/hastakshep-prod/media/post_banners/h6AuOTUnQYwlDzeY3ohe.jpg)
COP26 (GLASGOW CLIMATE CHANGE CONFERENCE – OCTOBER-NOVEMBER 2021)
Test of COP26: India's road challenging in the views of experts
नई दिल्ली, 20 नवम्बर। ग्लासगो में हाल में सम्पन्न सीओपी26 में निर्धारित लक्ष्य (Goals set at the recently concluded COP 26 in Glasgow) और व्यक्त संकल्पबद्धताओं की पूर्ति की कसौटी पर भारत अलग तरह की चुनौतियों को सामना कर रहा है। कोयले के चलन को चरणबद्ध ढंग से खत्म करने की राह में खड़ी बाजार की शक्तियां, दुरूह वित्तीय स्थितियां और कई अन्य कारणों से भारत के लिये सूरतेहाल अलग नजर आ रही है।
क्लाइमेट ट्रेंड्स ने सीओपी26 के निष्कर्षों को समझने और उन्हें खंगालने के लिए शुक्रवार को एक वेबिनार आयोजित किया।
इस दौरान सीओपी के बाद उसके प्रभाव तथा भारत किस तरह से निम्न कार्बन युक्त भविष्य अपना सकता है, इसके उपायों पर चर्चा की गई।
निश्चित रूप से चर्चा का प्रमुख केन्द्र है कोयला
डब्ल्यूआरआई इंडिया में जलवायु कार्यक्रम की निदेशक (Director of Climate Program at WRI India) उल्का केलकर ने कोयले के चलन को चरणबद्ध ढंग से तिलांजलि देने की सम्भावनाओं और इसकी राह में बाधा बन रही बाजार की शक्तियों एवं अन्य कई पहलुओं का जिक्र करते हुए कहा कि भारत की विकास संबंधी चुनौतियों और जलवायु से जुड़ी रणनीतियों को सिर्फ कोयले तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता, मगर कोयला निश्चित रूप से चर्चा का प्रमुख केन्द्र है।
कोयले से बनने वाली बिजली के मुकाबले अक्षय ऊर्जा अब अधिक किफायती
उन्होंने कहा
‘‘हम मानते हैं कि अक्षय ऊर्जा अब कोयले से बनने वाली बिजली के मुकाबले अधिक प्रतिस्पर्धी और किफायती हो गए हैं लेकिन बाजार की शक्तियां हमें 500 गीगावाट स्थापित अक्षय ऊर्जा क्षमता की तरफ नहीं ले जा रही हैं। यह बहुत महत्वाकांक्षी लक्ष्य है इस बारे में कुछ भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि ऐसा कुछ होगा। वर्ष 2030 तक हमारी कुल ऊर्जा उत्पादन क्षमता का 57% गैर जीवाश्म ईंधन स्रोतों से होगा मगर हम भारत द्वारा कोयले के आयात पर किए जाने वाले खर्च पर नजर डालें तो यह इस वक्त एक लाख करोड़ प्रतिवर्ष से कुछ नीचे है जो 2030 तक तीन लाख करोड़ तक पहुंच सकता है।
India's growing energy needs need to be met.
उन्होंने कहा कि भारत की बढ़ती ऊर्जा संबंधी आवश्यकताओं को पूरा किए जाने की जरूरत है। भारत की अर्थव्यवस्था के बढ़ते विद्युतीकरण में डीकार्बनाइजेशन (decarbonization) की कुंजी छुपी है। जरूरी यह है कि हम जितना विद्युतीकरण आगे बढ़ाएं वह बिजली अक्षय ऊर्जा स्रोतों से ही आनी चाहिए। बढ़ते हुए विद्युतीकरण को एक खतरे के तौर पर नहीं बल्कि डीकार्बनाइजेशन के एक अवसर के तौर पर देखा जाना चाहिए।
उल्का ने कहा कि वर्ष 2022 भारत के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण वर्ष होने जा रहा है। सीओपी26 में सभी देशों को पेरिस समझौते के अनुरूप तापमान संबंधी लक्ष्य हासिल करने के लिए अपने अपने अपडेटेड नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशंस प्रस्तुत करने को कहा गया है। साथ ही उनसे यह भी कहा गया है कि वे अपनी उम्र दीर्घकालिक योजनाओं को भी सामने रखें जिन्हें अब तक अभी तक सामने नहीं रखा गया है और आर्टिकल 6 के विभिन्न नियमों को अंतिम रूप दिए जाने के साथ 2013 को कट ऑफ इयर माना गया है। अब भारत वर्ष 2013 से विभिन्न परियोजनाओं से सीडीएम क्रेडिट को बेच सकता है। अब हमारे पास 4 मिलीयन कार्बन क्रेडिट है हालांकि इसकी एलिजिबिलिटी अभी तय होना बाकी है।
सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (Center for Research on Energy and Clean Air) के विश्लेषक सुनील दहिया ने कहा कि अगर इस बात पर गौर करें कि कोयला आधारित ऊर्जा क्षमता को चरणबद्ध ढंग से समाप्त करना भारत के लिए कितना आसान या मुश्किल है तो यह देखना होगा कि खासकर वर्ष 2030 तक 500 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने के लक्ष्य के हिसाब से वर्ष 2030 में भी हम कोयले से उतनी ही बिजली बना रहे होंगे जितनी आज बना रहे हैं। इसका मतलब यह है कि अक्षय ऊर्जा स्रोतों से हम बिजली की मांग को 100 प्रतिशत पूरा नहीं कर सकते। आने वाले चार-पांच सालों में कोयले का उपभोग भी बढ़ेगा। उसी तरह कोयले से चलने वाले कुछ बिजलीघर जो कि निर्माण के दौर से गुजर रहे हैं, जब संचालित होने लगेंगे तब बिजली की स्थापित क्षमता में भी वृद्धि होगी। सरकार का कहना है कि कोयले से बनने वाली 45 गीगावॉट बिजली को वर्ष 2028 तक चरणबद्ध ढंग से समाप्त किया जाना है। समग्र रूप से देखें तो वर्ष 2025 तक हम शीर्ष ऊर्जा उत्पादन क्षमता हासिल कर लेंगे। उसके बाद इसमें धीरे-धीरे करके गिरावट आएगी।
उन्होंने कहा कि मौजूदा सूरतेहाल को देखते हुए भविष्य में कोयले के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने के लिये यह बहुत जरूरी है कि भारत एक मजबूत नीति और नियामक तंत्र के साथ सामने आए ताकि ऊर्जा क्षेत्र के निवेशक यह जान सके कि अगर वे कोयले से चलने वाली किसी नई परियोजना में निवेश करने जा रहे हैं तो उन्हें उनकी अपेक्षा के मुताबिक मुनाफा नहीं मिलेगा।
इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस में अर्थशास्त्री विभूति गर्ग ने क्लाइमेट फाइनेंस की वास्तविकता का जिक्र करते कहा कि विकसित देश इस मामले में 100 बिलियन डॉलर की बात कर रहे हैं जबकि जरूरत इसके लगभग छह गुना की है।
उन्होंने कहा कि वित्तीय प्रभावों के लिहाज से अगर आप भारत के मामले में सस्टेनेबल डेवलपमेंट सिनेरियो को देखें तो भारत इस वक्त करीब 40 बिलियन डॉलर का निवेश आकर्षित कर रहा है, जिसमें अक्षय ऊर्जा के साथ-साथ ट्रांसमिशन और वितरण भी शामिल है लेकिन अगर हमें एक ऐसे रास्ते पर आगे बढ़ना है जो सस्टेनेबल डेवलपमेंट सिनेरिया के अनुरूप हो तो हमें 110 बिलियन डॉलर का निवेश हासिल करना होगा लेकिन अगर हमें नेटजीरो के मार्ग पर आगे बढ़ना है तो मौजूदा परिप्रेक्ष्य के मुकाबले यह करीब तीन गुना होना चाहिए। चूंकि हमें अक्षय ऊर्जा के मौजूदा डेप्लॉयमेंट के मुकाबले तीन गुना ज्यादा कैपेसिटी डेप्लॉयमेंट बढ़ाना होगा। अगर पिछले दो-तीन सालों के मुकाबले देखें तो अक्षय ऊर्जा डेप्लॉयमेंट के मामले में वर्ष 2022 अच्छा साल होगा। हाल के महीनों में भारत ने पिछले कई सालों के मुकाबले कहीं बेहतर किया है लेकिन हमें अभी इसे बहुत ज्यादा बढ़ाना होगा।
उन्होंने कहा कि विकसित देशों की तरफ से क्लाइमेट फाइनेंस की जो प्रतिबद्धता व्यक्त की गई है। वह जरूरत के हिसाब से बहुत थोड़ी है। अगर आपको अपने जलवायु संबंधी महत्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ाना है तो 100 बिलियन डॉलर ना तो वैश्विक तापमान में वृद्धि को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए काफी है और ना ही यह नेट जीरो सिनेरियो के लिए पर्याप्त है। एक अध्ययन में की गई गणना के मुताबिक विकासशील देशों को वर्ष 2030 तक 5.9 ट्रिलियन डॉलर की जरूरत होगी। अकेले भारत को ही अपनी 500 गीगावाट अक्षय ऊर्जा उत्पादन क्षमता स्थापित करने और अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए एक ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा क्लाइमेट फाइनेंस की आवश्यकता होगी। जो इस बात को बताने के लिए काफी है कि क्या किया जाना चाहिए और क्या हो रहा है।
एशिया एम्बर में सीनियर इलेक्ट्रिसिटी पॉलिसी एनालिस्ट आदित्य लोला ने कहा कि इंसानी गतिविधियों की वजह से वैश्विक तापमान में अब तक 1.1 डिग्री सेल्सियस की औसत वृद्धि हो चुकी है। कुछ ही वर्षों पहले कोयला आधारित ऊर्जा में वृद्धि की बातें कही जा रही थीं, मगर यह उत्साहजनक है कि भारत अपने कोयला बिजली घरों को चरणबद्ध ढंग से चलन से बाहर करने की कोशिश कर रहा है। सीओपी26 में भी इस बात पर चर्चा की गई कि हम कोयले के इस्तेमाल को धीरे-धीरे कैसे बंद करें। भारत में अपने नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन को लेकर प्रतिबद्धता जाहिर की है, इसलिए अब सारी नजरें भारत पर होंगी, लिहाजा भारत को अभी से एक सुगठित और सुव्यवस्थित योजना पर काम शुरू करना होगा।
उन्होंने कहा कि इसके लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि वह अपने अल्पकालिक लक्ष्यों को पूरी तत्परता से हासिल करे। भारत के कई राज्य इस दिशा में अपेक्षित प्रगति नहीं कर पा रहे हैं। हमें इसके लिये जिम्मेदार तमाम बाधाओं को दूर करना होगा। इसके अलावा भारत को अपनी प्रदूषणकारी पुरानी परियोजनाओं को चरणबद्ध ढंग से चलन से बाहर करना होगा। मगर यह भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं से समझौता करके नहीं किया जाना चाहिए। इसके लिए उसे अपने अक्षय ऊर्जा संबंधी तमाम लक्ष्यों को मुस्तैदी से हासिल करना होगा। इसके अलावा भारत को वैश्विक बिरादरी के साथ बात करके न्याय पूर्ण रूपांतरण का रास्ता निकालना होगा।
समझदारी भरा कदम नहीं कोयला आधारित बिजली घरों पर निवेश
गुजरात एनर्जी रिसर्च एंड मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट के अक्षय ऊर्जा परामर्शदाता समूह के प्रमुख (Head of Renewable Energy Consultative Group of Gujarat Energy Research and Management Institute) अखिलेश मागल ने कहा कि आर्थिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो कोयला आधारित बिजली घरों पर निवेश करना समझदारी भरा कदम कतई नहीं है।