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बादल सरोज संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा सम्पादक लोकजतन
Who are Udaipur killers?
उदयपुर में टेलर कन्हैयालाल की गला काटकर हत्या (Tailor Kanhaiya Lal murder by slitting his throat in Udaipur) करते हुए खुद ही उसका वीडियो बनाने वाले मोहम्मद रियाज अत्तारी के भाजपा का "समर्पित" कार्यकर्ता और राजस्थान विधानसभा में इसके नेता प्रतिपक्ष, पूर्व गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया का नजदीकी निकलने की खबर अभी चल ही रही थी कि जम्मू कश्मीर के रियासी जिले में गाँव वालों द्वारा पकड़े गए लश्कर-ए-तैयबा के कथित आतंकी तालिब हुसैन के भाजपा की आई टी सैल का मुखिया होने की जानकारी (Information about Lashkar-e-Taiba's alleged terrorist Talib Hussain being the head of BJP's IT cell) सामने आ गयी। दोनों ही मामलों में भाजपा ने इनसे अपने संबंधों का खंडन नहीं किया है - अगर मगर करके बला टालने की वैसी कोशिश जरूर की है जैसी नाथूराम गोडसे को लेकर उनका मात-पिता संगठन आरएसएस करता रहा है।
यहां सवाल उदयपुर के हत्यारे और जम्मू कश्मीर के आतंकी की भाजपा से संबद्धता का नहीं है, वह पूरी तरह प्रमाणित हो चुका है। यहाँ मुद्दा उन भोले भारतवासियों का है जो पिछले दो दिनों से इन खुलासों पर हैरत में पड़े हुए हैं, आश्चर्य जता रहे हैं। लगता है वे न आरएसएस-भाजपा को जानते हैं ना ही फासिस्टों की कार्यशैली के बारे में उन्हें कोई अंदाजा है।
यह पहला अवसर नहीं है। दुनिया भर के फासिस्टों की तरह भारतीय वैरायटी के फासिज्म - हिंदुत्व - वाले कुनबे का भी काम करने का तरीका है। साजिश रचना, उन्माद फैलाने के लिए षड़यंत्र रचना, हिंसा और हत्याएं कराना और अपना अजेंडा आगे बढ़ाना। इसके लिए इधर भी और उधर भी अपने मोहरे फिट करना। हिटलर इस विधा के आदि-पुरुष हैं।
वही अडोल्फ हिटलर (Adolf Hitler), जो दुनिया की अब तक की सबसे बड़ी जंग और उसमे हुयी 5 करोड़ इंसानो की मौत का जिम्मेदार था। वही हिटलर, जिसे और मुसोलिनी को आरएसएस के संस्थापकों ने लिखापढ़ी में, एलानिया अपना आदर्श माना, आज भी जिसे दुनिया और खुद उसकी जर्मनी घृणा और नफ़रत से देखती है उसे गुजरात के स्कूलों के पाठ्यक्रमों में शामिल किया।
इस हिटलर को जब जर्मनी के चुनावों में पूरा बहुमत नहीं मिला तो उसने तिकड़म से तब के राष्ट्रपति के साथ मिलकर पहले जर्मनी के चांसलर का पद हथियाया, फिर ठीक एक महीने बाद 27 फरवरी 1933 को जर्मन संसद - राइख़्स्टाग - में आग लगवाकर उसका दोष कम्युनिस्टों पर मढ़ दिया। सारे कम्युनिस्ट सांसदों सहित पूरे देश के कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गए। इसके बाद चुनाव कराये और विपक्ष की गैरमौजूदगी का फायदा उठाकर बहुमत हासिल कर लिया। उसके बाद जो हुआ वह सारी दुनिया ने भुगता; हिरोशिमा नागासाकी की चौथी और पांचवी पीढ़ी आज तक भुगत रही है।
कथित रूप से आग लगाने के जुर्म में पकड़े गए कम्युनिस्टों का क्या हुआ ? हिटलर के जमाने में ही अदालतों ने उनके खिलाफ लगे आरोपों को झूठा बताते हुए बाइज्जत बरी कर दिया था।
हिटलर के खात्मे के बाद युद्ध अपराधियों के खिलाफ हुयी सुनवाइयों (Hearings against war criminals were held after the elimination of Hitler) में एस एस के नाम से काम करने वाले हिटलर के तूफानी दस्ते के लोगों ने स्वीकारा किया कि राइख़्स्टाग में आग (fire in reichstag) उन्हीं ने लगाई थी और यह सुनियोजित नाज़ी षड़यंत्र का हिस्सा थी।
इसलिए राजस्थान के उदयपुर और कश्मीर के रियासी के खुलासों पर हैरत में नहीं पड़ना चाहिए। यह भी एक पूर्वनियोजित साजिश का हिस्सा हो सकता है।
दुनिया भर में हिटलर गुरुकुल दीक्षितों की तरह उसके इधर वाले पटु शिष्यों की मोडस ऑपरेंडी यही रही है। गोधरा में 27 फरवरी को घटी जघन्य घटना को लेकर एकाधिक कमीशन उसके इस तरह के पहलू उजागर कर चुका है। हरेन पांड्या की पत्नी चीख-चीख कर अपनी बात आज भी कह रही है। सोहराबुद्दीन और तुलसीराम प्रजापति के साथ किन-किन की नजदीकियां थीं, यह बात सार्वजनिक हो चुकी है।
पुलवामा में क्या हुआ (what happened in pulwama) इसकी आज तक कोई खोजखबर नहीं है - उसके नाम पर चुनाव जरूर जीत लिया गया। यह अकेले या अलग थलग मामले नहीं हैं। यह एक ग्रांड प्रोजेक्ट है। इसमें जानबूझकर समय-समय पर आतंकी हमलों की अफवाहें (rumors of terrorist attacks) फैलाई जाती हैं। तवे को गर्म रखने के लिए देश के बड़े नेताओं को मारने के लिए मरजीवड़े दस्तों की रवानगी की खबरे उड़ाई जाती रहती हैं। वक्तन-य-वक्तन "देशद्रोही" भी पकडे जाते रहते हैं। प्रायोजित खबरों और संघ-नियंत्रित आईटी सेल के जरिये देश के बुद्धिजीवियों के खिलाफ माहौल बनाया जाता है, समुदाय विशेष के खिलाफ जहर उगला जाता है। महीनों तक ऐसा चलता है, उसके बाद फिर कोई नया प्रपंच रच कर यही पैटर्न दोहराया जाता है।
ऐसे मामलों में अदालतों में हुए फैसले किसी अखबार की खबर नहीं बनते।
मोदी के सरकार में आने के बाद 2014 से 2020 तक देशद्रोह की धारा (आईपीसी की धारा 124A) में 399 मुकदमे कायम हुए। जिस 2019 में सबसे ज्यादा मुकदमे बनाये गए उस वर्ष में इन प्रकरणों में दोषी पाए जाने तथा सजा सुनाये जाने की दर सिर्फ 3 प्रतिशत थी। झूठे मुकद्दमे खबर बनते हैं उनका झूठा और फर्जी साबित होना खबर नहीं बनता।
बाबा साहेब आंबेडकर के पौत्र दामाद, हमारे कालखण्ड के प्रामाणिक विद्वान डॉ आनंद तेलतुम्बडे अपने साथियों के साथ "नेताओं की हत्या की साजिश रचने वाले गिरोह से संबद्ध होने और आतंकी तथा राष्ट्रद्रोह" की धाराओं में दो वर्ष से जेल में हैं।
हर सप्ताह खबर आती रहती है कि किस तरह कोई 10, कोई 16 तो कोई 18 वर्ष की जेल काटकर बाइज्जत बरी होकर बाहर आया है। उसकी रिहाई छोटी सी खबर बनकर रह जाती है। उसकी गिरफ्तारी के वक़्त भड़काया उन्माद असर कर चुका होता है।
आजादी के बाद जबलपुर से लेकर हाल में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों तक भारत में हुए साम्प्रदायिक दंगों का एक ही पैटर्न है जिसे जमशेदपुर में 1979 की अप्रैल में हुए दंगों की जांच के लिए बने हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस जितेंद्र नारायण कमीशन की जांच रिपोर्ट में दर्ज किया गया था। तीन दिन तक चले इस दंगे में 120 लोगों की मौतें रिकॉर्ड की गयी थीं, असल मौतें इससे दोगुनी होने की बात कही जाती रही है।
जस्टिस जितेंद्र नारायण ने कहा था कि "इन दंगों को आरएसएस ने करवाया और भड़काया था।"
इस आयोग ने तत्कालीन आरएसएस सरसंघचालक बालसाहेब देवरस और संघ से जुड़े विधायक दीनांनाथ पांडेय को नामजद जिम्मेदार ठहराया था।
रिपोर्ट इतनी स्पष्ट थी कि इसके सार्वजनिक होते ही तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेई को इन दीनानाथ पाण्डेय को पार्टी से सस्पेन्ड करने की घोषणा करने के लिए मजबूर होना पड़ा था।
1992-93 मुंबई दंगों को लेकर बने जस्टिस श्रीकृष्णा कमीशन की रिपोर्ट दुनिया के सामने है।
24 अक्टूबर 1989 को शुरू हुए और दो महीने तक चलते रहे भागलपुर के दंगों की जांच रिपोर्ट भी इसी तरह की साजिश की तरफ संकेत करती है।
अपने तमाम आपत्तिजनक पूर्वाग्रहों के बावजूद मुज़फ्फरनगर शामली के 2013 के दंगों की जस्टिस विष्णु सहाय कमीशन की रिपोर्ट की पंक्तियों के बीच पढ़ा जाए तो उसका सार भी यही है।
उत्तर-पूर्वी दिल्ली में साहिल की हत्या में गिरफ्तार सभी 16 लोग आरएसएस से जुड़े हैं।
सिर्फ दंगों में ही नहीं हाल के वर्षों में पाकिस्तान सहित विदेशों के लिए जासूसी, अवैध हथियारों और इस तरह के देशघाती अपराधों में पकड़े गए लोगों के राजनीतिक प्रोफाइल की जांच करें तो ज्यादातर मामलों में यही संघी और भाजपाई मिलेंगे। केंद्र में सत्ता हासिल करने के बाद अब इस तरह के मामलों में फंसने से बचने और उनसे निबटने का एक और रास्ता मोदी-शाह जोड़ी ने निकाला है। वह राज्य सरकारों को जांच ही नहीं करने देती, तुरंत आतंकी कनेक्शन बताकर मामले को एनआईए - नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी - को सौंप देती है; इस एनआईए का काम वही होता है जो ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स का रह गया है।
उदयपुर के कन्हैयालाल हत्याकाण्ड (Udaipur's Kanhaiyalal massacre) में महज 24 घंटों में हत्यारों की गिरफ्तारी करने के बावजूद राजस्थान पुलिस से मामला छीनकर एनआईए को दे दिया गया। मकसद गहरी जांच का नहीं है - असली जांच से बचने का है। हत्यारों के भाजपा कनेक्शन को छुपाने का है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि साम्प्रदायिकता और कट्टरताएं पारस्परिक पूरक और आपस में एक दूसरे की मददगार होती हैं।
जिनकी स्मरणशक्ति तनिक सी भी ठीक होंगी उन्हें याद होगा कि भारत में 2014 के चुनावों के पहले मोदी की जीत की कामना करने वाले पाकिस्तानी हुक्मरान और राजनेता थे। उन्होंने सही कहा था कि मोदी का जीतना पाकिस्तान के लिए फायदेमंद होगा। बाकियों की उम्मीदों पर भारत के हुक्मरानों ने भले ठंडा पानी डाल दिया हो उनकी उम्मीद पर वे जरूर खरे साबित हुए हैं।
सत्तर साल में हजारों करोड़ रूपये फूंकने और अनगिनत साजिशें रचने के बाद भी दुश्मन देश जो नहीं कर पाए वह विघटन और बिखराव इन्होंने जरूर कर दिखाया है।
ठीक यही वजह है कि उदयपुर और कश्मीर के भाजपा कनेक्शन पर हैरत दिखाने की बजाय इन बेगैरतों की करतूतों और कार्यशैली को जनता के बीच बेनकाब किया जाना चाहिए ताकि देश, उसकी एकता और सौहार्द्र के साथ साथ अमन और शान्ति बच सके।
बादल सरोज
संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा
सम्पादक लोकजतन