राजनीतिक पराजय (जो पहले ही हो चुकी है) के बाद की पुकार !

राजनीतिक पराजय (जो पहले ही हो चुकी है) के बाद की पुकार ! राजनीतिक पराजय (जो पहले ही हो चुकी है) के बाद की पुकार !

लेख के शीर्षक में राजनीतिक पराजय से आशय देश पर नवसाम्राज्यवादी गुलामी लादने वाली राजनीति के खिलाफ खड़ी होने वाली राजनीति की पराजय से नहीं है. वह पराजय पहले ही हो चुकी है. क्योंकि देश के लगभग तमाम समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के दावेदार नेता और बुद्धिजीवी नवसाम्राज्यवाद विरोधी राजनीति के विरोध में हैं.

1991, जब नई आर्थिक नीतियां लागू की गईं, से लेकर अभी तक के अनुभव के आधार पर यह स्पष्ट है कि नवसाम्राज्यवादी गुलामी का मार्ग प्रशस्त करने में बौद्धिक नेतृत्व राजनीतिक नेतृत्व की तुलना में अग्र-सक्रिय (प्रोएक्टिव) रहा है.

नई आर्थिक नीतियां लागू की जाने पर अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि अब कांग्रेस ने भाजपा का काम (संवैधानिक समाजवादी व्यवस्था को अपदस्थ कर पूंजीवादी व्यवस्था कायम करना) हाथ में ले लिया है. बौद्धिक नेतृत्व को तब फासीवाद की आहट सुनाई नहीं दी. समाजवाद का संवैधानिक मूल्य नवउदारवाद की बलिवेदी पर कुर्बान करने में उसे ऐतराज नहीं हुआ. उसने नवउदारवादी नीतियों के परिणामस्वरूप बदहाल किसानों, मजदूरों, बेरोजगारों की कीमत पर अपनी आर्थिक हैसियत देश से लेकर विदेश तक तेजी से मजबूत बना ली. पहले से सरकारी खर्चे पर विश्वस्तरीय जीवन बिताने वाले आला दर्जे के बुद्धिजीवियों और कलाकारों की हैसियत और मजबूत हो गई.

यह अब छिपी सच्चाई नहीं है कि देश के बौद्धिक नेतृत्व ने नवसाम्राज्यवाद विरोधी राजनीति के स्वरूप और संघर्ष को मुकम्मल और निर्णायक नहीं बनने देने की ठानी हुई है. वह आज भी ऐसा जताता है गोया भारत या दुनिया में नवसाम्राज्यवाद जैसी कोई स्थिति और उससे जुड़े अध्ययन अस्तित्व में नहीं है. उन्होंने विभिन्न एनजीओ और विमर्शों की फुटकर दुकानें सजा कर राजनीति, राजनीतिक विचारधारा, राजनीतिक कार्यकर्ता और राजनीतिक पार्टी का अर्थ बदल डाला. संक्षेप में याद किया जा सकता है कि बौद्धिक नेतृत्व ने नवसाम्राज्यवाद विरोधी राजनीति पर पहला एकजुट हमला विश्व सामाजिक समाज मंच (वर्ल्ड सोशल फोरम) के तत्वावधान में किया था. वह एनजीओ नेटवर्क का विश्वस्तरीय आयोजन था, जिसमें 'दूसरी दुनिया संभव है' का हवाई नारा उछाला गया. लोगों को बताया गया कि मौजूदा नवउदारवादी दुनिया के बरक्स दूसरी दुनिया बिना राजनीति के अस्तित्व में आ जाएगी. बस बीच-बीच में मिल कर गाना गाने, नाचने और खाने-पीने की जरूरत है. और इस सब के लिए फंडिंग की. यानी दूसरी दुनिया की रचना के लिए कॉरपोरेट राजनीति, (Corporate politics) की जगह वैकल्पिक राजनीति (Alternative politics) की बात करने वालों का ऐतबार नहीं करना है. मौका आने पर हम बताएंगे कब किस तरह की राजनीति की बात करनी है!

The anti-corruption movement under the aegis of the India Against Corruption (IAC) was a unique scene of NGO mobsters' actions.

वह मौका आ गया. बौद्धिक नेतृत्व ने दूसरा जबरदस्त हमला इंडिया अगेंस्ट करप्शन (आईएसी) के तत्वावधान में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के रूप में किया. एनजीओ सरगनाओं की करामात का वह विलक्षण नज़ारा था. कारपोरेट घरानों से लेकर लगभग तमाम प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी उस आंदोलन में कतारबद्ध हो गए. इस बार उनके साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भांति-भांति की धार्मिक-सामाजिक-नागरिक-प्रशासनिक हस्तियां शामिल थीं. आंदोलन का चेहरा बनाये गए 'गांधीवादी' अन्ना हजारे ने दिल्ली के मंच से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की विकास-पुरुष के रूप में प्रशंसा की. विनम्र मोदी ने पत्र लिख कर आभार जताया और आगाह किया कि शत्रु उन्हें गुमराह करने की कोशिश करेंगे. लेकिन 'शत्रुओं' ने ऐसा कुछ नहीं किया. वे दूसरी-तीसरी 'क्रांति' के नशे में चूर थे. उन्हें सपने में भी भ्रम नहीं था कि उनके रहते नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन सकते हैं. यह भोलापन देखने लायक था कि एकाएक बेईमान बना दिए गए दो बार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जगह इतने विशाल देश में एनजीओ वाले 'ईमानदार' ले लेंगे!

इस बार सीधे विचारधाराहीनता का कुतर्क चलाया गया. यहां तक कि संविधान की विचारधारा पर भी सीधे प्रहार किए गए. देश और दुनिया को बताया गया कि विचारधाराहीन राजनीति ही 'विकल्प' है. आम आदमी पार्टी (आप) के रूप में कारपोरेट राजनीति की एक नई बानगी सामने आ गई. 'देश में मोदी, दिल्ली में केजरीवाल' के नारे गूंजने लगे. बौद्धिक नेतृत्व के उत्साह का ठिकाना नहीं था. उसने साम्यवाद, समाजवाद, सामाजिक न्यायवाद, गांधीवाद, आधुनिकतावाद जैसे आवरण उतार कर फेंक दिए और आगे बढ़ कर विचारधाराहीनता की 'रामनामी' ओढ़ ली. नवसाम्राज्यवादी प्रतिष्ठान भारत की राजनीति में यही चाहता था कि उसमें एनजीओ सरगनाओं की सीधी घुसपैठ हो जाए.

स्वतंत्रता आंदोलन की टक्कर के और जेपी आंदोलन से बड़े बताए गए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने गुजरात में छटपटाते नरेंद्र मोदी को न केवल भाजपा में अडवाणी से ऊपर स्थापित कर दिया, उनके केंद्र में पूर्ण बहुमत के साथ सत्तासीन होने का राजमार्ग भी खोल दिया. किरण बेदी के 'छोटे गांधी' ने रही-सही कसर पूरी करते हुए बनारस से चुनाव लड़ कर मोदी की अजेयता का झंडा गाड़ दिया. इस तरह संविधान की धुरी से हटा कर नवसाम्राज्यवादी प्रतिष्ठानों की धुरी पर ज़माई गई भारत की राजनीति को हमेशा के लिए मज़बूती प्रदान कर दी गई.

कारपोरेट राजनीति की यह गतिकी (डायनामिक्स) देखने लायक थी - भारत का बौद्धिक नेतृत्व प्रतिक्रांति को डंके की चोट पर क्रांति बता रहा था.      

बौद्धिक नेतृत्व का समवेत हमला नवसाम्राज्यवाद विरोध की कमजोर राजनीतिक विचारधारा, जिसका आधार आज़ादी के संघर्ष और संविधान के मूल्यों को बनाया गया था, के लिए घातक सिद्ध होना ही था. साथ ही वह भारत के संविधान में भी आखिरी कील साबित हुआ. यह अकारण नहीं है कि बुद्धिजीवी जब आरएसएस/भाजपा के फैसलों पर संविधान की दुहाई देते हैं तो जनता उनका विश्वास नहीं करती. अगर कहीं जनता स्वत:स्फूर्त ढंग से आंदोलित होती है तो ये बुद्धिजीवी, जो खुद संविधान को अमान्य करके अपनी साख गवां चुके हैं, उस आंदोलन पर कब्ज़ा करने के लिए अम्बेडकर के फोटो लेकर पहुंच जाते हैं.

Political defeat means the opposition's defeat in the 2019 general election.

इस लेख में राजनीतिक पराजय से आशय विपक्ष की 2019 के आम चुनाव में होने वाली पराजय से है. हमने इस पर विस्तार से लिखा है कि जिस तरह का असंतोष पिछले पांच सालों में संगठित हुआ था उसे देखते हुए यह पराजय टाली जा सकती थी. लेकिन विपक्ष ने बिना समुचित तैयारी के फुटकर शैली में चुनाव लड़ा. राजनीतिक नेतृत्व और बौद्धिक नेतृत्व दो अलग-अलग ध्रुव बने रहे. मैंने जून 2018 में लिखा था, "देश के सभी बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट, जो संविधान के आधारभूत मूल्यों - समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र - और संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण को लेकर चिंतित हैं, उन्हें राष्ट्रीय मोर्चा के निर्माण और स्वीकृति की दिशा में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए. भारत में अक्सर नेताओं ने बुद्धिजीवियों-कलाकारों को प्रेरणा देने का काम किया है. आज की जरूरत है कि बुद्धिजीवी, कलाकार और नागरिक समाज के सचेत नुमाइंदे नेताओं का मार्गदर्शन करें." (लोकसभा चुनाव 2019 : विपक्षी एकता के लिए एक नज़रिया). पिछली बार यह नहीं हुआ. 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र यह होगा तो कारपोरेट राजनीति के दायरे में भाजपा को परास्त करने की संभावना बढ़ जाएगी.

2019 में दोबारा सत्ता में आने पर कश्मीर-समस्या, मंदिर-मस्जिद विवाद और असम-समस्या (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) और नागरिकता कानून को लेकर भाजपा सरकार का क्या 'समाधान' होगा, यह कोई छिपी बात नहीं थी. उसने एक के बाद एक अपना काम कर दिया है. राजनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व का काम एक बार फिर सरकार के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के अजेंडे पर प्रतिक्रिया भर करने का रह गया है. लगता यही है कि जो स्थिति 2014 और 2019 के बीच बनी रही, वह अगले पांच साल भी बनी रहेगी.

Progressive / secular citizens have no serious concerns about the election of 2024

राजनीतिक पराजय के बाद जो पुकार मची है, उस पर सरसरी नज़र डालने से ही पता चल जाता है कि 2024 के चुनाव को लेकर प्रगतिशील/धर्मनिरपेक्ष नागरिकों की कोई गंभीर चिंता नहीं है. वे पुराने उत्साह के साथ महज़ प्रतिरोध करने में प्रसन्न हैं. दिन-रात सोशल मीडिया पर तैरती कुछ बानगियां देखी जा सकती हैं : 'यह लेख पूरा पढ़ो, यह भाषण पूरा सुनो, फलां का यह विडियो पूरा देखो और ज्यादा से ज्यादा लोगों को फॉरवर्ड करो, फलां ने फलां (आमतौर पर मोदी-शाह अथवा 'भक्तों') की बोलती बंद कर दी, नींद उड़ा दी, पोल खोल दी, सबक सिखा दिया, बैंड बजा दिया, धूल चटा दी, फलां ने ऐसा जोरदार भाषण दिया कि खूब तालियां बजीं, ऐसा भाषण कि लोग भावुक हो उठे, फलां नेता ने यह ट्वीट किया, फलां सेलिब्रेटी ने यह ट्वीट किया, फलां फलां के वारिस संविधान बचाने निकल पड़े हैं, जनता सब समझ गई है, लोग जाग गए हैं, दलित-मुस्लिम एकजुट हो गए हैं, पिछड़ों ने मनुवाद पर हल्ला बोल दिया है, ऐसा प्रतिरोध प्रदर्शन पहले कभी नहीं देखा गया, विश्वविद्यालयों में प्रतिरोध की लहर उठ खड़ी हुई है, देश के युवा आज़ादी लेके रहेंगे ...' आदि-आदि.

इसके साथ तरह-तरह की कहावतें, मुहावरे, किस्से, किंवदंतियां, कथन, कविताएं, नारे, चुटकुले इस अंदाज़ में प्रसारित किए जा रहे हैं गोया आरएसएस/भाजपा/मोदी-शाह और उनकी फासिस्ट सरकार की अब खैर नहीं है. लेकिन यह सब करते हुए अपने से सवाल नहीं पूछा जाता कि जब सारा ज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आपके पास है तो इतने बड़े देश में कूपमंडूक आरएसएस का अजेंडा धड़ल्ले से क्यों चल रहा है? क्यों असंख्य पत्रिकाओं और पुस्तकों में प्रस्तुत किये गए ज्ञान को आरएसएस के एक मुखपत्र ने पीट कर रख दिया? क्यों निरंतर होने वाली राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में प्रतिपादित सिद्धांतों-विमर्शों को आरएसएस की शाखाओं के 'बौद्धिकों' ने पराभूत कर दिया? नित्यप्रति लोकतंत्र के बरक्स आरएसएस के फासीवादी चरित्र और चेहरे का उद्घाटन किया जा रहा है, लेकिन यह सच्चाई छिपा ली जाती है कि संवैधानिक लोकतंत्र मौजूदा कारपोरेट पूंजीवाद की सेवा के लिए नहीं अपनाया गया था, जिसे बौद्धिक नेतृत्व की मान्यता प्राप्त है.

कुछ कोनों से यह भी दोहराया जाता है कि सरकार किसानों, मजदूरों, छोटे-मंझोले व्यापारियों, बेरोजगारों की बदहाली से ध्यान हटाने के लिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का दांव चलती है. लेकिन यह हकीकत छिपा ली जाती है कि देश की अर्थव्यवस्था अगर संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों के आधार पर नहीं चलाई जाकर विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच और देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों के आदेश पर चलाई जाएगी तो मेहनतकशों की आर्थिक बदहाली इसी तरह जारी रहेगी; अर्थव्यवस्था की स्तम्भ संस्थाएं इसी तरह ध्वस्त की जाती रहेंगी.

मोदी अपने विरोधियों को भी जुमलेबाजी की अच्छी ट्रेनिग देते चल रहे हैं.

डॉ. प्रेम सिंह, Dr. Prem Singh Dept. of Hindi University of Delhi Delhi - 110007 (INDIA) Former Fellow Indian Institute of Advanced Study, Shimla India Former Visiting Professor Center of Oriental Studies Vilnius University Lithuania Former Visiting Professor Center of Eastern Languages and Cultures Dept. of Indology Sofia University Sofia Bulgaria डॉ. प्रेम सिंह, Dr. Prem Singh Dept. of Hindi University of Delhi Delhi - 110007 (INDIA) Former Fellow Indian Institute of Advanced Study, Shimla India Former Visiting Professor Center of Oriental Studies Vilnius University Lithuania Former Visiting Professor Center of Eastern Languages and Cultures Dept. of Indology Sofia University Sofia Bulgaria

पिछले दिनों कांग्रेस पर मौत की मूठ चलाने वाले एक साथी ने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के मामले में कहा कि राष्ट्रीय बेरोजगारी रजिस्टर बनाया जाना चाहिए. कुछ भले लोगों ने वह जुमला हाथों-हाथ लिया. केजरीवाल की पाठशाला में विचारधाराहीन स्वराज का पाठ पढ़ने के बाद ज्ञान-चक्षु इस कदर खुल जाते हैं कि सामने पड़ी सच्चाई दिखाई नहीं देती कि कारपोरेट पूंजीवादी व्यवस्था के तहत निजीकरण जारी रहेगा तो पक्की नौकरियां नहीं रहेंगी.

प्रतिक्रांति के इस एकमुश्त धावे के विरुद्ध समुचित राजनीतिक तैयारी का अवकाश बौद्धिक नेतृत्व नहीं पैदा होने देना चाहता. क्योंकि वह होगा तो उसका दिखना कुछ समय के लिए बंद हो सकता है. वह 'जो दिखता है वह बिकता है' की टेक पर चलता है. भारत का बौद्धिक नेतृत्व कुछ क्षण रुक कर यह आत्मनिरीक्षण करने को तैयार नहीं है कि कहीं वह खुद इस प्रतिक्रांति में भागीदार तो नहीं है? कम से कम इस रूप में कि उसने क्रांति के अजेंडे को ईमानदारी से आगे नहीं बढ़ाया. नतीजतन, प्रतिक्रांति का यह भीषण मलबा समाज पर गिरा है. दरअसल समस्या यह है कि प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष खेमे के ज्यादातर बुद्धिजीवी प्रछन्न नवउदारवादी हैं. ये नवउदारवादी व्यवस्था का विरोध भी करते हैं और उसके इनाम-इकराम भी प्राप्त करते हैं. कहना न होगा की ये लोग देश की संवैधानिक संप्रभुता और मूल्यों के लिए प्रकट नवउदारवादियों से अधिक खतरनाक हैं.

बहरहाल, नए सेनाध्यक्ष ने अपनी पहली प्रेस वार्ता में ऐलान कर दिया है कि सरकार जब चाहेगी पाक-अधिकृत कश्मीर को भारत में मिला लिया जाएगा. पाकिस्तान ने जनरल के ऐलान को रूटीन भाषणबाज़ी बता कर ख़ारिज किया है. लेकिन 2024 के चुनाव के पहले इस तरह का कोई एक्शन हो सकता है. ऐसा होगा तो चुनाव भी फतह हो सकता है. राजनीतिक पराजय के बाद फिर पांच साल प्रतिरोध की पुकार जारी रह सकती है.

प्रेम सिंह    

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)

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