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शिक्षा और स्वास्थ्य की सार्वजनिक व्यवस्था को नजरंदाज करने का खामियाजा भुगत रहा है देश : अम्बरीश राय

शिक्षा अधिकार कानून की दसवीं वर्षगांठ “कोरोना वायरस” के संकट से उत्पन्न वैश्विक महमारी के साये में मनाने को मजबूर भारत Tenth Anniversary of Right to Education Act नई दिल्ली, 1 अप्रैल, 2020 आज 1 अप्रैल को शिक्षा अधिकार कानून, 2009 को लागू हुए दस वर्ष पूरे हो गए। कोरोना वायरस के कारण उत्पन्न अभूतपूर्व …

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शिक्षा अधिकार कानून की दसवीं वर्षगांठ “कोरोना वायरस” के संकट से उत्पन्न वैश्विक महमारी के साये में मनाने को मजबूर भारत

Tenth Anniversary of Right to Education Act

नई दिल्ली, 1 अप्रैल, 2020 आज 1 अप्रैल को शिक्षा अधिकार कानून, 2009 को लागू हुए दस वर्ष पूरे हो गए। कोरोना वायरस के कारण उत्पन्न अभूतपूर्व वैश्विक स्वास्थ्य संकट की इस घड़ी में देश के लाखों स्कूल बंद पड़े हैं और शिक्षा अधिकार कानून की दसवीं वर्षगांठ भी जीवन–सुरक्षा के मद्देनजर अनिवार्य इस देशव्यापी “लॉकडाउन” के साथ ही हमें मनाना है। लेकिन, साथ ही यहाँ याद करना बेहद जरूरी है कि बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा के संवैधानिक अधिकारों के क्रियान्वयन के लिए संसद से सर्वसम्मति द्वारा पारित इस कानून को जीने के अधिकार की गारंटी देने वाली सविंधान की धारा 21 के साथ जोड़ कर रखा गया है (धारा 21 ए)।

शिक्षा अधिकार कानून के आने के साथ ही देश के नागरिकों खासकर शिक्षा से दूर सामाजिक हाशिये पर मौजूद गरीब-वंचित नागरिकों की उम्मीदों को जैसे पंख लग गए थे कि अब उनके बच्चे भी सरकारी मदद से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल कर सकेंगे। मगर दस वर्षों के बाद भी यह कानून पूरी तरह लागू नहीं हो सका। यह कानून मौजूदा वक़्त में देश के 6 से 14 साल की उम्र के लगभग 25 करोड़ बच्चों की शिक्षा के न्यायपूर्ण अधिकारों की गारंटी करता है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में चल रहे 15 लाख स्कूलों में से महज 12.7 फीसदी स्कूलों में ही यह कानून लागू हो पाया है यानि कानून के लागू होने की दर प्रति वर्ष तकरीबन 1 फीसदी ही है और इस तरह शिक्षा अधिकार कानून के शत-प्रतिशत लागू होने में 90 साल और लगेंगे।

सौ वर्षों के संघर्ष के बाद हासिल शिक्षा अधिकार कानून के जमीनी क्रियान्वयन की इस बुरी हालत को लेकर निराशा जाहिर करते हुए राइट टू एजुकेशन फोरम के राष्ट्रीय संयोजक, अंबरीष राय ने कहा कि पैसे के अभाव, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने में सक्षम पूर्णकालिक व नियमित शिक्षकों की भारी कमी व आधारभूत ढांचे के संकट के साथ ही कई अन्य कारण भी इसके लिए जिम्मेदार रहे हैं मगर सर्वोपरि कानून को लागू करने में सरकारों की इच्छाशक्ति का अभाव ही मुख्य रूप से जिम्मेदार रहा है। उन्होंने कहा कि दरअसल शिक्षा और स्वास्थ्य कभी भी सरकार की प्राथमिकता में रहे ही नहीं। तभी तो 70 साल की आजादी के बाद भी हम देश की कुल आमदनी (जीडीपी) का महज 1.02 फीसद स्वास्थ्य पर और 3.4 फीसद ही शिक्षा पर खर्च कर रहे हैं। यह रकम हमारे सारे पडोसी देशों द्वारा खर्च की जाने वाली रकम से भी कम है।

विडंबना है कि हमारे देश में सरकारी अधिकारियों, सक्षम नेताओं और अमीरों के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा के अलग ढांचे मौजूद हैं, सुविधा प्राप्त अस्पताल और स्कूल,जो या तो प्राइवेट संस्थाओं/ कंपनियों द्वारा संचालित हैं या फिर सरकार द्वारा ही सरकारी फंड से अधिक आबंटन के साथ चलाये जा रहे हैं जो आम लोगों की पहुँच से बाहर हैं। और साधारण लोगों के लिए चलाये जा रहे अस्पताल और स्कूल खस्ताहाल पड़े हैं जिसका खामियाजा आज पूरा देश भुगत रहा है।

श्री राय ने कहा कि आज देशव्यापी संकट की घड़ी में सरकारी अस्पताल और सरकारी स्कूल (Government Hospital and Government School) ही मरीजों के काम आ रहे हैं। मुनाफाखोर प्राइवेट अस्पताल तो इस समय भी पैसा बनाने में जुटे हैं और प्राइवेट स्कूलों ने अभी तक अपनी इमारतें मरीजों के लिए ऑफर नहीं की हैं जबकि वे सरकार से कई तरह की छूट हासिल करते हैं। मौजूदा संकट सरकार के लिए भी एक चेतावनी है कि अगर निजीकरण को बढ़ावा देने के बजाय स्वास्थ्य और शिक्षा के सार्वजनिक ढांचे को मजबूत किया गया होता तो देश आज इतने बड़े संकट का सामना नहीं कर रहा होता। उन्होंने कहा कि हमारी हमेशा से यह मांग रही है कि बजट में शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का कम-से-कम 6 फीसदी और स्वास्थ्य पर 5 फीसदी धनराशि का आवंटन किया जाए।

श्री राय ने जानकारी देते हुए बताया कि मौजूदा स्वास्थ्य संकट से निबटने और देश के हर बच्चे को भोजन मुहैया कराने समेत उनके अन्य अधिकारों की रक्षा की मांग करते हुए आरटीई फोरम की तरफ से प्रधानमंत्री एवं मानव संसाधन मंत्रालय को एक ग्यारह सूत्री ज्ञापन भी सौंपा गया है।

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