Advertisment

स्वामी दयानन्द सरस्वती और मूर्तिपूजा

स्वामी दयानन्द सरस्वती : आर्य समाज के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी सन्यासी

maharishi dayanand saraswati

Advertisment

स्वाधीनता संग्राम में स्वामी दयानन्द सरस्वती की भूमिका

Advertisment

दयानन्द सरस्वती की समाज सुधार आंदोलन में जो भूमिका रही है वह हम सब जानते हैं लेकिन 1857, 58 और 59 में तीन साल तक वे कहां रहे और क्या करते रहे, यह हम सब कम ही जानते हैं। इस प्रसंग में स्वामी दयानन्द ने यही लिखा कि मैं “मैं इन तीन वर्षों में नर्मदा तट पर घूमता रहा।”

Advertisment

कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि वे इस दौर में स्वाधीनता संग्राम के लिए आम जनता को संगठित करने का काम कर रहे थे। इस संदर्भ में वासुदेव वर्मा की लिखी किताब “अठारह सौ सत्तावन और दयानन्द सरस्वती” महत्वपूर्ण कृति है।

Advertisment

मूर्तिपूजा और सोमनाथ मंदिर के प्रसंग में दयानन्द सरस्वती ने “सत्यार्थ प्रकाश” में लिखा है, एक अंश है, पढ़ें, एक प्रश्न सोमनाथ मंदिर के बारे में था, “ देखो ! सोमनाथ जो पृथिवि पर रहता था और बड़ा चमत्कार था। क्या यह भी मिथ्या बात है ?” उत्तर, ”हाँ मिथ्या है सुनो ! नीचे-ऊपर चुंबक पाषाण लगा रखे थे। उसके आकर्षण से वह मूर्ति अधर खड़ी थी-जब ऊपर की छत टूटी तब चुंबक पाषाण पृथक होने से मूर्ति गिर पड़ी”।(सत्यार्थ प्रकाश, दिल्ली,1954,पृ.334)

Advertisment

इसके बाद अगला प्रश्न है, “ द्वारकाजी के रणछोड़ की जिसने ‘नरसी महता’ के पास हुंड़ी भेज दी और उसका ऋण चुका दिया इत्यादि बात भी क्या झूठ है ?” उत्तर,” किसी साहूकार ने रुपये दे दिए होंगे। किसी ने झूठा नाम उड़ा दिया होगा कि श्रीकृष्ण ने भेजे। जब संवत्1914 के वर्ष में तोपों के मारे मंदिर-मूर्तियाँ अंग्रेजों ने उड़ा दी थीं तब मूर्ति कहाँ गई थी ? प्रत्युत बाघेर लोगों ने जितनी वीरता की और लड़े; शत्रुओं को मारा परंतु मूर्ति एक मक्खी की टाँग भी न तोड़ सकी। जो श्रीकृष्ण के सदृश कोई होता तो इनके धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते। भला यह तो कहो कि जिसके रक्षक मार खाए उसके शरणागत क्यों न पीटे जाएँ।”

Advertisment

जगदीश्वर चतुर्वेदी

भारत में धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में घृणा और हिंसा | प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी का संवाद

Advertisment
सदस्यता लें