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The stature of the Congress is much bigger than electoral politics, this is also the true identity of the Congress.
पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुड्डुचेरी की जनता ने अगले पांच साल के लिए अपना जनमत दे दिया है। हम इन चुनाव परिणामों को पूरी विनम्रता और ज्म्मिदारी से स्वीकार करते हैं।' राजनीति में तीखे शब्दों और निजी प्रहारों के चलन के इस दौर में इस विनम्रता से जनादेश को स्वीकार करना दुर्लभ है। लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने कुछ इन्हीं शब्दों के साथ हाल में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणामों पर अपनी प्रतिक्रिया दी है।
कांग्रेस इस वक्त केवल देश की सबसे पुरानी और कमजोर पार्टी भी
यह नजर आ रहा है कि कांग्रेस इस वक्त न केवल देश की सबसे पुरानी पार्टी है, बल्कि अब बेहद कमजोर पार्टी भी है। जिस विनम्रता के साथ उसने अपनी हार स्वीकार की है, बीते बरसों में उसे बार-बार इस तरह के बयान देने पड़े हैं।
राजनैतिक शिष्टाचार के नाते विनम्रता दिखाना सही है, लेकिन सवाल यही है कि आखिर कांग्रेस को कब तक इस तरह सिर झुकाकर हार स्वीकार करने की नौबत आती रहेगी।
जीत कभी भी थाल में परोस कर नहीं मिलती, उसके लिए जूझना पड़ता है। अफसोस इस बात का है कि कांग्रेस में यह जुझारूपन तेजी से खत्म होते जा रहा है।
कुछ महीनों पहले बिहार चुनाव में भी उसने अपनी हार इसी विनम्रता के साथ स्वीकार की थी। निश्चित ही पार्टी ने इसके बाद आत्ममंथन जैसा कोई काम किया होगा, लेकिन उसका कुछ खास असर नहीं निकला, ये इस बार के चुनावी नतीजों से पता चलता है।
तमिलनाडु में डीएमके के साथ कांग्रेस ने गठबंधन किया और कांग्रेसियों के लिए यह उत्साहित करने वाली बात है कि 2016 की आठ सीटों के मुकाबले इस बार उसकी सीटें दोगुनी से अधिक हो गई हैं। कांग्रेस ने 18 सीटों पर जीत हासिल की है।
राहुल गांधी ने जिस तरह तमिलनाडु में चुनाव प्रचार किया, सहजता के साथ यहां के लोगों से घुले-मिले, उसका अच्छा परिणाम सामने आया। लेकिन यही सहजता और लोगों से सीधा जुड़ाव केरल में कारगर साबित नहीं हुआ।
Congress lost to Pinarayi Vijayan
पिछले आम चुनावों में राहुल गांधी ने अमेठी और वायनाड दोनों जगह से चुनाव लड़ा था, जिसमें से अमेठी वे हार गए थे, जबकि वायनाड ने उन्हें अपनाया। राहुल गांधी ने भी मुक्तहस्त से वायनाड के लोगों को अपनाया। केरल उनके लिए दूसरा घर जैसा बन गया और यही वजह है कि यहां चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस ने पूरे उत्साह से काम किया।
केरल की जीत से राहुल गांधी के सियासी भविष्य को ताकत मिल सकती थी और कांग्रेस को संजीवनी।
लेकिन पिनराई विजयन के आगे कांग्रेस हार गई। अब कांग्रेस इस दक्षिण प्रदेश में और पांच साल सत्ता में नहीं आ सकेगी। सत्ता से लगातार दस साल की दूरी कांग्रेस कार्यकर्ताओं को जोड़े रखने और उनका मनोबल बढ़ाने में बड़ी अड़चन रहेगी। खासकर जब राजनीति में दलबदल बच्चों के खेल जैसा आसान हो गया है और भाजपा जैसा माहिर खिलाड़ी निरंतर इस खेल को नए तरीकों से खेल रहा हो, तब कांग्रेस अपना कैडर कैसे मजबूत रखेगी, ये बड़ा सवाल है।
यूं भी देशव्यापी स्तर पर देखें तो पिछले सात साल कांग्रेस के अस्तित्व पर काफी भारी पड़े हैं। कांग्रेस ज़मीनी स्तर पर खत्म होती जा रही है, लेकिन यह बात उसके बड़े नेता अहंकार के कारण शायद स्वीकार नहीं कर रहे हैं। रही-सही ताकत गठबंधन दलों के कारण खत्म हो रही है।
कांग्रेस कई राज्यों में मजबूरियों के तहत गठबंधन कर रही है, जिसमें सहयोगी दल तो अधिक सीटें ले रहे हैं, जबकि कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ रहा है। कांग्रेस जितने जल्दी इस हकीकत को स्वीकार करेगी, उतना उसके लिए अच्छा रहेगा।
पुड्डूचेरी में भी कांग्रेस को न केवल हार का सामना करना पड़ा, बल्कि उसकी सीटें कम हो गईं।
असम से तो कांग्रेस को बड़ा झटका लगा है। यहां न जाने किस मुगालते का शिकार होकर उसने अपनी जीत तय मान ली थी, और इस वजह से शीर्ष नेता जमीनी हकीकत को नजरंदाज कर गए। बेशक प्रियंका गांधी के चुनाव प्रचार से स्थानीय स्तर पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं को बल मिला, कांग्रेस की तीन सीटें भी बढ़ीं, पिछली बार उसे 26 सीटें मिली थीं, इस बार 29 तक बात पहुंची, लेकिन सत्ता फिर भी दूर ही रही।
दरअसल कांग्रेस भाजपा के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के एजेंडे का शिकार हो गई। या यूं कह लें कि वह फिर शिकारी के जाल में फंस गई। एनआरसी, सीएए, चाय श्रमिकों की मजदूरी, बेरोजगारी जैसे तमाम मुद्दे थे, जो भाजपा को घेर सकते थे, लेकिन कांग्रेस इसमें असफल रही। बल्कि कांग्रेस के लिए मौलाना बदरुद्दीन अजमल को साथ लेना बहुत महंगा साबित हुआ। कांग्रेस-एआईयूडीएफ़ के गठबंधन ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के भाजपा के एजेंडे को पूरा करने में मदद की।
भाजपा के बड़े नेता मतदाताओं को यह समझाने में सफल हो गए कि अगर महागठबंधन की सरकार बनी तो असम में घुसपैठ बढ़ेगी, हिंदुत्व को खतरा होगा आदि। असम हारने के बाद कांग्रेस नेतृत्व भी शायद इस बात को समझ रहा होगा। लेकिन यह दूरंदेशी कांग्रेस ने पहले क्यों नहीं दिखाई। शायद कांग्रेस के रणनीतिकारों ने हकीकत से मुंह मोड़ लिया या फिर जानबूझकर शीर्ष नेतृत्व को अंधेरे में रखा।
प.बंगाल में तो कांग्रेस ने शायद अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मार ली। केरल में वामदलों के खिलाफ लड़ने और प.बंगाल में वामदलों के साथ लड़ने की राजनैतिक उलटबांसी में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने यहां प्रचार से दूरी बना कर रखी थी। राहुल गांधी ने बड़ी देर से यहां रैली की, और उसके बाद की सभाएं महामारी के कारण रद्द कर दीं। लेकिन स्थानीय स्तर पर अधीर रंजन चौधरी जैसे नेताओं के हाथ में कांग्रेस की कमान थी, जो शायद खुद इस भुलावे में थे कि वे ममता बनर्जी की मुखालफत मात्र से प.बंगाल के चुनाव में कोई कमाल कर देंगे। और इस भुलावे का असर ये हुआ कि कांग्रेस यहां खाता भी नहीं खोल पाई।
बेशक वामदलों के साथ कांग्रेस की रैलियों में भारी भीड़ जुट रही थी, लेकिन जमीन पर असली लड़ाई टीएमसी और भाजपा के बीच ही थी। जिन लोगों को भाजपा से विरोध था, उन लोगों ने अपने वोट कहीं और देने की जगह टीएमसी को देकर जिताने का फैसला लिया। बिहार में कांग्रेस की सहयोगी राजद ने टीएमसी को समर्थन देकर बतला दिया कि हवा का रुख भांपने में तेजस्वी यादव सफल रहे, जबकि बंगाल कांग्रेस इकाई ऐसा नहीं कर पाई।
इन चुनाव परिणामों और पिछली तमाम पराजयों का सार कांग्रेस के लिए यही है कि उसने स्थानीय नेतृत्व को निरंकुश होकर आगे बढ़ने दिया, जिसका नुकसान उसे हुआ। बड़े नेताओं का अहंकार और बड़बोलापन उस पर भारी पड़ा। जमीनी हकीकत को स्वीकार न करने का नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ा और सबसे बड़ी बात उन कार्यकर्ताओं का पार्टी से छिटक जाना घातक साबित हुआ, जो पार्टी और जनता के बीच सेतु का काम करते थे।
अकेले गांधी परिवार पर कांग्रेस की इस कमजोर स्थिति का जिम्मा डालना नाइंसाफी होगी। वे अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह ईमानदारी और निष्ठा से कर रहे हैं। लेकिन अब बाकी नेताओं को भी जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी।
वैसे चुनावों में हार से कांग्रेस के अस्तित्व पर सवाल उठाना गलत होगा। इस महामारी के वक्त जिस तरह राहुल गांधी लगातार मशविरे दे रहे हैं, जिस तरह कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं से मदद की अपील लोग कर रहे हैं। यहां तक कि न्यूजीलैंड और फिलीपींस के दूतावासों ने कांग्रेस से मदद मांगी, उससे जाहिर होता है कि कांग्रेस का कद चुनावी राजनीति से कहीं बड़ा है। यही कांग्रेस की असली पहचान भी है, जिसे अब लोगों तक ले जाने की जरूरत है।
सर्वमित्रा सुरजन
लेखिका देशबन्धु की संपादक हैं।