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Statue of Politics: Controversy over the statue of Jesus Christ in Karnataka
हमारे देश में हर छोटे-बड़े शहर के हर छोटे-बड़े चौराहे पर, पार्कों में व अन्य सार्वजनिक स्थलों पर मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं. मूर्तियों की अपनी राजनीति (Idol politics) है. जब मायावती उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री थीं तब उन्होंने प्रदेश में जगह-जगह स्वयं की, बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी की और दलित नायकों की मूर्तियाँ लगवाईं थीं. इस मुद्दे पर उन्हें आलोचना का सामना भी करना पड़ा था परन्तु उन्होंने इसकी परवाह नहीं की.
Mayawati believed that these idols increase the self-esteem of Dalits.
मायावती की मान्यता थी कि इन मूर्तियाँ से दलितों के आत्मसम्मान में वृद्धि होती है. देश की सबसे बड़ी मूर्ति है जीवनपर्यंत कांग्रेस के सदस्य रहे सरदार वल्लभभाई पटेल की. संघ परिवार, पटेल पर कब्ज़ा करना चाहता है. पटेल की मूर्ति, जिसे स्टैचू ऑफ़ यूनिटी (Patel's Statue, Statue of Unity,) कहा जाता है, चीन में बनी है और इसके निर्माण की पीछे वे शक्तियां हैं जिनके संगठन पर केंद्रीय गृहमंत्री की हैसियत से पटेल ने प्रतिबन्ध लगाया था.
यह भी दिलचस्प है कि कांग्रेस को देश के विभाजन के लिए दोषी ठहराने वाली भाजपा को शायद यह पता नहीं है कि सरदार पटेल उस समिति के सदस्य थे जिसने देश के विभाजन पर स्वीकृति की अंतिम मोहर लगाई थी.
राममंदिर आन्दोलन ने यदि किसी प्रदेश में भाजपा को सर्वाधिक फायदा पहुँचाया तो वह था उत्तरप्रदेश. इसी राज्य में राम की सबसे बड़ी मूर्ति की अयोध्या में स्थापना की बात चल रही है. जिस राज्य में दर्जनों बच्चे सिर्फ इसलिए काल के गाल में समा जाते हैं क्योंकि एक सरकारी अस्पताल में ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं हो पाती, वह राज्य करोड़ों रुपये राम के मूर्ति पर खर्च करना चाहता है!
मुंबई में शिवाजी महाराज की एक विशाल मूर्ति अरब सागर में स्थापित करने का प्रस्ताव है. इसके विरोध में केवल चंद आवाजें उठीं. उनमें से एक आवाज़ थी जानेमाने पत्रकार (अब सांसद) कुमार केतकर की. उनका कहना था कि जो धनराशि शिवाजी की मूर्ति की स्थापना पर खर्च की जानी है, उसे जनता के कल्याण की योजनाओं पर खर्च किया जाना चाहिए. इसके बाद उनके घर पर तोड़-फोड़ की गयी.
अब यह खबर आयी है कि कर्नाटक में कप्पाला हिल्स में स्थित हरोबेले गाँव में ईसा मसीह की 114 फीट ऊंचीं मूर्ति स्थापित करने का प्रस्ताव है. इस स्थान पर पिछली कई सदियों से ईसाई तीर्थयात्री आते रहे हैं. इस मूर्ति पर होने वाला खर्च अपेक्षाकृत काफी कम है. मूर्ति की स्थापना के लिए आवश्यक ज़मीन कांग्रेस नेता शिवप्रसाद और उनके सांसद भाई द्वारा दान दी गयी है. यह मूर्ति एक ही चट्टान को तराश कर निर्मित की जानी है.
मज़े की बात यह है कि इस मूर्ति की स्थापना का विरोध उन लोगों द्वारा किया जा रहा है जो देश की अधिकांश मूर्ति परियोजनाओं के प्रायोजक हैं.
हिन्दू जागरण वैदिके, विहिप और आरएसएस ने यह घोषणा की है कि वे इस मूर्ति को नहीं लगने देंगे. इसके लिए कई तर्क दिए जा रहे हैं. इनमें से एक यह है कि उस स्थान पर भगवान मुन्निएश्वर (भगवान शिव का एक स्वरुप) की आराधना की जाती रही है.
यह भी कहा जा रहा है कि शिवप्रसाद अपनी पार्टी के ‘इतालवी’ नेताओं को प्रसन्न करना चाहते हैं और यह भी कि यह मूर्ति उस युग की प्रतीक होगी जब हम विदेशियों (अंग्रेजों) के गुलाम थे.
जाहिर है कि यह विरोध संघ परिवार की इस सोच से प्रेरित है कि ईसाईयत एक विदेशी मज़हब है.
परन्तु सीएए से उन्होंने इस ‘विदेशी’ धर्म को बाहर नहीं रखा. उन्होंने एक अन्य धर्म - जिसे भी वे विदेशी मानते हैं - अर्थात इस्लाम, को इस कानून से बाहर रखा है. सीएए के मामले में उनका तर्क यह है कि जिन देशों से ‘प्रताड़ित अल्पसंख्यक’ आये हैं, वे मुस्लिम-बहुल देश (अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश) हैं.
भारत में संघ परिवार के मुख्य निशाने पर मुसलमान रहे हैं परन्तु परिवार ने ईसाईयों को भी बख्शा नहीं है. सन 1980 के दशक की शुरुआत से ही संघ परिवार यह जोर-शोर से यह प्रचार करता आया है कि ईसाई मिशनरीयों द्वारा बड़े पैमाने पर हिन्दुओं को ईसाई बनाने का अभियान चलाया जा रहा है.
संघ का एक अनुषांगिक संगठन वनवासी कल्याण आश्रम, आदिवासी क्षेत्रों में लम्बे समय के सक्रिय है और उसके तत्वाधान में स्वामी असीमानंद, स्वामी लक्ष्मणानन्द और आसाराम बापू के समर्थकों और अनुयायियों ने इन क्षेत्रों में अपना जाल फैलाया. उन्होंने आदिवासियों के ‘हिन्दुकरण’ के लिए इन इलाकों में शबरी और हनुमान को लोकप्रिय बनाने के लिए शबरी कुम्भ सहित कई आयोजन किये.
ईसाई-विरोधी हिंसा का पहला बड़ा और वीभत्स प्रकटीकरण था पास्टर ग्राहम स्टुवर्डस स्टेंस और उनके दो छोटे लड़कों टिमोथी और फिलिप की जिंदा जलाकर हत्या. आरएसएस से जुड़े बजरंग दल के दारा सिंह उर्फ़ राजेंद्र पाल ने इस जघन्य कांड को अंजाम दिया था और वह इस अपराध में आजीवन कारावास की सजा काट रहा है. इस घटना ने देश को हिला दिया था और इसकी जांच के लिए वाधवा आयोग की नियुक्ति की गयी थी. तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने इस घटना को मानव इतिहास का एक काला अध्याय निरुपित किया था.
वाधवा आयोग ने अपनी रपट में बताया कि पास्टर स्टेंस जिस क्षेत्र में काम कर रहे थे, वहां ईसाई धर्मावलम्बियों की संख्या में कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई थी. राष्ट्रीय स्तर पर तो पिछले दो दशकों में देश की कुल आबादी में ईसाईयों का प्रतिशत घटा ही है. जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, सन 1971 में ईसाई देश की आबादी का 2.60 प्रतिशत थे. बाद के जनगणनाओं में देश की आबादी में उनका प्रतिशत कम ही हुआ है: 1980 (2.44), 1991 (2.34), 2001 (2.30) और 2011 (2.30). ऐसा कहा जाता है कि कुछ दलित जो ईसाई बन गए हैं अपने धर्म का खुलासा नहीं कर रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि ऐसा करने पर वे आरक्षण का लाभ नहीं ले सकेंगे. यह सही हो सकता है परन्तु ऐसे व्यक्तियों की संख्या बहुत बड़ी होगी, यह मानने का कोई कारण नहीं है.
ईसाईयों के विरुद्ध हिंसा छोटे पैमाने पर होती है और इसलिए यह राष्ट्रीय मीडिया में चर्चा का विषय नहीं बनती. हाँ, ओड़िशा के कंधमाल में ईसाईयों के विरुद्ध व्ब्यापक हिंसा हुई थी. बहाना यह था कि ईसाईयों ने स्वामी लक्ष्मणानन्द की हत्या की थी.
अब ईसाई परम्पराओं को त्यागने का सिलसिला चल रहा है. रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति बनने की बाद से राष्ट्रपति भवन में कैरोल गायकों को आमंत्रित करना बंद कर दिया गया है. ऐसे खबर है कि इस बार बीटिंग द रिट्रीट में गाँधी को प्रिय ‘एबाइड विथ मी’ की धुन नहीं बजाई नहीं जाएगी. ईसाई मिशनरीयों को उनके समुदाय पर बढ़ते खतरे का अहसास है और इसलिए वे अन्य समुदायों के साथ सीएए-एनआरसी-एनपीआर के विरुद्ध लामबंद हो गयी हैं.
पहली बात तो यह है कि मूर्तियाँ और पहचान से जुड़े अन्य मुद्दों को जनता के विकास और उसकी भलाई से जुड़े मुद्दों पर प्राथमिकता नहीं दी जानी चाहिए. दूसरे, यदि अन्य मूर्तियों पर अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं तब ईसा मसीह की मूर्ति पर आपात्ति क्यों? यह दरअसल आरएसएस का एजेंडा है, जो अलग-अलग स्वरूपों में हमारे सामने आ रहा है.
राम पुनियानी
(अंग्रेजी से हिन्दी रुपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)