That inspiring day in Mohammadabad in the fight against apartheid in America
अक्टूबर का महीना था और दशहरा नज़दीक था. वर्ष था २०१२. अमेरिका में मेरे अम्बेडकरवादी मित्र ललित खंडारे ने मुझे बताया कि अमेरिकी विश्वविद्यालयों के अश्वेत शिक्षक भारत के दौरे पर आ रहे हैं और वह वाराणसी भी आएंगे. उन्होंने मुझसे कहा कि क्या मैं इन लोगों कोई दलित गाँव घुमा सकता हूँ जहाँ ये लोगों से बाते कर सकें. मैंने उनसे हाँ की और फिर प्रोफ़ेसर केविन ब्राउन के साथ संपर्क हुआ.
सभी लोग वाराणसी रहे और हम उनसे मिलने वहाँ पहुंचे. मेरे मित्र रामजी कार चलते हुए भीड़ भरे बाजार से जब पुराने शहर में घुसे तो मुझे लगा आज जाना मुश्किल है और कही कोई एक्सीडेंट हो जाएगा. शाम का वक्त था और लोग दशहरे से दो तीन दिन पहले की खरीदारी में थे. हम किसी तरह से अंदर ब्रॉडवे नामक होटल था वहाँ पहुंचे और फिर प्रोफ़ेसर केविन ब्राउन से बात की, उनके साथ रात का खाना खाया और 18 अक्टूबर के कार्यक्रम की बात की.
१८ अक्टूबर को दिन के करीब १२ बजे तक बनारस से लगभग २० लोगों का ग्रुप मोहम्मदाबाद पहुंचा. करीब ४०० लोग वहाँ सुबह से ही इंतज़ार में बैठे थे. हालाँकि अक्टूबर था लेकिन उत्तर प्रदेश में दोपहर में तो असहनीय ही होती है. जैसे ही लोग पहुंचे हमने कार्यक्रम शुरू कर दिया. सोशल डेवलपपमेंट फाउंडेशन के १५ वें वर्षगाँठ के कार्यक्रम के तौर पर मनाया जा रहा था. अतिथियो का स्वागत माला पहना कर हुआ और फिर सभी बच्चों ने कार्यक्रम किया. एक नाटक का मंचन भी था जिसमें दहेज़ प्रथा और लड़कियों को परदे में रखने की प्रथा का विरोध किया गया था.
सारे कार्यक्रम के बाद लोगों ने अपनी अपनी बातें रखीं. अमेरिका से आये अतिथि बहुत खुश थे क्योंकि वे अपने समाज के तरह के लोगों को देख रहे थे और नौजवानों के दिलों में उठ रहे सपनों से खुश थे. सबने अपने अपने संघर्षों की बात कही और सभी को संघर्ष करने और पढ़ने की बात कही.
मोहम्मदाबाद में सभी लोगों के लिए यह एक अविस्मरणीय दिन था जब उन्होंने एक साथ इतने अतिथियों को देखा और उनसे बात की. सभी ने हमारे युवा साथियों द्वारा बनाये गए भोजन का लुफ्त लिया और फिर वापस वाराणसी के लिए निकल गए.
करीब ४ वर्षो बाद २०१६ में पुनः प्रोफेसर केविन ब्राउन छात्रों के एक ग्रुप को लेकर भारत आये और अबकी बार वह दलित छात्रों के साथ अपने छात्रों का वार्तालाप करवाना चाहते थे, लेकिन वह केवल इनफॉर्मल जिसका कोई विशेष अजेंडा नहीं था, केवल एक दूसरे को समझना।
अब मोहम्मदाबाद में उनके आने के ८ वर्ष वाद उसके नतीजे नज़र आये हैं. मैं ये मानता हूँ कि हम में से बहुतों को नींव की ईंट बनना होगा. जब समाज या सत्ता में कुछ परिवर्तन आते हैं तो आसानी से नहीं होते और उसमें बहुत समय लगता है. अमेरिका में जाति को कोई जानता नहीं था और इसका सन्दर्भ केवल भारतीयों के सन्दर्भ में ही इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन अभी कुछ दिनों पहले अमेरिका में एक ऐसा धमाका हुआ है कि जिसकी गूँज वहाँ स्थाई तौर पर रहेगी.
अभी अफ़्रीकी मूल की एक बड़ी पत्रकार ईसाबेल विलकरसन, जो पुलित्ज़र पुरूस्कार से भी सम्मानित है और न्यूयोर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट की सवांददाता रही है, की एक पुस्तक आयी है, जो बेहद ही ऐतिहासिक होने जा रही है. इसका नाम है “जाति : हमारे असंतोष का मूल कारण” ( कास्ट : एंड द ओरिजिन ऑफ़ आवर डिस्कन्टेन्ट). इसमें उन्होंने अमेरिका में व्याप्त रंगभेद की समस्या (The problem of apartheid prevalent in America) को जातीय स्वरूप से देखने की कोशिश की है. इस पुस्तक की समीक्षा में आने वाले दिनों में लिखूंगा, लेकिन ये जानना जरूरी है कि ईसाबेल ये कहती हैं के अमेरिका के रंग भेद की समस्या को समझने लिए जर्मनी के नाज़ीवाद और भारत के जाति भेद को समझना जरूरी है और इसके लिए उन्होंने भारत की यात्रा भी की और बाबा साहेब आंबेडकर और ज्योति बा फुले के साहित्य को भी पढ़ा.
भारत के विषय में लिखे गए उनके चैप्टर के अंतिम पैराग्राफ में एक ऐसा मुद्दा है जिसे पढ़कर आप सभी प्रसन्न होंगे। पहले ये पैराग्राफ :
“कुछ साल पहले, अफ्रीकी-अमेरिकी प्रोफेसरों के एक समूह ने भारत के उत्तर प्रदेश के एक ग्रामीण गांव की यात्रा की। वहां, सबसे कम उप-जाति, स्वछ्कार समाज के सैकड़ों ग्रामीण, अमेरिकियों के स्वागत के लिए एक समारोह में आए। ग्रामीणों ने इस अवसर के लिए दलित मुक्ति गीत गाए। फिर उन्होंने अपने अमेरिकी मेहमानों की ओर रुख किया और उन्हें अपने खुद के मुक्ति गीत गाने के लिए आमंत्रित किया। इंडियाना विश्वविद्यालय के एक कानून प्रोफेसर, केनेथ दा श्मिड्ट ने एक गीत शुरू किया, जो कि नागरिक अधिकारों के मार्चर्स ने बर्मिंघम और सेल्मा में गाया था, जैसे ही गाना अंतिम पायदान पर पहुंचा, दलित मेजबानों ने अपने अमेरिकी समकक्षों के साथ गाना शुरू किया। महासागरों के पार, वे अच्छी तरह से “वी शैल ओवरकम” यानी हम होंगे कामयाब के शब्दों को जानते थे।”
मतलब ये कि वह यह कह रही हैं कि अब दुनिया भर में दलित और अश्वेत लोगों में एकता है और वे अपनी कामयाबी के लिए संघर्ष कर रहे हैं और एक दूसरे से सीख भी रहे हैं.
हमारे लिए इसलिए जरूरी है करीब ८ वर्ष पूर्व हमारे एक छोटे से प्रयास से अफ्रीकी मूल के अमेरिकी लोगों और भारत में दलितों के बीच एक वार्तालाप की शुरुआत हमने की और मोहम्मदाबाद के स्वच्छकार समुदाय को उस ऐतिहासिक पहल का हिस्सेदार बनाया. उसके चार वर्ष बाद भी बनारस में हमने छात्रों को बैठक करवाई और नतीजा है कि उस प्रयास को आज एक महान पुस्तक में प्रेरणास्पद घटना के तौर पर पेश किया जाता है तो एस डी ऍफ़ की सारी टीम के लिए बधाई बनती है.
मोहम्मदाबाद में राज कपूर जी, दीपमाला, प्रदीप, शबाना, रामजी, धीरज, संगीता, मुस्ताक, रिया, शास्त्री जी, दीपू चौधरी आदि सभी इस ऐतिहासिक दिन में शामिल थे.
एक संगठन के तौर में यह मानता हूँ कि सफलताएं बहुत देर से आती हैं और हमने जो भी काम किया और जहां भी किया वो इतिहास बना और बनाया. आप सभी साथियो को शुभकामनाएं. अपने पथ पर अग्रसर रहे तभी ‘हम होंगे कामयाब’.
विद्याभूषण रावत
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