़े कोरोना वायरस के संक्रमण काल के और लॉकडाउन के पहले के हैं।
रिपोर्ट के अनुसार लॉकडाउन के बाद पर्यावरण में बहुत बदलाव देखने को मिला है और इस सकारात्मक बदलाव के कारण प्रदूषण में काफी कमी आयी है। इसी कारण इस वर्ष पर्यावरण प्रदूषण के मुद्दे पर थोड़ी राहत महसूस की जा रही है। इसी वजह से इस वर्ष का थीम ‘टाइम आफॅ नेचर’ रखा गया है।
नासा की एक रिपोर्ट के अनुसार लॉकडाउन के कारण उत्तर भारत में वायु प्रदूषण पिछले 20 साल में सबसे कम हो गया है। वहीं गंगा नदी में भी प्रदूषण के स्तर को कम पाया गया है। बताया जा रहा है कि प्रदूषण का घटा यह स्तर गंगा की सफाई को लेकर बनाये गये ‘नमामिः प्रोजेक्ट’ की राशि जो 20 हजार करोड़ रूपये है, के टारगेट सफाई से ज्यादा है। मतलब इसकी सफाई अगर सरकारी स्तर से की जाती, तो उसकी लागत 20 हजार करोड़ रूपये से ज्यादा बनाई जाती।
वर्तमान के लिए ‘कोरोना वायरस’ के संक्रमण ने पर्यावरण से संबंधित कई चीजों को साफ कर दिया है। एक कोरोना के संक्रमण को रोकने के लिए किये गये लॉकडाउन में फैक्ट्रियां, गाड़ियां बंद रही, जिससे खतरनाक गैसों का उत्सर्जन कम हुआ और वायु प्रदूषण की मात्रा में कमी देखी जा रही है। वायु प्रदूषण के साथ-साथ जल प्रदूषण पर भी लगाम लगा है, क्योंकि धुआं फेंकते कारखानों, फैक्ट्रियों के अवशिष्टों को पानी में बहा दिया जाता है।
दूसरा कोरोना के संक्रमण काल में इटली में हुए एक शोध के अनुसार जहां वायु प्रदूषण अधिक रहा है, वहां कोरोना वायरस के संक्रमण को अधिक पाया गया है। क्योंकि कोरोना वायरस फेफड़े पर हमला करता है और वायु प्रदूषण से फेफड़े कमजोर हो जाते हैं। भारत में देश की राजधानी दिल्ली, जो वायु प्रदूषण में अव्वल रही है, में कोरोना सक्रंमित का आंकड़ा 25 हजार को पार कर गया है। वैसे भी एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में 21 शहर भारत के हैं।
डब्लूएचओ के एक रिपोर्ट के अनुसार वायु प्रदूषण के चलते विश्व में हर साल लगभग 70 लाख मौंते होती हैं। जिनमें 10 लाख से ज्यादा भारत से हैं।
अब सवाल है कि कृषि प्रधान कहलाने वाले इस देश में आखिर वायु प्रदूषण का ऐसा खतरनाक रूप क्यों? इसका जवाब है जहरीली गैसों जैसे-कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, सल्फ्यूरिक अम्ल, नाइट्रस ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड का स्तर दिनों-दिन बढ़ रहा है। जो वाहनों, भिन्न-भिन्न कारखानों, फैक्ट्रियों से निकलते हैं। दूसरी तरफ पेड़ों, वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण इन गैसों का स्तर पर्यावरण में जस का तस बना रहता है।
हम जानते हैं कि पेड़ पर्यावरण से कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं, उसका एक हिस्सा श्वसन की प्रक्रिया के दौरान वायुमंडल में वापस छोड़ देते हैं और बाकी की मात्रा कार्बन में बदल देते हैं, जिसका इस्तेमाल वे कार्बोहाइडेªट के उत्पादन में करते हैं। डॉ. एरिका बेरेनग्यूअर के मुताबिक एक विशाल पेड़ जिसका तना 3 मीटर चौड़ा हो वह 10 से 12 टन तक कार्बन डाइऑक्साइड सोख लेता है।
अगर आंकड़े पर गौर करें तो रूस में पेड़ों की संख्या करीब 641 अरब है, चीन में 139 अरब जबकि भारत में पेड़ों की संख्या (Number of trees in India) करीब 35 अरब है।
‘‘इंडिया स्टेट ऑफ फोरेस्ट रिपोर्ट’’ के अनुसार 2017 में भारत में 708,273 स्क्वायर किलोमीटर यानी देश की कुल जमीन का 21.54 प्रतिशत हिस्से पर ही जंगल है। जबकि वर्ल्ड फैक्ट बुक 2011 के अनुसार दुनिया में 39,000,000 स्क्वायर किलोमीटर पर जंगल है।
जंगलों की कमी का मुख्य कारण वनों की कटाई और जंगलों में प्र्राकृतिक रूप से लगी आग होती है। इसी मद्देनजर भारत के जंगलों को आगे से बचाने के लिए ‘इंटीग्रेड फॉरेस्ट प्रोटेक्शन स्कीम तैयार की गई है और कटाई रोकने के लिए कई पदों पर ऑफिसर्स की तैनाती की जाती है। पर फिर भी जंगलों की इतनी बुरी स्थिति क्यों है? वह इसलिए क्योंकि एक तरफ भारत पर्यावरण सम्मेलन में शामिल होकर खुद को जागरूक दिखाने की कोशिश करता है वहीं देशी-विदेशी कम्पनियों के साथ समय-समय पर एमओयू साइन कर यहां के जंगलों को मल्टीनेशनल कंपनियों के हाथों बेच दिया जाता है। साथ ही साथ पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर तरह-तरह की योजनाएं शुरू कर आम जनता के पैसों का बंदरबांट किया जाता है।
कभी सड़कों के चौड़ीकरण के नाम पर तो कभी कम्पनियों को जमीन दिलाने के लिए देश में सरकारी तंत्र द्वारा पेड़ों पर जंगलों पर धावा बोला जाता है। कृषि योग्य भूमि पर महज अपने फायदे के लिए सरकारी अमलों द्वारा पूंजीपतियों से सांठ-गांठ कर कहीं कारखाना खोलने के लिए, तो कहीं ऊंचे-ऊंचे काम्प्लेक्स खड़े करने के लिए अपनी ही जनता से बर्बरतापूर्वक पेश आया जाता है।
छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, झारखंड, ओड़िसा जैसे राज्यों में जंगलों पर पूंजीपतियों का आधिपत्य हासिल कराने में मदद के लिए दल-बल का प्रयोग किया जाता है और इसकी सारी हदें पार कर दी जाती है। देश की जनता जो जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए हर संभव तत्पर रहती हैं, उनके ही खिलाफ उन्हें ‘आंतरिक सुरक्षा का खतरा’ बताकर युद्ध छेड़ा जा रहा है और आर्म फोर्सेस के द्वारा जंगलों को बचाने के लिए लड़ने वाले आदिवासियों को बेरहमी से मारा जा रहा है। बेशर्मी की हद को पार करते हुए इसपर हवाई हमले तक करवाये जा रहे हैं।
तो अब सवाल है कि जब सरकार सच में पर्यावरण को लेकर जागरूक है, तो कृषि योग्य भूमि पर भी कारखाने, फैक्टरियां क्यों? क्यों नहीं बंजर भूमि को भी कृषि योग्य बनाने की पहल होती है? जंगल में खुद आग लगाकर जंगलों को नष्ट क्यों कर रही है? जंगल को बचाने वाली आम जनता के खिलाफ युद्ध क्यों? यह जानते हुए कि जंगल के कटने से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ता है और तापमान में वृद्धि से ग्लेशियर का पिघलना तेज हो जाता है, जिसमें समुद्र जल के स्तर में वृद्धि होती है और बाढ़ की स्थिति बनाती है। ग्लोबल वार्मिंग से पराबैगनीं किरणों के दुष्प्रभाव को रोकने वाले ओजोन के परत का दिनोंदिन क्षरण होता जा रहा है, जिसमें कई तरह के चर्म रोग और श्वसन संबंधी बीमारी का खतरा और बढ़ रहा है। जंगल के खत्म होने से जैव विविधता पर, जो पृथ्वी के अस्तित्व के लिए बुनियादी चीजों में है, खतरा छा चुका है।
बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग के कारण तूफान, बाढ़, जैसी प्राकृतिक आपदाओं से सामना हो रहा है। इसके बावजूद नये-नये एमओयू साइन करना और महज मुट्ठी भर पूंजीपतियों (जिन्हें शायद गुमान है कि वे पैसे के बदौलत तकनीक के बादशाह बन जाएंगे और पर्यावरण का संकट उनका बाल भी बांका न कर पाएगा) के लिए देश की जनता और प्रकृति के अस्तित्व के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा रहा है? अगर हां तो क्या ऐसे में जनता का फर्ज नहीं बनता है, कि अपनी प्रकृति के अस्तित्व के लिए ऐसे दोगली नीति अपनाने वाली व्यवस्था को समूल नष्ट कर दें और एक सुंदर, स्वच्छ, स्वस्थ पर्यावरण के निर्माण में अपना योगदान दें?
ईप्सा शताक्षी
(लेखिका शिक्षिका हैं और इनके पर्यावरण संबंधी कई लेख पहले भी प्रकाशित हुए हैं)