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Thanks God! American sovereign has preserved his conscience
एक बड़े अंतराल के बाद अमेरिका नस्लीय घटना से एक बार फिर उबल रहा है।वहां के मिनीपोलिस की एक पुलिस हिरासत में गत 25 मई को श्वेत पुलिसकर्मी डेरेक चाउविन द्वारा अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की पैर से गर्दन दबाकर हत्या किए जाने का वीडियो सामने आने के बाद से धरना-प्रदर्शनों का जो उग्र सिलसिला शुरू हुआ,उसकी चपेट में अमेरिका के 50 में से 40 राज्य आ गए हैं। प्रदर्शंनकारी लूटपाट कर रहे हैं, गाड़ियों और भवनों को आग के हवाले कर रहे हैं। इसे पिछले 52 सालों का सबसे भीषण हिंसा और नस्लीय अशांति की घटना बताया जा रहा है।
इससे पहले 1968 में मार्टिन लूथर किंग जू. की हत्या (Assassination of Martin Luther King Jr.) के बाद अमेरिका इस किस्म के हिंसक आंदोलनों के मुखातिब हुआ था।
इन हिंसक धरना- प्रदर्शनों की गंभीरता का इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि आंदोलनों की आग व्हाइट हाउस तक पहुँच चुकी है। अमेरिकी राष्ट्रपति के निवास के करीब तक पहुंचे प्रदर्शनकारियों ने जम कर आगजनी और लूटपाट की है।
यही नहीं प्रदर्शनकारियों ने अमेरिका का राष्ट्रीय झण्डा आग के हवाले करने के साथ ही, वाशिंगटन डीसी के पास मौजूद 200 साल पुराने चर्च सहित लिंकन मेमोरियल और कई अन्य राष्ट्रीय स्मारकों को क्षतिग्रस्त कर दिया है।
वहाँ स्थिति इतनी विकट हो गयी कि सुरक्षागत कारणों से राष्ट्रपति ट्रम्प को उनकी पत्नि मेलानिया ट्रम्प और बेटे को एक घंटे के लिए बंकर में ले जाना पड़ा। स्थि
ति को पूरी तरह बेकाबू होते देख राष्ट्रपति ट्रम्प ने सेना उतारने की बात कह दी है। उन्होंने इन घटनाओं को ‘डेमोक्रेटिक टेरर’ करार देते हुये कहा है, ’रविवार की रात अमेरिकन डीसी में जो कुछ हुआ, वह बेहद गलत है। मैं हजारों की संख्या में हथियारों से लैस सेना के जवानों को उतार रहा हूँ। इनका काम होगा दंगा, आगजनी, लूट और मासूम लोगों पर हमले की घटनाओं पर लगाम लगाना।‘
उधर जॉर्ज फ्लॉयड की मौत (Death of George Floyd) के खिलाफ चल रहे धरना प्रदर्शनों के समर्थन में न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया समेत विश्व के कई देशों में भी धारना- प्रदर्शन शुरू हो चुके हैं।
यही नहीं प्रदर्शनकारियों के समर्थन में पूरा हॉलीवुड भी सामने आ गया है। प्रमुख हॉलीवुड स्टुडियो डिज्नी, वार्नर ब्रदर्स, पैरामाउंट, नेटफ्लिक्स, अमेज़न और द अकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर्स ने अश्वेत समुदाय के पक्ष में एक बयान जारी किया है।
डिज्नी ने एक बयान में कहा है, ’हम नस्लवाद के खिलाफ हैं। हम समावेशी विकास का समर्थन करते हैं। हम अपने अश्वेत कर्मचारियों, रचनाकारों एवं पूरे अश्वेत समुदाय के साथ खड़े हैं। हमें एकजुट होना चाहिए और नस्लवाद के खिलाफ बोलना चाहिए।‘
बहरहाल अमेरिका में नस्लवाद की घटनाओं (Incidents of racism in america) के बाद इस किस्म का धरना प्रदर्शन नयी बात नहीं है। जब भी ऐसी कोई घटना होती है, अमेरिकी इसी तरह सड़कों पर उतरते हैं। किन्तु इस बार जो नयी बात दिखी है, वह है गोरों की बड़ी संख्या! वैसे तो वहाँ पहले भी नस्लवाद के खिलाफ गोरे अश्वेतों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उतरते रहे हैं, जिसका पिछला साक्ष्य नवंबर 2014 के फर्ग्यूशन और मई, 2015 के साउथ कैरोलिना कांड के बाद मिला था। उन दोनों नस्लीय घटनाओं से उभरे धरना-प्रदर्शनों से भी अमेरिका हिल उठा था। किन्तु मिनीपोलिस कांड के बाद नफरत भरे ट्रम्प काल में गोरे जिस अभूतपूर्व मात्रा में अश्वेतों के साथ सड़कों पर उतरे हैं, वह ऐतिहासिक है। ऐसा करके उन्होंने साबित किया है हैरियट स्टो ने वर्षों पूर्व गोरों में कालों की प्रति अपने पुरुखों के पापों का प्रायश्चित करने व सामाजिक विवेक से समृद्ध करने का महान उद्योग लिया था, उसका असर आज भी पूर्ववत है:
डॉ. आंबेडकर ने अमेरिकी गोरों के जिस सामाजिक विवेक की प्रशंसा में भूरि- भूरि पन्ने रंगे थे, वह आज बरकरार है।
काबिलेगौर है कि अमेरिकी श्वेतांगी ने हैरियट बीचर स्टो ने 1851 में ‘अंकल टॉम्स केबिन’ लिखकर गोरों में कालों के प्रति प्रायश्चित बोध भरने का जो उद्योग लिया था, उसका असर ऐतिहासिक हुआ था। उस किताब में दास-प्रथा के तहत अश्वेतों की दुर्दशा का करुण चित्र देखकर संगदिल गोरों में मानवता का झरना फूट पड़ा था। उसका ऐसा असर हुआ कि दास-प्रथा के अवसान के मुद्दे पर अमेरिका में जो ऐतिहासिक गृह-युद्ध हुआ, उसमें विवेकवान गोरों ने हाथों में उठा लिया था बंदूक, अपने ही उन भाइयों के खिलाफ, जिनमें वास कर रही थी अपने ही उन पुरुखों की आत्मा, जिन्होंने कालों का पशुवत इस्तेमाल कर मानवता को शर्मसार कर डाला था। किन्तु गृह-युद्ध के बाद दास-प्रथा की गुफा से निकलने के सौ साल बाद भी अश्वेत तमाम मानवीय अधिकारों से शून्य थे, जिसके खिलाफ मार्टिन लूथर किंग जू. ने 1960 के दशक में शांतिपूर्ण तरीके से‘ सिविल राइट्स मुव्हमेंट‘ चलाया, जो परवर्ती चरणों में दंगों का रूप अख़्तियार कर लिया।
नागरिक अधिकारों के महान नायक मार्टिन लूथर की 4 अप्रैल, 1968 को गोली मारकर हत्या कर दी गयी, जिसके फलस्वरूप वह उग्रतम आंदोलन भड़का, जिससे आज के आंदोलन की तुलना हो रही है। बहरहाल मार्टिन लूथर के जीवितावस्था में सिविल राइट्स मुव्हमेंट से उभरे दंगों पर काबू पाने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉन्सन नें जुलाई,1967 में जो कर्नर आयोग गठित किया था, उसकी रिपोर्ट उनकी हत्या के कुछ दिन पूर्व, 15 मार्च , 1968 को प्रकाशित हो गयी। उस रिपोर्ट में सुझाए दिशा निर्देशों का अनुसरण करते हुये जॉन्सन नें वंचित नस्लीय समूहों को राष्ट्र के संपदा - संसाधनों में भागीदार बनाने का निर्णय लिया। इसके लिए उन्होंने नारा दिया,’अमरीका हर जगह दिखे !’
इस बड़े लक्ष्य के लिए उन्होंने ‘भारत की आरक्षण प्रणाली’ से आइडिया उधार लेकर विभिन्न नस्लीय समूहों का प्रतिनिधित्व सिर्फ नौकरियों में ही नहीं, उद्योग-व्यापार मे भी सुनिश्चित कराने के लिए विविधता नीति(डाइवर्सिटी पॉलिसी) अख़्तियार किया, जिसका अनुसरण उनके बाद के सभी राष्ट्रपतियों- निक्सन , कार्टर, रीगन इत्यादि – ने भी किया। उसके फलस्वरूप अमेरिकी अल्पसंख्यकों-कालों, रेड इंडियंस, हिस्पैनिक्स, एशियन - पैसेफिक मूल के लोगों- को धीरे-धीरे नहीं, बड़ी तेजी से ही सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियों सहित ज्ञान- उद्योग, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, फिल्म-टीवी इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र में ही भागीदारी सुनिश्चित हुई। इसी डाइवर्सिटी पॉलिसी के गर्भ से वहाँ अश्वेतों में बड़े-बड़े फिल्म एक्टर- एक्ट्रेस, डाइरेक्टर- प्रोड्यूसर, टीवी एंकर, सप्लायर, डीलर, सीईओ इत्यादि का उदय हुआ।
डाइवर्सिटी पॉलिसी के तहत अमेरिका अपने देश का अधिकतम मानव संसाधन तथा विभिन्न देशों की असाधारण प्रतिभाओं का उपयोग करने मे समर्थ हुआ, जिसके फल्स्वरूप उसे विश्व महाशक्ति में तब्दील होने का अवसर मिला।
बहरहाल जॉन्सन की जिस विविधता नीति के फलस्वरूप अमेरिका में सुखद बदलाव आया, उसे सफल बनाने में सबसे बड़ा योगदान वहां के उस प्रभुवर्ग का रहा।
गृह-युद्ध में वंचित अश्वेतों के प्रति अभूतपूर्व सदाशयता का परिचय देने वाला अमेरिकी प्रभु वर्ग राष्ट्रपति जॉन्सन के आह्वान का सम्मान करते हुये अपने निजी नुकसान को दरकिनार कर वंचित नस्लीय समूहों को देश के संपदा-संसाधनो और नौकरियों इत्यादि में भागीदार बनाने के लिए स्वतःस्फूर्त रूप से सामने आया। उसके जाग्रत विवेक के चलते ही सर्वव्यापी आरक्षण वाली डाइवर्सिटी नीति परवान चढ़ सकी। लेकिन डाइवर्सिटी पॉलिसी को अनुकरणीय बनाने के बावजूद अमेरिका के प्रभु वर्ग को अपने जाग्रत विवेक का चरम दृष्टांत स्थापित करना बाकी था और उसने अश्वेत बराक ओबामा को अमेरिका का राष्ट्रपति बनाकर वह कर दिखाया।
जिन कालों का पशुवत इस्तेमाल कर वहां के गोरों ने रंगभेद का काला इतिहास रचा था, उन्हीं में से किसी एक की संतान ओबामा को राष्ट्रपति बनाकर उसने अपने सारे पापों को धो डाला। लेकिन ओबामा के हाथ में दोबारा अमेरिका की बागडोर सौंपने के बाद के वर्षों में जिस तरह छिटफुट घटनाओं के साथ अगस्त 2014 में फर्ग्यूशन के एक अश्वेत युवक को गोलियों से उड़ाने वाले श्वेत पुलिस अधिकारी डरेन विल्सन पर नवंबर 2014 में ग्रांड ज्यूरी द्वारा अभियोग चलाये जाने से इंकार करने एवं 18 मई, 2015 को 21 साल के श्वेत युवक डायलन रूफ द्वारा साउथ कैरोलिना स्थित अश्वेतों के 200 साल पुराने चर्च में गोलीबारी कर नौ लोगों को मौत के घाट उतारने जैसी बड़ी घटनाएँ सामने आयीं, उसके बाद यह स्पष्ट हो गया कि विविध कारणों से अमेरिकी प्रभुवर्ग अश्वेतों के प्रति पहले जैसा उदार नहीं रहा : उसका विवेक शिथिल पड़ते जा रहा है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण ऑस्कर 2015 और 2016 में मिला।
काबिलेगौर है कि ऑस्कर 2002 में डेंजिल वाशिंगटन और हैलेबेरी को एक साथ बेस्ट एक्टर और एक्ट्रेस से नवाजे जाने के बाद ऑस्कर पुरस्कारों में विविधता नीति लगातार दिखने लगी अर्थात किसी न किसी श्रेणी में अश्वेतों को लगातार सम्मानित किया जाने लगा। लेकिन 2015 में यह सिलसिला अचानक थम गया, जिसे लेकर पूरी दुनिया में ऑस्कर देने वाली ज्यूरी की तीव्र भर्त्सना हुई, किन्तु 2016 में स्थिति और बदतर हो गयी।
2015 में तो मार्टिन लूथर किंग जू. के वोटाधिकार के लिए 1965 में हुये ‘अलबामा मार्च’ पर बनी ‘सेल्मा’ को को बेस्ट पिक्चर की कटेगरी में नामांकन मिला था पर, 2015 के मुक़ाबले अश्वेतों द्वारा हॉलीवुड में और बेहतर किए जाए के बावजूद ऑस्कर - 2016 में फिल्मों की प्रमुख श्रेणियों- बेस्ट एक्टर, एक्ट्रेस, पिक्चर और डायरेक्शन - में किसी अश्वेत को नामांकन नहीं मिला।इन दोनों ऑस्कर पुरस्कार समारोहों ने साबित कर दिया कि गोरा समुदाय अश्वेतों के प्रति काफी हद तक अनुदार हो चुका है।
अमेरिकी गोरों के साइक में अश्वेतों के प्रति आए बदलाव को नरेंद्र मोदी के क्लोन डोनाल्ड ट्रम्प नें पढ़ा और 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में नारा उछाला , ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन!’ इस नारे के जरिये ट्रम्प ने संदेश दिया कि अमेरिका अपने अल्पसंख्यकों की भारी भरकम उपस्थिती के कारण महानता की श्रेणी से स्खलित हो गया है।
मेक अमेरिका ग्रेट अगेन को परवान चढ़ाने के लिए उन्होंने सिर्फ और सिर्फ गोरों के हित में मुद्दे खड़ा किए। ऐसा कर ट्रम्प ने वर्षों से सुप्त पड़ी अमरीकी प्रभुवर्ग के नस्लीय भावना को नए सिरे से भड़का दिया। फलतः 8 नवंबर, 2016 को जब चुनाव परिणाम सामने आया, ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन‘ हिलेरी क्लिंटन के ‘स्ट्रॉंगर टुगेदर’ नारे पर बहुत भारी पड़ा।
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George Floyd Death: फ्लॉयड की मौत पर जला अमेरिका
ट्रम्प ने अमेरिकी गोरों की सुप्त नस्लीय भावना को भड़का कर जिस तरह अमेरिका की बागडोर अपने हाथ में लिया, उससे अल्पसंख्यक विद्वेष के जरिये राजसत्ता पर कब्जा जमाने का उन्हें एक अचूक मंत्र मिल गया। उसके बाद भारत में जिस तरह नरेंद्र मोदी ‘मुस्लिम विद्वेष’ के जरिये राजनीतिक सफलता का नया-नया अध्याय जोड़ते गये, उसकी पुनरावृति अमेरिका मे करने के लिए ट्रम्प भी लगातार अश्वेतों के खिलाफ नफरत फैलाने के मोर्चे पर जुटे रहे। ऐसे में लोग अमेरिकी प्रभु वर्ग से नस्लीय भेदभाव के खिलाफ मुखर होने की उम्मीद छोडने लगे थे।
ऐसे निराशाजनक दौर में जब जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के विरुद्ध अभूतपूर्व संख्या में वहां का प्रभुवर्ग अश्वेतों के समर्थन में सड़कों पर उतरा, दुनिया विस्मित हुये बिना न रहा सकी। नस्लभेद के खिलाफ गोरों में नए सिरे से पैदा हुये आक्रोश को देखते हुये अब ढेरों लोग अगले राष्ट्रपति चुनाव में ट्रम्प की विदाई के प्रति आशावादी हो चलें हैं। किन्तु अभी से ऐसी उम्मीद पालना जल्दीबाजी होगी।
अल्पसंख्यकों को बहुसंख्य लोगों की नफरत का शिकार बनाना आज के दौर में बहुत आसान काम हो गया है और ट्रम्प व मोदी जैसे लोग इस काम में कुछ ज्यादे ही माहिर हैं। फिलहाल तो इस बात के लिए जी भरकर राहत की सांस लेनी चाहिए कि अमरीकी प्रभुवर्ग का विवेक मरा नहीं है !
- एच एल दुसाध
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। संपर्क- 9654816191)
Racial riots of America, अमेरिका के नस्लीय दंग