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हिंदुत्व टोली ने किस तरह नेताजी के साथ ग़द्दारी की, सावरकर ने नेताजी के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दिया

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आरएसएस/भाजपा शासक आजकल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानतम नेताओं में से एक शहीद नेताजी सुभाष चंद्र बोस से बहुत नज़दीकी जता रहे हैं। इस से ज़्यादा शर्मनाक हरकत कोई और नहीं हो सकती। आईए हम हिंदुत्व टोली के शर्मनाक अपराधों के बारे में जानने के लिए स्वयं आज़ादी से पहले के हिन्दू महासभा और आरएसएस के दस्तावेज़ों में झांकें।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब नेताजी देश की आज़ादी के लिए विदेशी समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे थे और अपनी आज़ाद हिंद फ़ौज (Azad Hind Fauz) को पूर्वोत्तर भारत में सैनिक अभियान के लिए लामबंद कर रहे थे, तभी सावरकर अंग्रेजों को पूर्ण सैनिक सहयोग की पेशकश कर रहे थे।

1941 में भागलपुर में हिंदू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने अंग्रेज शासकों के साथ सहयोग करने की अपनी नीति का इन शब्दों में ख़ुलासा किया -

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"देश भर के हिंदू संगठनवादियों (अर्थात हिंदू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और अति आवश्यक काम यह करना है कि हिंदुओं को हथियार बंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओं तक आ पहुँची है वह एक ख़तरा भी है और एक मौक़ा भी।"

अंग्रेजों की मदद का आह्वान

सावरकर ने आगे कहा, इन दोनों का तकाजा है कि सैन्यीकरण आंदोलन को तेज़ किया जाए और हर गाँव-शहर में हिंदू महासभा की शाखाएँ हिंदुओं को थल सेना, वायु सेना और नौ सेना में और सैन्य सामान बनाने वाली फ़ैक्ट्रियों में भर्ती होने की प्रेरणा के काम में सक्रियता से जुड़ें।

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सावरकर ने अपने इस भाषण में किस शर्मनाक हद तक सुभाष चंद्र बोस के ख़िलाफ़ अंग्रेजों की मदद करने का आह्वान किया वह आगे लिखे इन शब्दों से बखू़बी स्पष्ट हो जाएगा। सावरकर ने कहा, "जहाँ तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूति पूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फायदे में हो। हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारखानों वग़ैरह में प्रवेश करना चाहिए।"

सावरकर ने कहा,

"ग़ौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने के कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गए हैं। इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के कहर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताकत पहुँचा कर ही किया जा सकता है। इसलिए हिंदू महासभाइयों को खासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीके से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए।"

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सावरकर ने हिंदुओं का आह्वान किया कि हिंदू सैनिक हिंदू संगठनवाद की भावना से लाखों की संख्या में ब्रिटिश थल सेना, नौ सेना और हवाई सेना में भर जाएँ।

सावरकर ने हिंदुओं को बताया कि वे इस फौरी कार्यक्रम पर चलें और हिंदू संगठनवादी आदर्श का पूरा ध्यान रखते हुए युद्ध की परिस्थिति का पूरा लाभ उठाएँ।

सावरकर ने कहा,

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"अगर हमने हिंदू नस्ल के सैन्यीकरण पर पूरा जोर दिया, तो हमारा हिंदू राष्ट्र निश्चित तौर पर ज़्यादा ताक़तवर, एकजुट और युद्ध के बाद उभरने वाले मुद्दों, चाहे वह हिंदू विरोधी गृहयुद्ध हो या संवैधानिक संकट या सशस्त्र क्रांति का सामना करना, फायदे वाली स्थिति में होगा।"

भागलपुर में अपने भाषण का समापन करते हुए सावरकर ने एक बार फिर हिंदुओं के अंग्रेज़ सरकार के युद्ध प्रयासों में शामिल होने पर जोर दिया।

सावरकर के मुताबिक़, युद्ध के बाद (विश्व के) देशों की स्थिति और तकदीर जो भी हो, आज की मौजूदा स्थितियों में हर चीज़ को देखते हुए हिंदू संगठनवादी एकमात्र व्यावहारिक और सापेक्ष लाभप्रद रवैया यही अपना सकते हैं कि भारत की सुरक्षा के सवाल पर ब्रिटिश सरकार के साथ भारत की सुरक्षा के लिए बिना किसी आशंका के सक्रिय रूप से सहयोग करें। ध्यान केवल यह रखना है कि हम हिंदू हितों के विरुद्ध काम करने के लिए मजबूर ना होकर ऐसा कर सकें।

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जब सुभाष चंद्र बोस सैन्य संघर्ष के जरिए अंग्रेज़ी राज को उखाड़ फेंकने की रणनीति बना रहे थे तब ब्रिटिश युद्ध प्रयासों को सावरकर का पूर्ण समर्थन एक अच्छी तरह सोची-समझी हिंदुत्ववादी रणनीति का परिणाम था।
Savarkar firmly believed that the British Empire would never defeated

सावरकर का पुख़्ता विश्वास था कि ब्रिटिश साम्राज्य कभी नहीं हारेगा और सत्ता एवं शक्ति के पुजारी के रूप में सावरकर का साफ़ मत था कि अंग्रेज़ शासकों के साथ दोस्ती करने में ही उनकी हिंदुत्ववादी राजनीति का भविष्य निहित है।

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मदुरा में उनका अध्यक्षीय भाषण ब्रिटिश साम्राज्यवादी चालों के प्रति पूर्ण समर्थन का ही जीवंत प्रमाण था। उन्होंने भारत को आज़ाद कराने के नेताजी के प्रयासों को पूरी तरह खारिज कर दिया। उन्होंने घोषणा की कि व्यावहारिक राजनीति के आधार पर हम हिंदू महासभा संगठन की ओर से मजबूर हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में किसी सशस्त्र प्रतिरोध में ख़ुद को शरीक न करें।

द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण जब ब्रिटिश सरकार ने सेना की नई टुकड़ियाँ भर्ती करने का निर्णय लिया तो सावरकर के प्रत्यक्ष नेतृत्व में हिंदू महासभा ने हिंदुओं को अंग्रेजों के इस भर्ती अभियान में भारी संख्या में जोड़ने का फ़ैसला लिया। मदुरा में हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकर ने उपस्थित प्रतिनिधियों को बताया -

"स्वाभाविक है कि हिंदू महासभा ने व्यावहारिक राजनीति पर पैनी पकड़ होने की वजह से ब्रिटिश सरकार के समस्त युद्ध प्रयासों में इस ख्याल से भाग लेने का निर्णय किया है कि यह भारतीय सुरक्षा और भारत में नई सैनिक ताक़त को बनाने में सीधे तौर पर सहायक होंगे।" ऐसा नहीं है कि सावरकर को इस बात की जानकारी नहीं थी कि अंग्रेजों के प्रति इस प्रकार के दोस्ताना रवैये के विरोध में आम भारतीयों में तेज़ आक्रोश भड़क रहा था।

युद्ध प्रयासों में अंग्रेज़ों को सहयोग देने के हिंदू महासभा के फ़ैसले की आलोचनाओं को उन्होंने यह कहकर खारिज कर दिया कि इस मामले में अंग्रेजों का विरोध करना एक ऐसी राजनैतिक गलती है जो भारतीय लोग अकसर करते हैं।

सावरकर के मुताबिक़, भारतीय सोचते हैं कि सामान्य तौर पर चूँकि भारतीय हित ब्रिटिश हितों के ख़िलाफ़ हैं, इसलिए ब्रिटिश सरकार से हाथ मिलाने वाला कोई भी कदम अनिवार्यतः हथियार डालना, राष्ट्रद्रोह का काम होगा और अंग्रेज़ों के हाथ में खेलना जैसा होगा। सावरकर के अनुसार, भारतीय यह भी मानते हैं कि ब्रिटिश सरकार से किसी भी मामले और हर तरह की परिस्थितियों में सहयोग करना देशद्रोह और निंदनीय है।

एक ओर सुभाष चन्द्र बोस देश को आज़ाद कराने के लिए जर्मन व जापानी फ़ौज़ों की सहायता लेने की रणनीति पर काम कर रहे थे तो दूसरी ओर सावरकर अंग्रेज़ शासकों को उनके ख़िलाफ़ प्रत्यक्ष सैनिक समर्थन देने में व्यस्त थे।

ब्रिटिश सरकार को था खुला समर्थन

सावरकर और हिंदू महासभा ब्रिटिश सरकार के समर्थन में खुलकर मैदान में खड़े थे। यह वही सरकार थी जो आज़ाद हिंद फौज के बहादुर सैनिकों को मारने और उनका विनाश करने में जुटी थी।

अंग्रेज़ शासकों की भारी प्रशंसा करते हुए सावरकर ने मदुरा में अपने अनुयायियों से कहा कि चूँकि जापान एशिया को यूरोपीय प्रभाव से मुक्त करने के लिए सेना के साथ आगे बढ़ रहा है, ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सरकार को अपनी सेना में बड़ी संख्या में भारतीयों की जरूरत है और हिंदू महासभा को उसकी मदद करनी चाहिए।

सावरकर ने अंग्रेजों की जमकर प्रशंसा करते हुए कहा कि

"हमेशा की तरह दूरदर्शितापूर्ण ब्रिटिश राजनीति ने पहले हो समझ लिया था कि जब भी जापान के साथ युद्ध छिड़ेगा, भारत ही युद्ध की तैयारियों का केंद्र बिंदु होगा...। संभावना यह है कि जापानी सेनाएँ जितनी तेज़ी से हमारी सीमाओं की ओर बढ़ेंगी, उतनी ही तेज़ी से (अंग्रेज़ों को) 20 लाख की सेना भारतीयों को ले कर, भारतीयों अधिकारियों के नेतृत्व में खड़ी करनी होगी।"

लाखों हिंदुओं को सेना में कराया भर्ती

अगले कुछ वर्षों तक सावरकर ब्रिटिश सेनाओं के लिए भर्ती अभियान चलाने, शिविर लगाने में जुटे रहे, जो बाद में उत्तर-पूर्व में आज़ाद हिंद फ़ौज़ के बहादुर सिपाहियों को मौत की नींद सुलाने और क़ैद करने वाली थी। हिंदू महासभा के मदुरा अधिवेशन में सावरकर ने प्रतिनिधियों को बताया कि पिछले एक साल में हिंदू महासभा की कोशिशों से लगभग एक लाख हिंदुओं को अंग्रेजों की सशस्त्र सेनाओं में भर्ती कराने में वे सफ़ल हुए हैं। इस अधिवेशन का समापन एक ‘फौरो कार्यक्रम' को अपनाने के प्रस्ताव के साथ हुआ जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि ब्रिटिश “थल सेना, नौ सेना और वायु सेना में ज़्यादा से ज़्यादा हिंदू सैनिकों की भर्ती सुनिश्चित की जाए।

सावरकर ने ब्रिटिश सरकार के युद्ध प्रयासों में शरीक होने पर जोर देते हुए अपने कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया कि

"आज की हमारी स्थितियों में जितना संभव हो अंग्रेजों के साथ इस अपरिहार्य सहयोग को अपने देश के हित में लाभ उठाने की कोशिश में बदलें। इसको कभी नहीं भूला जाना चाहिए कि जो लोग सशस्त्र हमले के बावजूद पाखंडी और दिखावटी पूर्ण अहिंसा और असहयोग के लिए अपनी कायरतापूर्ण सनक या केवल नीतिगत कारणों से सरकार से सहयोग न करने और उसके युद्ध प्रयासों में सहायता न करने के दावे करते हैं वे सिर्फ़ अपने आपको धोखा दे रहे हैं और आत्म-तुष्टि से ग्रस्त हैं"।

ब्रिटिश सशस्त्र सेनाओं में भर्ती होने वाले हिंदुओं को सावरकर ने जो निम्नलिखित निर्देश दिया, उसे पढ़कर उन लोगों को निश्चित ही शर्म से सिर झुका लेना चाहिए जो सावरकर को महान देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानी बताते हैं।

सावरकर ने कहा,

"इस सिलसिले में अपने हित में एक बिंदु जितनी गहराई से संभव हो समझ लेना चाहिए कि जो हिंदू भारतीय (ब्रिटिश) सेनाओं में शामिल हैं, उन्हें पूर्ण रूप से आज्ञाकारी होना चाहिए और वहाँ के सैनिक अनुशासन और व्यवस्था का पालन करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए बशर्ते वह हिंदू अस्मिता को जान-बूझ कर चोट न पहुँचाती हों।"

आश्चर्य की बात यह है कि सावरकर को कभी यह महसूस नहीं हुआ कि ब्रिटिश सेना में भर्ती होना ही अपने आप में स्वाभिमानी और देशभक्त हिंदू ही नहीं किसी के लिए भी घोर शर्म की बात थी।

‘महासभा और महान युद्ध' का प्रस्ताव

दमनकारी अंग्रेज़ सरकार के साथ हिंदू महासभा द्वारा सैनिक सहयोग की खुलेआम वकालत करने वाला एक ‘महासभा और महान युद्ध' नामक प्रस्ताव सावरकर ने स्वयं तैयार किया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि चूँकि "भारत को सैनिक हमले से बचाना ब्रिटिश सरकार और हमारी साझा चिंता है और चूँकि दुर्भाग्य से हम इस स्थिति में नहीं हैं कि यह काम बिना सहायता के कर सकें, इसलिए भारत और इंग्लैंड के बीच खुले दिल से सहयोग की बहुत ज़्यादा गुंजाइश है।"

सावरकर ने अपने 59वें जन्मदिन के आयोजनों को हिंदू महासभा के इस आह्वान को प्रचारित करने का माध्यम बनाया कि हिंदू बड़ी संख्या में ब्रिटिश सेनाओं में भर्ती हों।

युद्ध के संचालन के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित उच्चस्तरीय युद्ध समितियों की बात करें तो यह सच्चाई किसी से छिपी नहीं थी कि वे सब सावरकर के संपर्क में थीं। इन समितियों में सावरकर द्वारा प्रस्तावित लोगों को भी शामिल किया गया था। यह ब्रिटिश सरकार के प्रति धन्यवाद ज्ञापन के लिए सावरकर द्वारा भेजे गए एक तार (टेलीग्राम) से भी स्पष्ट है।

{Dr. Shamsul Islam, Political Science professor at Delhi University (retired).} {Dr. Shamsul Islam, Political Science professor at Delhi University (retired).}

भिडे की पुस्तक के अनुसार, "बैरिस्टर वी. डी. सावरकर, अध्यक्ष हिंदू महासभा ने (1) कमांडर इन चीफ़ जनरल बावेल (2) भारत के वायसराय को, 18 जुलाई 1941 को यह तार भेजा: महामहिम द्वारा अपने कारिंदों की सदस्यता वाली रक्षा समिति की घोषणा का स्वागत है। इसमें सर्वश्री कालिकर और जमनादास मेहता की नियुक्ति पर हिंदू महासभा विशेष प्रसन्नता व्यक्त करती है।"

दिलचस्प बात यह है कि इस राष्ट्रीय स्तर की रक्षा समिति में मुसलिम लीग द्वारा स्वीकृत नाम भी शामिल थे। यहाँ इस सच्चाई को भी जानना ज़रूरी है कि जब हिंदू महासभा और मुसलिम लीग मिलकर अंग्रेजों को युद्ध में विजयी बनाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे थे, उस समय कांग्रेस के नेतृत्व वाले स्वतंत्रता आंदोलन का नारा था कि साम्राज्यवादी युद्ध के लिए न एक भाई, न एक पाई (नॉट ए मैन, नॉट ए पाई फ़ॉर दि वॉर)। और इस नारे को बुलंद करते हुए हजारों हिंदुस्तानियों ने ब्रिटिश सरकार का भयंकर उत्पीड़न सहा था।

आरएसएस या इसके वरिष्ठ स्वयंसेवक, प्रधान मंत्री मोदी को कोई अधिकार नहीं है कि वे नेताजी और आज़ाद हिन्द फ़ौज के महान आज़ादी के लड़ाकुओं पर कोई बात करें।  उनको तो लाल क़िले पर जाकर सिर्फ एक काम करना चाहिए और वह यह है की हिन्दुत्वादी टोली ने नेताजी और आज़ाद हिन्द फ़ौज के खिलाफ जो अपराध किये थे उनके बारे में पूरे देश से माफ़ी मांगें।

शम्सुल इस्लाम

January 23, 2020.

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