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ग्रामीण भारत में रोजगार की जीवन रेखा ‘मनरेगा’ का बजट हुआ ख़त्म
The budget of 'MNREGA', the lifeline of employment in rural India, ends
(मनरेगा के लिए बजट ख़त्म : लोगों के जीवन से ऊपर पूंजीवादी मुनाफा है सरकार की प्राथमिकता)
इस दीपावली पर जब देश का मीडिया अयोध्या में 9 लाख दिए जलाकर विश्व कीर्तिमान (World record by lighting 9 lakh lamps in Ayodhya) बनाने का डंका पीटकर, हमारे त्योहारों को भी राजनीतिक प्रचार का साधन बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा बन रहा था, देश के करोड़ों मनरेगा मजदूरों के घर सूने पड़े थे क्योंकि दिहाड़ी का भुगतान नहीं हुआ था। कई मजदूर तो काम करने के बाद जून महीने से ही अपनी दिहाड़ी के पैसे मिलने का इंतज़ार कर रहे हैं। इनकी चिंता न तो मीडिया को है न सरकार को। दरअसल इस हालत के लिए जिम्मेवार ही सरकार है।
अक्टूबर महीने में ही ख़त्म हो गया है ‘मनरेगा’ के लिए आबंटित बजट
मनरेगा में मजदूरी मिलने में देरी (Delay in getting wages in MNREGA) सामान्य बात है परन्तु इस बार स्थिति ज्यादा गंभीर है क्योंकि केंद्र की प्रमुख ग्रामीण रोजगार योजना ‘मनरेगा’ के लिए आबंटित बजट अक्टूबर महीने में ही ख़त्म हो गया है। सरकार की अपनी बजट स्टेटमेंट के अनुसार 29 अक्टूबर के दिन मनरेगा में 8686 करोड़ रूपये का नेगेटिव बकाया दिखाया गया है। मतलब यह है कि मज़दूरों के काम मांगने (जो कानून की मूल की भावना है) के वावजूद काम नहीं मिलेगा और अगर मिला भी तो मज़दूरी के लिए महीनों इंतज़ार करना पड़ेगा।
Role of MNREGA in reducing poverty | गरीबी कम करने में मनरेगा की भूमिका
यह हालात पैदा हुए हैं भाजपा सरकार की मनरेगा को ख़त्म करने की नीति के चलते। सामान्य स्थिति में भी ग्रामीण भारत में रोजगार सृजन (Employment Generation in Rural India) से गरीबी कम करने में मनरेगा की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसकी स्वीकृति सरकार की अलग-अलग रिपोर्ट में भी मिलती है। लेकिन कोरोना जैसी महामारी के संकट में, जब लोगों के पास काम नहीं और खाने के लिए अन्न की कमीं है, मनरेगा की भूमिका बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है।
पिछले वर्ष लॉकडाउन और औद्योगिक मंदी के चलते करोड़ों प्रवासी मज़दूर शहरों से ग्रामीण भारत में लौटने के लिए मज़बूर हुए। इससे ग्रामीण भारत में काम की मांग बढ़ी। इसको देखते जरूरत थी मनरेगा के लिए अतिरिक्त फण्ड की। हालाँकि पिछले वर्ष आर्थिक पैकेज की घोषणा करते हुए वित्त मंत्री ने भी इस बात को सैद्धांतिक तौर पर माना था परन्तु केवल 40000 करोड़ रुपये ही आर्थिक राहत पैकेज में इसके लिए रखे थे। कुल मिलाकर वर्ष 2019-2020 में मनरेगा के लिए 1,01,500 करोड़ रुपये उपलब्ध करवाए गए थे।
दरअसल सरकार ने वर्ष 2020-2021 के बजट के समय ही वर्तमान हालात के लिए बीज डाल दिए थे। सभी तरह के विशेषज्ञ अनुमान लगा रहे थे कि प्रवासी मजदूरों के गांव लौटने (migrant laborers return to their villages) के चलते इस वर्ष के लिए काम की मांग बढ़ेगी लेकिन भाजपा सरकार तो अलग ही स्तर पर सोचती है। उनके नीति निर्धारक जिसमे नीति आयोग के प्रमुख भी शामिल है इस आपात स्थिति को भी अवसर के तौर पर देख रहे थे और मौके का फायदा उठाकर नवउदारवाद के एजेंडे (Neoliberalism's Agenda) में शामिल अगले चरण के सुधार लागू किये जा रहे है। ऐसे में जनता के जीवन पर भारी पड़ी पूँजीवाद की मुनाफे की चाहत और पिछले वर्ष के संशोधित बजट से 34 प्रतिशत कम बजट मनरेगा के लिए रखा गया।
सरकार पहले से जानती थी मनरेगा की जरूरत
यह स्थिति कोई यकायक पैदा नहीं हुई है। सरकार जानती थी कि मनरेगा के लिए कम बजट देने से ग्रामीण भारत में बेरोजगारों को उनकी जरुरत और मनरेगा कानून में निर्धारित 100 दिन का रोजगार देना संभव ही नहीं है। यह केवल इस वर्ष ही नहीं हुआ है यही कहानी है ग्रामीण भारत में सबसे ज्यादा काम मुहैया करवाने वाले इस कानून की। यह बात अलग है कि मोदी सरकार ने मनरेगा को कभी सार्वभौमिक और मांग पर आधारित कानून की तरह देखा ही नहीं बल्कि एक लक्षित कल्याणकारी योजना की तरह ही लागू किया है।
ऐसा नहीं होता तो सरकार मनरेगा के लिए पर्याप्त बजट का प्रबंध (Arrangement of adequate budget for MNREGA) करती। पिछले वर्ष के मनरेगा पोर्टल के अनुसार, कुल मिलाकर, 1435.73 लाख लोगों ने जॉब कार्ड के लिए आवेदन किया था जिसमें से केवल 1374.39 लाख जाब कार्ड जारी किए गए हैं, इनमे 766.75 लाख (7.67 करोड़) जॉब कार्ड सक्रिय थे। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विकास रावल की गणना (Calculation of Professor Vikas Rawal of Jawaharlal Nehru University) के अनुसार एक व्यक्ति के दिन के काम की लागत 310 है। इसके अनुसार 766.75 लाख सक्रिय जॉबकार्ड धारकों को केवल 100 दिनों का काम प्रदान करने के लिए कुल 237692 करोड़ रुपये की आवश्यकता थी। लेकिन सरकार ने केवल 73000 करोड़ रुपए ही आबंटित किये। प्रवासी मजदूरों की वापसी के चलते वर्तमान में मनरेगा पोर्टल के अनुसार देश में 17 करोड़ जॉब कार्ड पंजीकृत किए जा चुके हैं, जिनमें से 9.71 करोड़ 'सक्रिय जॉब कार्ड' हैं। इनमे से 6.68 करोड़ सक्रिय जॉब कार्डधारकों (कुल पंजीकृत कार्डों का 40%) ने इस वर्ष योजना के तहत काम की मांग की है। 1.49 करोड़ आवेदकों को अलग-अलग कारणों से जॉब कार्ड जारी नहीं किए गए है। इसके अलावा रोजगार की मांग करने वाले कुल परिवारों में से 13.25% को इस वर्ष योजना के तहत रोजगार नहीं मिला। इसका मुख्य कारण बजट में कमी ही रहा है।
मोदी सरकार न तो ग्रामीण भारत में बढ़ती बेरोजगारी के प्रति गंभीर है और न ही आर्थिक संकट से उभरने के प्रयासों के लिए। पिछले वर्ष भी जब सभी क्षेत्रो में मंदी के चलते आर्थिक विकास नेगेटिव में चला गया था तो कृषि क्षेत्र में 3 प्रतिशत का विकास दर्ज किया गया था। कृषि क्षेत्र ने केवल आर्थिक विकास में ही योगदान नहीं दिया बल्कि ग्रामीण भारत में बड़े स्तर पर रोजगार भी उत्पन्न किया। कृषि के साथ जो दूसरा बड़ा क्षेत्र जिसमे रोजगार मिला वह मनरेगा ही था। गौरतलब है कि मनरेगा में ज्यादातर काम कृषि से जुड़े हुए हैं। इस वर्ष के शुरुआत में ही मनरेगा में काम की मांग बढ़ी है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में मनरेगा की भूमिका (Role of MGNREGA in reviving rural economy)
पिछले अनुभव के आधार पर हमें उस भूमिका को समझना होगा जो मनरेगा रोजगार के अवसर प्रदान करने और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में निभा सकती है। इसलिए सभी आशा कर रहे थे कि मनरेगा के लिए पर्याप्त बजट रखा जायेगा, लेकिन मोदी सरकार ने आज हमें इस स्थिति में ला दिया है कि 21 राज्यों में मनरेगा पर खर्च करने के लिए फण्ड ही नहीं हैं। फण्ड तो छोड़िये केंद्र सरकार मनरेगा के लागू करने में भी अपना मनुवादी एजेंडा लागू कर रही है और मार्च के महीने में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने मनरेगा के तहत सभी मज़दूरी करने वालों को उनकी जाति के आधार पर (अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य) वेतन भुगतान करने के लिए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को एडवाइजरी जारी की है। उस समय भी मजदूरों में काम करने वाले संगठनों ने इसके विपरीत प्रभावों के बारे में चेताया था। हमारे अंदेशे सही साबित हो रहे हैं और खुद सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय का एक नोट इस बात को मानता है कि इसके लागू होने से ग्राम समुदाय के भीतर जाति विभाजन गहरा हुआ है, क्योंकि मनरेगा मजदूरों को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों और अन्य में की श्रेणी में अलग अलग काम दिया जा रहा था। यह नोट ग्रामीण विकास मंत्रालय, नीति आयोग, वित्त मंत्रालय और सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के आला अधिकारियों की एक बैठक में सामने आया जिसमें सर्वसम्मति से इस एडवाइजरी को वापिस लेने का फैसला भी लिया गया। इस बात की जानकारी कुछ न्यूज़ पोर्टल के माध्यम से मिली हालाँकि सरकार की तरफ से अभी तक कोई अधिकारिक अधिसूचना नहीं भेजी गई है। अब विशेषज्ञों ने तो अपनी राय और यथास्थिति सरकार के सामने रख दी परन्तु भाजपा का मनु प्रेम इसे लागू करने में आड़े आ रहा है।
There has been an increase of 18 percent in the suicides of workers.
केंद्र सरकार की नीतियां आपराधिक तरीके से ग्रामीण भारत में लोगों के जीवन से खिलवाड़ कर रही और यह कोई नीतिगत भटकाव नहीं है, बल्कि सरकार की प्राथमिकता का प्रश्न है। नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 की तुलना में 2020 में कृषि क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों की आत्महत्या में 18 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। हालाँकि हालत तो पूरे देश में ख़राब है जिसके चलते देश में कुल आत्महत्या के आंकड़े में 2020 वर्ष में 10 प्रतिशत की (सबसे ज्यादा) बढ़ोत्तरी हुई है। इसमें से सबसे ज्यादा बढ़ोत्तरी छात्रों की आत्महत्या में हुई है जिसकी दर 21.20 प्रतिशत है। शिक्षा क्षेत्र में भी भाजपा सरकार की नई शिक्षा नीति इस स्थिति को और भयानक बनाएगी।
बहरहाल पिछले वर्ष 5579 किसान और 5098 खेत मज़दूर आत्महत्या के लिए मज़बूर हुए। वर्ष 2020 कोरोना और सरकार के बिना प्रबंधन के लागू किये जाने वाले क्रूर लॉकडाउन के लिए ही नहीं जाना जायेगा बल्कि मेहनतकश जनता के जीवन को घोर अनिश्चिता में धकेलने के लिए भी जाना जायेगा।
याद रखिये यह वही समय है जब मोदी सरकार सब विरोधों को दरकिनार करते हुए 20 हजार करोड़ रुपए खर्च कर सेंट्रल विस्टा का काम बड़े स्तर पर कर रही है। इसी वर्ष आर्थिक राहत पैकेज की बदौलत कॉर्पोरेट कर राजस्व वर्ष 2019-20 से 2020-21 के मुकाबले 5.5 लाख करोड़ से कम होकर 4.5 लाख करोड़ रह गया है। इसके अलावा भी कॉर्पोरेट टैक्स में भारी कमी की गई है; वहीं दूसरी तरफ पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद शुल्क में भारी वृद्धि के माध्यम से सरकारी कर राजस्व में वृद्धि हुई है परन्तु जनता का जीवन महंगाई से दूभर हुआ है। सारांश यह है कि सरकार के पास बड़े पूंजीपतियों को उनके मुनाफे बढ़ाने के लिए रियायतें देने के लिए पर्याप्त धन है परन्तु ग्रामीण भारत में करोड़ों लोगों को रोजी मुहैया करवाने वाली मनरेगा के लिए उसके खजाने बंद है। सरकार की प्राथमिकता भुखमरी में रह रहे नागरिको का जीवन नहीं बल्कि अपने कॉर्पोरेट दोस्तों के मुनाफे में वृद्धि है।
विक्रम सिंह
(Dr. Vikram Singh
Joint Secretary
All India Agriculture Workers Union)
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(Dr. Vikram Singh
Joint Secretary
All India Agriculture Workers Union)