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Thankfully I am no longer a journalist
31 अक्टूबर 1984 को श्रीमती इंदिरा गांधी को गोली लगने पर पिताजी पुलिन बाबू अस्पताल में उन्हें देखने पहुंच गए थे। वे नारायणदत्त तिवारी के घर थे। तिवारीजी ही उन्हें अपने साथ अस्पताल से लाये थे। दिल्ली में रहकर उन्होंने भारत विभाजन का जख्म (Wound of partition of India) दोबारा दिलोदिमाग में ताजा करके घर लौटे थे। में तब मेरठ दैनिक जागरण में था और रात दिन सिखों के नरसंहार (Massacre of sikhs) से घिरा हुआ था।
मेरठ में मलियाना और हाशिमपुरा नरसंहार (मेरठ में मलियाना और हाशिमपुरा नरसंहार) के वक्त भी में मेरठ में था। पिताजी तब मेरठ मेडिकल कॉलेज में टीबी के इलाज (TB treatment in Meerut Medical College) के लिए भर्ती थे। शहर सेना के हवाले था और अस्पताल में दो चार मरीजों मेंपिताजी भी थे।
मैंने अपने पिता को भारत विभाजन का दर्द बार-बार झेलते हुए लहूलुहान होते देखा है।
इस बार पिता हमारे बीच नहीं हैं। 25 को मैं दिल्ली पहुंचा। 26 को जहांगीरपुरी से लेकर आजादपुर तक देर रात तक भतीजी कृष्णा की शादी में दौड़ता रहा। बारात को मुंबई वाली ट्रेन डाइवर्ट हो जानी की वजह से आगरा उतरकर दिल्ली आना पड़ा। 27 को विदाई थी। सुबह 9 बजे की ट्रेन थी मुंबई जाने वाली। रदद् हो गयी। बेटी, दामाद और बारात को बस से मुंबई रवाना करना पड़ा।
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जन्म 18 मई 1958
एम ए अंग्रेजी साहित्य, डीएसबी कालेज नैनीताल, कुमाऊं विश्वविद्यालय
दैनिक आवाज, प्रभात खबर, अमर उजाला, जागरण के बाद जनसत्ता में 1991 से 2016 तक सम्पादकीय में सेवारत रहने के उपरांत रिटायर होकर उत्तराखण्ड के उधमसिंह नगर में अपने गांव में बस गए और फिलहाल मासिक साहित्यिक पत्रिका प्रेरणा अंशु के कार्यकारी संपादक।
उपन्यास अमेरिका से सावधान
कहानी संग्रह- अंडे सेंते लोग, ईश्वर की गलती।
सम्पादन- अनसुनी आवाज - मास्टर प्रताप सिंह
चाहे तो परिचय में यह भी जोड़ सकते हैं-
फीचर फिल्मों वसीयत और इमेजिनरी लाइन के लिए संवाद लेखन
मणिपुर डायरी और लालगढ़ डायरी
हिन्दी के अलावा अंग्रेजी औऱ बंगला में भी नियमित लेखन
अंग्रेजी में विश्वभर के अखबारों में लेख प्रकाशित।
2003 से तीनों भाषाओं में ब्लॉग
अब मैं पत्रकार नहीं हूं। शुक्र है कि नहीं हूं। दंगा भड़काने में राजनीति का जितना हाथ है, उससे कम पत्रकारिता का नहीं है। मेरठ दंगों पर लिखे मेरे लघु उपन्यास उनका मिशन इडिपर केंद्रित है। मेरा कहानी संग्रह अंडे सेंते लोग इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित है।
घर की बड़ी बेटी का विवाह था औऱ मेरी चारों तरफ दिल्ली जल रही थी। मैं हवाओं में इंसानी गोश्त जलने की बू से परेशान था। कानों में हड्डियां छिटकने की आवाजें आ रही थीं। खून की नदियों से घिरा हुआ था।
मेरे पिता, उनकी पीढ़ी के लोग ज़िंदा होते तो उन्हें फिर भारत विभाजन का शिकार होना पड़ता। शुक्र है कि वे नहीं है।
शुक्र है कि मैं 27 को ही मौत, नफरत और दंगों की वह राजधानी पीछे छोड़ आया हूं।
फिर भी चैन नहीं है, गांव भी अब राजनीति, घृणा और हिंसा की राजधानी का सेल बन गया है।
बेहतर होता कि हम लोग भी मर जाते।
मरे नहीं है, लेकिन यकीनन मार दिए जाएंगे।
पलाश विश्वास