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पिछली सात साल में दो मामलों में मार्के का विकास हुआ है।
एक; मोदी राज की उमर बढ़ी है, बढ़कर दूसरे कार्यकाल का भी आधा पूरा कर चुकी है। दो; रचनात्मकता को कुचल देने और सर्जनात्मकता को मार डालने की योजनाबद्ध हरकतें बढ़ते बढ़ते एक ख़ास नीचाई तक पहुँच गयी हैं। स्टैंड अप कॉमेडियन्स मुनव्वर फारूकी, वीर दास और कुणाल कामरा (Stand up comedians Munawwar Farooqui, Vir Das and Kunal Kamra) इस बढ़त की नीचाई की ताज़ी मिसालें हैं।
इस बार शुरुआत वीर दास से हुयी।
13 नवंबर को अमेरिका के जॉन एफ कैनेडी सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स में वीर दास (Vir Das at the John F. Kennedy Center for the Performing Arts in America) ने एक कार्यक्रम में महिलाओं की सुरक्षा, कोविड -19, प्रदूषण और किसान के विरोध जैसे मुद्दों पर "दो भारत" की तुलना की.थी। कोई 6 मिनट 53 सेकेंड का यह मोनोलॉग संघी कुनबे को बहुत नागवार गुजरा और व्हाट्सएपिया ट्रॉल आर्मी उनके पीछे लगा दी गयी, भारत के पुलिस थानों में धड़ाधड़ उनके खिलाफ रिपोर्टें लिखाई जाने लगीं।
Sedition insulting India abroad
वीर दास के तथ्यपूर्ण व्यंग्य को "विदेशों में भारत का अपमान करने वाला राष्ट्रद्रोह" बताया जाने लगा। भाजपा शासित एक प्रदेश के, साहित्य-कला-संस्कृति ज्ञान के मामले में शून्य बटा सन्नाटा जानकारी रखने वाले, मध्यप्रदेश के गृहमंत्री ने अपने प्रदेश के लिए उन्हें अवांछित व्यक्ति तक करार दे दिया।
नफ़रत जीत गई, कलाकार हार गया
वीर दास की घेराबंदी का एपिसोड अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि दूसरे स्टैंडअप कॉमेडियन मुनव्वर फारुकी को खुद को खामोश करने का एलान करने के लिए विवश कर दिया गया।
फारुकी की व्यथा यह है कि उन्हें रोज 50 धमकी भरे कॉल आते हैं, पिछले 2 महीनों में उनके 12 शो रद्द किये जा चुके हैं। कर्नाटक के बैंगलूरू से छत्तीसगढ़ के रायपुर तक पुलिस उनके कार्यक्रम की जानकारी मिलते ही आयोजकों को नोटिस जारी कर उन्हें धमकाती है और इवेंट शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाता है। इस बार बेंगलुरु कार्यक्रम, जिसके 600 से अधिक टिकट बेचे जा चुके थे, के समय यही हुआ। बर्बरता की धमकी के कारण शो रद्द कर दिया गया तो "नफ़रत जीत गई, कलाकार हार गया. अलविदा.. अन्याय." कहते हुए मुनव्वर फ़ारूक़ी ने अपने कलाकार की विदाई की घोषणा कर दी। युवा मुनव्वर फारुकी गुजरात के हैं।
संघी कुनबे की तरफ से यह सब जो किया जा रहा है उसके लिए कतई जरूरी नहीं है ऐसा वैसा कुछ कहा भी गया हो। बिना कुछ कहे, बिना किसी गवाह या सबूत के निशाने पर लिया जाना, कलाकार चुनकर उसके पीछे पड़ पड़कर उसे थका कर निराश कर देने की दीदादिलेरी; असहमति और हास्य व्यंग्य, आलोचनात्मक विश्लेषण इत्यादि को खामोश कर देने की इस तेज हुयी मुहिम की विशेषता है।
कुछ महीने पहले इन्हीं मुनव्वर फारुकी को एक भाजपाई विधायक के बेटे की शिकायत पर इंदौर में पुलिस ने ऐसी टिप्पणियों के लिए गिरफ्तार कर लिया था जो उन्होंने की भी नहीं थीं। इंदौर के जांचकर्ता पुलिस अफसर को जब इस कथित विवादास्पद प्रस्तुति को बीच में ही रोके जाने तक की रिकॉर्डिंग दिखाकर बताया गया कि पूरे एपिसोड में किसी देवी देवता का नाम तक नहीं है तब शिकायतकर्ता और गिरफ्तारी कर्ता दोनों का कहना था कि "इसने मोदी और अमित शाह पर तो आलोचनात्मक टिप्पणी तो की है।" गोया अब मोदी और शाह टिप्पणियों से परे ऐसे भगवानों की श्रेणी में आ गए हैं, जिनका किया बुरा न देखा जा सकता है, न कहा जा सकता है, ना ही सुना जा सकता है !!
फारुकी को सुप्रीमकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद जाकर जमानत मिली थी। हिटलरी तर्ज पर चल रही अभिव्यक्ति की दम घोंट देने वाली इस आपराधिक मुहिम को न कानूनों की चिंता है न अदालतों की, लिहाजा फारुकी का शो न होने देने का शो अनवरत जारी है।
अब खबर है कुणाल कामरा नामके कलाकार के साथ भी यही शुरू ही गया है। उनके भी कार्यक्रम नहीं होने दिए जा रहे हैं।
ये अलग थलग घटनायें नहीं है - एक परियोजना का हिस्सा है।
एम एफ हुसैन की पेंटिंग्स से शुरू करते हुए फिल्मों और उपन्यासों पर हमला बोलते, श्रेष्ठतर साहित्यिक रचनाओं को विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों से हटाते हटाते एक समय तक धीरे धीरे करके ऐसी स्थिति बनाई गयी जिसमें रचनात्मकता और सृजनात्मकता की गुंजाइश ही खत्म कर दी जाये। पीछे पड़ पड़कर इतना परेशान कर दिया जाए कि आर्टिस्ट और लेखक को तमिल साहित्यकार पेरुमल मुरुगन की तरह अपने "लेखक की मौत" का एलान करने के लिए मजबूर कर दिया जाये। जो इसके बाद भी नहीं डरें उन्हें कुलबुर्गी, दाभोलकर, पानसारे, गौरी लंकेश की तरह सचमुच में मार डाला जाए।
अब इसी प्रोजेक्ट को अगले चरण में लाया जा रहा है और यह सिर्फ वीर दास या मुनव्वर फारुकी तक सीमित नहीं है। रचनात्मकता और कलात्मक सृजन के हर मामले में यह दखल बढ़ रहा है। पहले कारपोरेट पूंजी के साथ मिलकर सबसे लोकप्रिय माध्यम फिल्मों की विषयवस्तु और प्रस्तुति को ख़ास अंदाज़ में ढाला गया। जब इतने से भी काम नहीं चला तो सिनेमैटोग्राफी एक्ट में बदलाव करके उसे भी हुड़दंगी ब्रिगेड की सुपर सेंसरशिप के दायरे में ले आया गया।
गौरतलब है कि सिनेमेटोग्राफी एक्ट में परिवर्तन कर यह प्रावधान किया गया है कि किसी भी व्यक्ति या समूह द्वारा उसकी "भावनाओं के आहत" होने की शिकायत पर सरकार फिल्म की पुनर्समीक्षा कर उसके बारे में "समुचित" निर्णय ले सकती है भले सेंसर बोर्ड ने उसे मंजूरी क्यों न दे दी हो। और यह भी कि ऐसी शिकायत पहले, बहुत पहले बनाई दिखाई जा चुकी फिल्मों के बारे में भी की जा सकती हैं। कुल मिलाकर यह कि सब कुछ उनकी प्रायोजित भीड़ तय करेगी।
बिना किसी अपवाद के इतिहास ने उदाहरण दर उदाहरण दिए हैं कि तानाशाह डरपोक होता है और फासिस्ट सोच विचार कलात्मक सृजन की क्षमता से पूरी तरह वंचित होता है इसलिए बाकी समाज को भी उससे महरूम करना चाहता है। मगर यहां मसला इससे आगे का, सभ्यता के अब तक के हासिल को छीन-समेटकर उसे एक असहनीय जकड़न वाले असभ्य और क्रूर समाज में बदलने का है। बाकियों को हर तरीके से दबाने और विविधता के हर रूप को कुचल देने का है। इसीलिए देश के सामाजिक जीवन के हर आयाम में यही कुटिलता आम चलन बनाई जा रही है।
हाल के दिनों में नमाज पढ़ने, गिरिजाघरों में जाकर प्रार्थना करने में रुकावटें डाला जाना, धार्मिक समारोहों-आयोजनों को जबरिया रोकना और हुड़दंग करना इसी के रूप हैं।
ख़तरा सिर्फ इन "दूसरे धर्मों" को मानने वालों भर के लिए नहीं है - इसके लपेटे में विविधतापूर्ण हिन्दू धर्म मतावलम्बी भी आयेंगे। उनके विराट हिस्से को भी तथाकथित धर्म शास्त्र सम्मत नियम-विधानों के दायरे में लाया जाएगा। पहली शिकार होंगी शूद्रातिशूद्र बताई जाने वाली महिलायें, फिर बाकी सब शूद्र और अंततः शेष बचेगा वह तीक्ष्ण खंजर जिसने शम्बूक की गर्दन और एकलव्य का अँगूठा उड़ाया गया था। द्रौपदी निर्वस्त्र की गयी थी, गर्भवती सीता जंगल भेज दी गयी थे। जो इस शास्त्र वर्णित व्यवस्था में कभी रहे ही नहीं बख्शे वे भी नहीं जायेंगे; आदिवासियों के धृतराष्ट्र आलिंगन से उसकी शुरुआत हो भी चुकी है।
इन सारी घटनाओं को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के "हिन्दू खतरे में है" आलाप से जोड़कर पढ़े जाने से पूरी परियोजना और अधिक स्पष्ट हो जाती है। उनके अनुसार हिन्दू यदि कम हुआ तो हिन्दुस्तान ही खतरे में पड़ जाने वाला है। ठीक यही आख्यान है जिसे आगे बढ़ाने के लिए कभी वीर दास तो कभी मुनव्वर फारुकी तो कभी कुणाल कामरा की निशानदेही की जा रही है। हरियाणा के गुरुग्राम में नमाज़ और कर्नाटक के बेलगावी में ईसाइयों की प्रार्थना पर उत्पात मचाया जा रहा है। यह पड़ाव भर हैं असली निशाना और प्रोजेक्ट का निशाना तो पूरा हिन्दुस्तान और उसका संविधान है।
इस सबके बीच, इन सबके बावजूद उजाले की किरण यह है कि सब कुछ अँधेरों के चाहने से नहीं होता; बांग्ला भाषा के कवि चंडीदास के शब्दों में "साबेर ऊपर मानुष सत्य" होता है और यह मनुष्य जब खीज से प्रतिरोध में, भीड़ से जलूस में बदल जाता है तो सूरज बन जाता है। साल भर तक लगातार पूरी चमक के साथ धधका किसान आंदोलन ऐसा ही सूरज था - इसने खुद अपने मोर्चे पर असाधारण कामयाबी भर हासिल नहीं की, दूसरों के लिए शानदार मिसाल भी पेश की है। और अँधेरों के कहार जानते होंगे कि सूरज की सबसे मौलिक विशेषता यह है कि उसकी अमावस कभी नहीं आती - हमेशा पूर्णिमा रहती है।
बादल सरोज
संयुक्त सचिव, अखिल भारतीय किसान सभा, सम्पादक लोकजतन
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