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स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय। Swami Vivekanand biography in Hindi
Swami Vivekananda Jayanti : जानिए, किसने दिया था स्वामी विवेकानंद का नाम
स्वामी विवेकानंद का, विविदिशानंद से विवेकानंद का नामकरण, राजस्थान की एक रियासत, खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने ही किया था। आज विविदिशानंद नाम अल्प ज्ञात है और विवेकानंद, जगतख्यात।
अब राजस्थान के झुनझुनूँ जिले स्थित खेतड़ी नरेश महाराजा अजित सिंह, स्वामी विवेकानंद के निकट मित्र और शिष्य भी थे।
विवेकानंद की अजित सिंह से कुल तीन मुलाक़ातें हुई हैं। यह मुलाकातें, 1891. 1893 और 1897 में हुई थीं।
स्वामी जी की अजित सिंह से पहली मुलाकात, जब राजस्थान के आबू में हुई, तो दोनों ने एक दूसरे को प्रभावित किया। अजित सिंह अंग्रेज़ी पढ़े लिखे और विद्वान् व्यक्ति थे। वे स्वामी जी के अंग्रेजी भाषा के ज्ञान और उनके तार्किक विमर्श से प्रभावित हुए। उधर महाराजा अजीत सिंह के अंग्रेजी परिवेश में पढ़े लिखे होने के बावज़ूद, भारतीय दर्शन में उनकी रूचि और अध्ययन से प्रभावित विवेकानंद जी हुए।
यह वह समय था जब प्राच्य साहित्य, दर्शन, वांग्मय आदि को पाश्चात्य समाज और ईसाई मिशनरियाँ एक योजनाबद्ध तरीके से हेय और निम्न स्तरीय साबित करने के काम में जुटी थीं। हालांकि प्राच्य वांग्मय से प्रभावित अंग्रेजों की संख्या भी कम नहीं थी। वे भी इस वांग्मय के अद्भुत रहस्य से चमत्कृत थे।
ईसाई मिशनरियों से विवेकानन्द का संघर्ष
अंग्रेजों व अन्य यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय दर्शन, इतिहास और परंपरा पर अध्ययन भी खूब किया था। हालांकि, ईसाई मिशनरियाँ भारतीय दर्शन और आध्यात्म परंपरा की विरोधी तो थीं, पर उनके विरोध का आधार बहुत मजबूत नहीं था।
ईसाई मिशनरियों से स्वामी विवेकानन्द की भिड़ंत, उनके किशोर वय से ही शुरू हो गयी थीं। आगे चल कर जब वे, अमेरिका और इंग्लैण्ड गए तो, वहां भी उनका कुछ ईसाई मिशनरियों ने विरोध किया, पर विवेकानंद का भारतीय वांग्मय की समझ, ज्ञान, तर्क, ओज और तेज, बहस और विरोध करने वाली मिशनरियों पर भारी पड़ा।
जब 1891 में विवेकानंद अजित सिंह के संपर्क में आए तो महाराजा को स्वामी जी के पारिवारिक स्थिति की जानकारी हुई। विवेकानंद के पिता का निधन हो गया था पर उनकी माँ जीवित थीं। उनके अन्य छोटे भाई भी थे। आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। खेतड़ी नरेश ने 1891 से ही 100 रूपये मासिक धन राशि, विवेकानंद की माँ भुवनेश्वरी देवी के लिए नियत कर दी थी।
1 दिसंबर 1898 को बेलूर से स्वामी विवेकानंद ने महाराज को एक पत्र लिख कर इस धनराशि को आजीवन जारी रखने का अनुरोध किया था। यह पत्र खेतड़ी के राजकीय अभिलेखागार में आज भी सुरक्षित है।
स्वामी विवेकानंद की मृत्यु के बाद भी खेतड़ीराज से जारी रही उनकी माँ की सहायता
स्वामी विवेकानंद का निधन तो 1902 में ही हो गया था पर उनकी माता, उनकी मृत्यु के बाद भी 1911 तक जीवित रहीं। जब तक वह जीवित रहीं, खेतड़ी राज से निर्धारित धन राशि उनके उपयोग के लिये भेजी जाती रही।
महाराज स्वयं भुवनेश्वरी देवी ( 1841 - 1911 ) के नियमित संपर्क में रहे। जो पत्राचार खेतड़ी के अभिलेखागार में सुरक्षित है, उस से यह प्रमाणित होता है।
विवेकानंद ने 22 नवम्बर 1898 के लिखे एक पत्र में अजित सिंह को अपना एक मात्र मित्र कह कर उनके सहयोग और मित्रता को स्वतः स्वीकार किया है।
कैसे हुई स्वामी विवेकानंद की खेतड़ी नरेश अजित सिंह से पहली भेंट..
स्वामी जी और अजित सिंह के बीच पहली भेंट 1891 में हुई थी। 1887 में रामकृष्ण परमहंस का निधन हो गया था। नरेंद्र नाथ दत्त और इनके आठ साथी, जो परम हंस के शिष्य थे ने, संन्यास ग्रहण कर गुरु की गद्दी संभालने का निश्चय किया। यह काम 1888 में बारानागर मठ में हुआ। लेकिन विवेकानंद ने उसी साल, घुमक्कडी सन्यासी का जीवन जीने का निश्चय किया और वे भ्रमण पर निकल पड़े। वे घुमक्कडी के दौरान राजस्थान के माउंट आबू पहुंचे और शाम के समय भ्रमण करते हुए वहीं अजित सिंह से उनकी पहली और संक्षिप्त मुलाक़ात हुई। विवेकानंद थक कर पार्क में बैठे थे और अजीत सिंह वहीं टहल रहे थे। दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे। बस एक परिचय हुआ, और मुलाकात की भूमिका बनी।
विवेकानंद इसके बाद खेतड़ी नरेश से मिलने उनके उनकी रियासत खेतड़ी गए। संक्षिप्त मुलाक़ात तो संक्षिप्त और परिचयात्मक ही होती है। लेकिन, संन्यासी और नरेश के बीच लंबी मुलाकात खेतड़ी, राजमहल में ही हुई।
अपनी पुस्तक 'द मोंक ऐज़ ए मैन द अननोन लाइफ ऑफ़ स्वामी विवेकानंद' (The Monk as Man: The Unknown Life of Swami Vivekananda book about Swami Vivekananda written by Shankar) में विवेकानंद के जीवनीकार मणि शंकर मुख़र्जी (Mani Shankar Mukherjee (commonly known as Sankar in both Bengali and English-language literature) ने 4 जून 1891 में दोनों महापुरुषों के बीच हुई भेंट का रोचक और प्रमाणिक वर्णन किया है। पुस्तक के अनुसार-
"अजित सिंह सुबह साढ़े छः बजे, सो कर उठ गए थे। दिन भर अपना काम करने के बाद वे उसी शाम जोधपुर नरेश प्रताप सिंह से मिले। उनसे आधे घंटे की बातचीत के बाद जब वे थोड़ा फुरसत में हुए तो उन्हें बताया गया कि, एक सन्यासी उन से मिलने के लिए आया हुआ है। उन्होंने सन्यासी को बुलाया और पहचान लिया कि, यह तो वही साधु हैं, जिनसे वे, थोड़े समय के लिए आबू में मिल चुके हैं। जब दोनों में बात हुई तो, महाराजा, सन्यासी के अंग्रेज़ी ज्ञान और वार्तालाप से बहुत प्रभावित हुए। अजित सिंह को महसूस हुआ कि, सन्यासी अंग्रेज़ी ही नहीं, बल्कि संस्कृत और बांग्ला भी धाराप्रवाह बोल सकता है। तब तक अजित सिंह को विवेकानंद के बंगाली होने का कोई संज्ञान नहीं था। अजित सिंह और सन्यासी में सभी विषयों पर गंभीरता से बातचीत हुई। फिर दोनों ने साथ-साथ भोजन ग्रहण किया और वार्तालाप का सिलसिला रात के 11 बजे तक चलता रहा। रात 11 बजे वह सन्यासी, खेतड़ी के राज प्रासाद से विदा होता है। वह सन्यासी कोई और नहीं बल्कि विवेकानंद थे।"
दोनों ने इस लंबी आत्मीय भेंट में एक दूसरे को प्रभावित किया और एक ऐतिहासिक मित्रता का प्रारंभ हुआ।
एक घुमक्कड़ सन्यासी थे स्वामी विवेकानंद
सन्यासी तीन रातों से अधिक एक स्थान पार कभी और कहीं नहीं रुकते हैं। ऐसा विधान संभवतः किसी स्थान, वस्तु या मित्र से, मोह न उपज जाय, इस लिए रखा गया होगा। पर स्वामी विवेकानंद का खेतड़ी प्रवास (Khetri stay of Swami Vivekananda) इस नियम का अपवाद सिद्ध हुआ। वह खेतड़ी में 4 जून 1891 से 27 अक्टूबर 1891 तक रहे। किसी एक स्थान पर यह उनका, तब तक का सबसे लंबा प्रवास रहा।
स्वामी विवेकानंद पगड़ी क्यों बांधते थे ? विवेकानंद की पगड़ी कैसे पहचान बनी ?
वैसे भी जून का महीना गर्मी का होता है, ऊपर से राजस्थान की गर्मी तो विकट ही होती है। धूल भरी गरम हवाएँ और दोपहर की लू स्वामीजी को बेचैन कर देती थी। वे ठहरे बंगाल के, जहाँ गर्मी बहुत नहीं पड़ती थी और पड़ती भी थी तो बारिश हो जाती थी। विवेकानंद को धूप, धूल और ताप से बचने के लिए खेतड़ी नरेश ने राजस्थानी पगड़ी या साफा बाँधने की सलाह दी। विवेकानंद ने साफा बांधना वहीं सीखा और आगे चलकर वही साफा, स्वामी विवेकानंद की पहचान (Identity of Swami Vivekananda,) बन गया। राजपूती शान और ढंग से बंधा साफा विवेकानंद के सुन्दर और ओजस्वी व्यक्तित्व पर फबता भी बहुत था। उन्होंने राजस्थानी रीति रिवाजों का अध्ययन भी किया और अपने भाषणों और लेखों तथा पत्रों में इसका स्थान-स्थान पर उल्लेख भी किया है।
खेतड़ी नरेश अजित सिंह से स्वामी विवेकानंद की दूसरी मुलाकात और विश्व धर्म संसद का इतिहास
दोनों महानुभावों के बीच 1893 में दूसरी बार मुलाकात हुई थी। अमेरिका के शिकागो में, प्रथम विश्व धर्म संसद ( 1893 World’s Parliament of Religions ) का अधिवेशन होने वाला था। अपनी तरह का यह अनोखा आयोजन था। औद्योगिक क्रान्ति के बाद दुनिया में एक नए तरह का साम्राज्यवाद पनप रहा था। पहले साम्राज्य विस्तार का एक मुख्य साधन, युद्ध ही हुआ करता था। बाद में साम्राज्यवाद का चेहरा बदला और वह व्यापार हो गया। इन सब के बीच धर्म की अपनी भूमिका थी ही। जब सभी धर्मों में आपसी संपर्क बढ़ने लगा तो, दार्शनिक वैचारिक आदान प्रदान की पीठिका भी तैयार हुई। इसी क्रम में धर्म संसद के आयोजन की भूमिका तैयार हुई।
अमेरिका के शहर शिकागो में विश्व कोलंबियन एक्सपोज़िशन (Columbian Exposition in Chicago) का आयोजन किया गया था। इस अवसर पर वहाँ अनेक सभाएं और सम्मलेन जो विविध विषयों पर आयोजित थे संपन्न किये गए। उन्हीं सम्मेलनों में एक आयोजन विश्व धर्म संसद का भी था।
शिकागो में जो वृहद् मेला लगा उसमें सबसे अधिक आकर्षण और भीड़, धर्म संसद में ही हुई थी। इस संसद की जनरल कमेटी के अध्यक्ष एक ईसाई पादरी जॉन हेनरी बारोस चुने गए थे।
इस धर्म संसद के अधिवेशन का शुभारम्भ 11 सितम्बर 1893 को वर्ल्ड कांग्रेस आक्ज़िलरी बिल्डिंग जिसमे अब शिकागो का आर्ट इंस्टिट्यूट है, में संपन्न हुआ था।
विवेकानंद को निरुत्तर कर दिया एक नर्तकी ने
अजित सिंह ने इसी धर्म संसद में भाग लेने के लिए विवेकानंद को प्रोत्साहित किया। विवेकानंद की खेतड़ी नरेश से दूसरी भेंट के समय एक रोचक घटना का भी विवरण मिलता है।
जब विवेकानंद खेतड़ी में रह रहे थे तो, एक दिन उन्हें खेतड़ी राज दरबार में नृत्य देखने का निमंत्रण मिला। दरबार में अक्सर नृत्य का आयोजन होता रहता था। राजदरबार में, विभिन्न नर्तकियों के नृत्य और अन्य संगीत का आयोजन किया गया था।
वे एक सन्यासी हैं यह कह कर विवेकानंद ने इस प्रकार के नृत्य के आयोजनों में भाग लेने और दरबार में जाने से मना कर दिया। अजित सिंह तो मान गए, परन्तु वह राज नर्तकी नहीं मानी। उसने स्वयं विवेकानंद से अनुरोध किया कि, वह उसका गाया और नर्तन पर आधारित एक भजन सुनने की कृपा करें।
स्वामी जी समारोह में गए। नर्तकी ने उनसे कहा कि, "जब सब कुछ ईश्वर की कृति है तो, वह भी तो उसी की रचना है उसमें भी तो ईश्वर का ही अंश है।"
विवेकानंद को वेदांत की यह चुनौती पूर्ण व्याख्या निरुत्तर कर गयी। वे मुस्कुरा कर रह गए। नर्तकी ने सूरदास का अत्यंत प्रदिद्ध भजन, "प्रभु मेरे अवगुन, चित न धरो" गाया। अद्भुत स्वर से गाया हुआ यह भजन विवेकानंद को स्तब्ध कर गया। विवेकानंद खुद एक भजन गायक थे। उन्होंने कहा कि संसार में जो है वह सब उसी ईश्वर का ही प्रतिरूप है। उन्होंने नर्तकी को माँ कह कर संबोधित किया और सबको आशीर्वाद दे कर दरबार से विदा हुए। उस रात उस नर्तकी ने केवल भजन ही गाया।
विश्व धर्म संसद में जाने का विवेकानंद ने निश्चय किया और अजित सिंह को अपने निश्चय से, अवगत भी करा दिया। अजित सिंह ने कहा कि, "अगर आप उस धर्म संसद में जा रहे हैं तो आप हिन्दू धर्मं और भारत का प्रतिनिधित्व कीजिए और संसार के सामने इस महान धर्म की देन और विरासत को प्रस्तुत कीजिए।"
विवेकानंद के शिकागो आने-जाने और रहने का सारा व्यय सहर्ष वहन करने का वचन भी खेतड़ी नरेश ने दिया। धर्मसंसद में विवेकानंद के जाने की योजना उनके मद्रास यात्रा के दौरान ही बनी थी। पर वे थोड़े ऊहापोह में भी थे।
अपने मित्र हरिदास विहारीदास देसाई को मई 1893 में विवेकानंद ने जो पत्र लिखा है उस से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी जी की दूसरी खेतड़ी यात्रा और प्रवास, धर्म संसद की भूमिका ही थी। पत्र में वे लिखते हैं,
"आप को तो पता ही है कि शिकागों की धर्म संसद में जाने का मेरा मन था। जब मैं मद्रास में था तभी मैंने इस आयोजन की बात सुनी और जाने का मन बनाया। यह बात जब महाराजा मैसूर को ज्ञात हुई तो उन्होंने भी मुझे जाने के लिए उत्साहित किया और व्यवस्था करने का आश्वासन दिया। लेकिन जैसा कि आप जानते हैं, खेतड़ी के महाराजा से मेरा स्नेह, मित्रता तथा अत्यंत आत्मीय सम्बन्ध है। मैंने, उन्हें भी, शिकागो जाने की अपनी इच्छा से अवगत कराया। उन्होंने, मुझसे अमेरिका जाने के पूर्व एक बार खेतड़ी आने और रहने का आग्रह भी किया। ईश्वर की कृपा से अजित सिंह को पुत्र रत्न की भी प्राप्ति भी हुई है। उन्होंने राजकुमार को आशीर्वाद देने का भी अनुरोध किया। यही नहीं उन्होंने अपने निजी सचिव को स्वयं मुझे लेने के लिए मद्रास भेजा।"
इसके बाद विवेकानंद खेतड़ी जाते हैं यह उनकी दूसरी भेंट की भूमिका थी। इसके बाद दिसंबर 1897 में स्वामी जी तीसरी और अंतिम बार खेतड़ी आते हैं। अपने अमेरिका प्रस्थान हेतु बम्बई से एक दिन पूर्व 9 मई को वे राज महल के रनिवास में अजित सिंह के नवजात पुत्र जय सिंह को आशीर्वाद देने के लिए भी गए।
विवेकानंद ने 10 मई 1893 को खेतड़ी से बम्बई के लिए प्रस्थान किया। अजित सिंह ने अपने एक अत्यंत विश्वासपात्र कर्मचारी मुंशी जगमोहन लाल को, विवेकानंद के बम्बई में प्रवास करने और अमेरिका के लिए प्रस्थान करने तक, सारी व्यवस्था करने के लिए खेतड़ी से साथ भेजा। अजित सिंह स्वयं, स्वामी जी को छोड़ने के लिए उनके साथ जयपुर तक आए। जब स्वामी जी बोस्टन पहुँच गए तो, अजित सिंह ने उनके अमेरिका में होने वाले व्यय के लिए अमेरिकन डॉलर भेजे।
जब अमेरिका में चोरी हो गई
अमेरिका में जाते ही विवेकानंद के साथ एक दुर्घटना घट गयी। विवेकानंद का कुछ सामान और डॉलर चोरी हो गए। कहा जाता है यह, ईसाई मिशनरियों के कुछ दुष्ट पादरियों के इशारे पर की गयी चोरी थी। उन्हें अचानक धन की आवश्यकता पड़ी। उन्होंने यह बात मुंशी जगमोहन लाल को बतायी और तब अजित सिंह ने उन्हें तार से तत्काल 150 डॉलर भेजा। अजित सिंह स्वामी जी के अमेरिका प्रवास के दौरान लगातार उनके संपर्क में बने रहे।
एक अन्य रोचक विवरण इसी सन्दर्भ में मिलता है। विवेकानंद सन्यासी थे और स्वभावतः मितव्ययी भी थे। खेतड़ी नरेश ने उन्हें अमेरिका के टिकट के लिए जो धन दिया था, उस से उन्होंने सामान्य दर्ज़े का टिकट लिया। सामान्य दर्ज़ा में डॉरमेट्री होती थी। सब को एक साथ ही रहना होता था। खान पान की व्यवस्था भी बहुत अच्छी नहीं होती थी। जब जगमोहन लाल को यह बात पता चली तो, स्वामी जी से तो उन्होंने कुछ नहीं कहा। परन्तु यह बात उन्होंने महाराज को बता दी। खेतड़ी नरेश ने तत्काल सामान्य टिकट वापस करा कर पहले दर्ज़ा का टिकट उनको दिलवाया। स्वामी जी के आपत्तिं करने पर अजित सिंह ने तार से अनुरोध किया कि, "केबिन में आप को स्वाध्याय और ध्यान आदि करने की सुविधा रहेगी।" तब जा कर स्वामी जी पहले दर्ज़े में यात्रा करने के लिए सहमत हुए।
अमेरिका से स्वामी विवेकानंद अजित सिंह को नियमित पत्र लिखते रहते थे। अजित सिंह भी उन्हें नियमित उत्तर देते हुए उनका उत्साह वर्धन करते रहे।
अपनी तीसरी और अंतिम खेतड़ी यात्रा में स्वामी जी ने 17 दिसंबर 1897 को खेतड़ी में अपने अभिनन्दन में आयोजित एक समारोह में अजित सिंह से अपनी मित्रता और सदाशयता का आभार व्यक्त करते हुए कहा,
"मैंने भारत और हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए जो कुछ भी थोड़ा बहुत किया है, वह संभव भी नहीं हो पाता अगर मेरी मित्रता खेतड़ी नरेश से न हुई होती तो। "
पुनः वह 11 अक्टूबर 1897 को मुंशी जगमोहन लाल को लिखे एक पत्र में अपने और अजित सिंह के संबंधों के बारे में उल्लेख करते हैं,
"Certain men are born in certain periods to perform certain actions in combination. Ajit Singh and myself are two such souls—born to help each other in a big work for the good of mankind.… We are as supplement and complement."
(कुछ लोग निश्चित अवधि में कुछ कार्यों को एक साथ करने के लिए पैदा होते हैं। अजीत सिंह और मैं दो ऐसी आत्माएं हैं - मानव जाति की भलाई के लिए एक बड़े काम में एक दूसरे की मदद करने के लिए पैदा हुए हैं। ... हम पूरक एक दूसरे के पूरक हैं।)
खेतड़ी नरेश महाराजा अजित सिंह से स्वामी विवेकानंद की तीसरी भेंट
1897 तक स्वामी जी की प्रसिद्धि बहुत बढ़ गयी थी। अमेरिका में उन्होंने वेदांत की विधिवत शिक्षा देना शुरू कर दिया था और विविध विषयों पर व्याख्यान देने का क्रम भी बढ़ा दिया था। भारतीय इतिहास और संस्कृति के बारे में लॉर्ड मैकाले के चश्मे से देखने वाले ईसाई पादरियों की जमात भारतीय दर्शन की मेधा, तर्क शक्ति और विराट फलक को देख कर अचंभित भी थी, पर ईर्ष्या का अतिरेक जो उनमें शासक होने के नाते भरा पड़ा था, से वे मुक्त भी नहीं हो पा रहे थे। शास्त्रार्थ और आ नो भद्रा कृतवो यन्तु विश्वतः की परम्परा और दर्शन जो भारतीय दर्शन की मूल आत्मा में विद्यमान था, ने तर्क और विचार विमर्श में, स्वामी विवेकानंद को कभी पराजित नहीं होने दिया। उन्हें व्याख्यानों के लिए धन भी मिलने लगा। उनकी आर्थिक स्थिति भी सुधरने लगी। पूरे अमेरिका में उनके व्याख्यान स्थान-स्थान पर आयोजित होने लगे थे। अजित सिंह जी भी उन्हें अमेरिका भेज कर उनसे दूर नहीं हो पाये थे। वे पत्रों और तार द्वारा स्वामी जी के निरंतर संपर्क में रहते थे. 1897 में उन्होंने विवेकानंद को अनेक पत्र भेजे और भारत आने पर खेतड़ी आने और कुछ दिन साथ रहने का निमन्त्रण भी दिया।
स्वामी जी 1897 में भारत में आ भी गए थे। वे जब देहरादून थे तभी उन्हें खेतड़ी नरेश का सन्देश मिला कि "वे खेतड़ी का कार्यक्रम बना लें। महाराज उनका खेतड़ी में सार्वजनिक अभिनन्दन करना चाहते हैं।"
वे देहरादून से दिल्ली, अलवर, और जयपुर होते हुए खेतड़ी पहुंचे। अपने महल से 12 मील यानी 19 किलोमीटर दूर जा कर अजित सिंह ने विवेकानंद का स्वागत किया। खेतड़ी तक जुलूस के रूप में विवेकानंद आए। महल के सभी कर्मचारियों और दरबारियों ने चाँदी के दो-दो रूपये के सिक्के स्वामी जी का चरण स्पर्श कर उन्हें प्रदान किये। इस प्रकार कुल 3000 सिक्के विवेकानंद को खेतड़ी के कर्मचारियों की ओर से भेंट में दिए गए थे।
विवेकानंद ने सार्वजनिक रूप से एक समारोह में 17 दिसंबर 1897 को खेतड़ी रियासत और महाराजा अजित सिंह का आभार प्रगट किया. उन्होंने इस अवसर पर कहा,
"it would not have been possible for me to do what little I have done for India but my friendship with Khetri's Maharaja."
(मैने, भारत के लिये, थोड़ा बहुत जो कुछ भी किया है, खेतड़ी के महाराजा के साथ, मेरी दोस्ती के बिना वह करना मेरे लिए संभव ही नहीं था।)
20 दिसंबर 1897 को खेतड़ी में विवेकानंद का वेदांत दर्शन और राज योग पर एक लंबा व्याख्यान हुआ। इस में अगल बगल की रियासतों के विद्वानों के अतिरिक्त कुछ यूरोपीय विद्वान् भी सम्मिलित हुए। जो कुछ भी अजित सिंह ने अपने मित्र विवेकानंद के लिए किया था, विवेकानंद ने भी उस मित्रता और आत्मीयता का मान जीवन पर्यन्त रखा।
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खेतड़ी रियासत द्वारा विवेकानंद के परिवार को 1891 से नियमित सहायता दी जाती रही। 100 रूपये की एक निश्चित धन राशि, विवेकानंद के परिवार के लिए निश्चित की गयी थी। 1 दिसंबर 1898 को विवेकानंद ने बेलूर से अजित सिंह को पत्र लिख कर यह धनराशि नियमित रूप से भेजने का अनुरोध किया था। विवेकानंद को संभवतः यह आभास था कि वे अपनी माता से पहले संसार छोड़ेंगे अतः वे चाहते थे कि यह धन राशि नियमित रूप से उनकी माता भुवनेश्वरी देवी के व्यय के लिए भेजी जाय , ताकि विवेकानंद के निधन के बाद भी भुवनेश्वरी देवी को कभी अर्थाभाव न हो सके। अपने पत्र में विवेकानंद ने लिखा था,
"One thing more will I beg of you — if possible, the 100 Rs. a month for my mother be made permanent, so that even after my death it may regularly reach her. Or even if your Highness ever gets reasons to stop your love and kindness for me, my poor old mother may be provided remembering the love you once had for a poor Sâdhu."
(एक बात और। मैं आप से, भिक्षा माँगता हूँ - यदि संभव हो तो, मेरी माँ के लिए 100 रुपये प्रति माह स्थायी रूप से भेजे जाएँ, ताकि मेरी मृत्यु के बाद भी, यह नियमित रूप से उनके पास पहुँचे। और मेरे लिए आप की यह कृपा, मेरी गरीब बूढ़ी माँ और, एक अकिंचन साधु के लिए आप के स्नेह को याद करते हुए प्रदान किया जा सकता है।)
अजित सिंह ने विवेकानंद के अनुरोध और अपने प्रदत्त वचन का सम्मान जीवनपर्यंत किया तथा जीवन पर्यन्त वे 100 रुपये की धनराशि विवेकानंद की माँ भुवनेश्वरी देवी को भेजते रहे। इतिहास के शोधार्थियों ने इस धन राशि की कीमत के आज के अनुसार 20,000 रुपये आंकी है।
मणि शंकर मुख़र्जी, जो स्वामी विवेकानंद के जीवनीकार थे, अपनी उपरोक्त प्रसिद्ध पुस्तक में इस आर्थिक सहायता पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि,
"यह एक आर्थिक सहयोग ही नहीं था, न ही यह किसी राजा का किसी ज़रुरतमंद प्रजा के लिए दी गयी राज्याश्रित सहायता थी। यह एक मित्र का मित्र और उसके परिवार के लिए दी गयी सहायता थी। एक शिष्य ( अजित सिंह ) की अपने शिक्षक और गुरु ( विवेकानंद ) के लिए दी गयी गुरुदक्षिणा थी।"
अजित सिंह जब तक जीवित रहे यह सहायता गोपनीय ही रही। केवल राज्य के कुछ ही अधिकारियों को इसकी जानकारी थी। धनराशि बेलूर मठ के नाम भेजी जाती थी। जहां से विवेकानंद के गुरु भाई शरत महाराज, योगेन महाराज, उस धनराशि को उनकी माता भुवनेश्वरी देवी को भेज दिया करते थे। इस बात का उल्लेख स्वयं विवेकानंद के भाई महेँद्रनाथ दत्त ने अपनी पुस्तक में किया है। विवेकानंद के परिवार के साथ महाराजा अजित सिंह का जो पत्र व्यवहार हुआ है, वह सब खेतड़ी रियासत के अभिलेखागार में सुरक्षित है। उसके अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि अजित सिंह ने न केवल स्वामी जी के परिवार की आर्थिक सहायता ही की बल्कि एक योग्य अभिभावक की तरह उनके भाइयों के शिक्षा आदि की भी व्यवस्था की. विवेकानंद के अनुज महेँद्रनाथ दत्त से वे अक्सर परिवार का कुशल क्षेम लेते रहते थे।
1958 में खेतड़ी में अजित सिंह के पौत्र बहादुर सरदार सिंह के द्वारा दान में दिए गए एक महल जिसमें स्वामी जी अपने खेतड़ी प्रवास के दौरान निवास करते थे, में राम कृष्ण मिशन की स्थापना हुई। इस महल को विवेकानंद मंदिर नाम दिया गया। इस में विवेकानंद और अजित सिंह की संगमरमर की दो प्रतिमाएं लगी हैं। एक राजा और एक साधु की यह अद्भुत और ऐतिहासिक मित्रता थी।
विजय शंकर सिंह
Unique friendship of Swami Vivekananda and Khetri King Ajit Singh: Vijay Shankar Singh
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