भूकंप से निपटने की चुनौती जस की तस

भूकंप से निपटने की चुनौती जस की तस

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Turkey Earthquake News: बीते सोमवार सुबह तुर्की में आए भूकंप ने तबाही मचा दी है।

खबर है कि तुर्की-सीरिया में भूकंप की चपेट में आकर करीब दस हजार लोगों की जान चली गई है। भूकंप के झटके इतनी तेज थे कि ऊंची-ऊंची इमारतें भी देखते ही देखते धराशाई हो गईं। खबरें हैं कि भूकंप के झटकों से  तुर्की 10 फुट खिसक गया। राष्ट्रपति अर्दोगन ने देश के दस प्रांतों में तीन महीने के लिए आपातकाल की घोषणा कर दी गई है। स्कूलों को 13 फरवरी के लिए बंद कर दिया गया है।

वर्ष 2017 में ईरान और इराक की सीमा पर 7.3 तीव्रता का आया भूकंप, जो 2017 खैरमानशाह भूकंप कहलाता है, में चार सौ से अधिक लोग मारे गए थे और छह हजार से अधिक लोग घायल हुए थे। इस भूकंप के बाद स्वतंत्र टिप्पणीकार रीता सिंह का यह आलेख देशबन्धु में प्रकाशित हुआ था। तुर्की-सीरिया में भूकंप के बाद इस आलेख की महत्ता बढ़ गई है। किंचित् संपादन के साथ साभार...

जस की तस है भूकंप से निपटने की चुनौती

इराक-ईरान सीमा पर आए 7.3 तीव्रता के भीषण भूकंप में तकरीबन 500 से अधिक लोगों की दर्दनाक मौत से एक बार फिर रेखांकित हुआ है कि भूकंप से निपटने की चुनौती (the challenge of dealing with earthquakes) जस की तस बरकरार है और अभी तक भूकंप के पूर्वानुमान लगाने का भरोसेमंद उपरकण विकसित नहीं किया जा सका है। हालांकि इस दिशा में वैज्ञानिक सक्रिय हैं और अच्छी बात यह है कि रुस और जापान में आए अनेक भूकंपों के पर्यवेक्षणों से पूर्वानुमान के संकेत सामने आने लगे हैं।

इराक-ईरान सीमा भूकंप के लिए बेहद संवेदनशील क्षेत्र है

गौरतलब है कि भूकंप के लिए कुछ क्षेत्र बेहद ही संवेदनशील हैं और यहां जीवन पर खतरा हमेशा मंडराता रहता है। इन्हीं में से एक इराक-ईरान सीमा भी है। ये वे क्षेत्र हैं जहां वलन (फोल्डिंग) और भ्रंश (फाल्टिंग) जैसी हिलने की घटनाएं सर्वाधिक होती हैं। विश्व के भूकंपीय क्षेत्र मुख्यत: दो तरह के भागों में हैं एक-परिप्रशांत (सर्कम पैसिफिक) क्षेत्र जहां 90 फीसद भूकंप आते हैं और दूसरे-हिमालय और आल्पस क्षेत्र।

भूकंप क्यों आता है?

गौर करें तो भूकंप क्षेत्रों का इन प्रमुख प्राकृतिक भागों से घनिष्ठ संबंध है। वस्तुत: भूकंप के कई कारण है लेकिन भारत और यूरेशिया प्लेटों के बीच टकराव हिमालय क्षेत्रों में भूकंप का प्रमुख कारण है।

भारत के भूकंपीय क्षेत्र

अगर भारत के संदर्भ में बात करें तो ये प्लेटें 40 से 50 मिमी प्रति वर्ष की गति से चलायमान है। इस प्लेट की सीमा विस्तृत है। यह भारत में उत्तर में सिंधु-सांगपो सुतुर जोन से दक्षिण में हिमालय तक फैली है।

यूरेशिया प्लेट के नीचे उत्तर की ओर स्थित भारत प्लेटों की वजह से पृथ्वी पर यह भूकंप के लिहाज से सबसे संवेदनशील क्षेत्र है।

वैज्ञानिकों की मानें तो कश्मीर से नॉर्थ ईस्ट तक का इलाका भूकंप की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। इसमें हिमाचल, असम, अरुणाचल प्रदेश, कुमाऊं व गढ़वाल समेत पूरा हिमालयी क्षेत्र शामिल है।

निश्चित रुप से उत्तरी मैदान क्षेत्र भयावह भूकंप के दायरे से बाहर है लेकिन पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं।

दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बारे में बताया गया है कि भूगर्भ की दृष्टि से यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील है। दरअसल इस मैदान की रचना जलोढ़ मिट्टी से हुई है और हिमालय के निर्माण के समय सम्पीडन के फलस्वरुप इस मैदान में कई दरारें बन गयी है। यही वजह है कि भूगर्भिक हलचलों से यह क्षेत्र शीध्र ही कंपित हो जाता है। अगर इस क्षेत्र में भूकंप आता है तो भीषण तबाही मच सकती है। भीषण भूकपों से भारत में भी अनगिनत बार जनधन की भारी तबाही मच चुकी है। उदाहरण के लिए 11 दिसंबर 1967 में कोयना के भूकंप से सड़कें तथा बाजार वीरान हो गए। हरे-भरे खेत ऊबड़-खाबड़ भू-भागों में तब्दील हो गए। हजारों व्यक्तियों की मृत्यु हुई। अक्टूबर, 1991 में उत्तरकाशी और 1992 में उस्मानाबाद और लातूर के भूकंपों में हजारों व्यक्तियों की जानें गयी और अरबों रुपए की संपत्ति का नुकसान हुआ। उत्तरकाशी के भूकंप में लगभग पांच हजार लोग कालकवलित हुए। 26 जनवरी 2001 को गुजरात के भुज कस्बे में आए भूकंप से 30000 से अधिक लोगों की जानें गयी।

क्या है भूकंप से बचाव का कारगर तरीका

गौर करें तो हर वर्ष देश को भूकंप का सामना करना पड़ता है। लेकिन विडंबना है कि भूकंप से बचाव का कारगर तरीका ढूंढ़ा नहीं जा सका है। उचित होगा कि वैज्ञानिक बिरादरी न सिर्फ  भूकंप के पूर्वानुमान का भरोसेमंद उपकरण विकसित करें बल्कि यह भी आवश्यक है कि भवन-निर्माण में ऐसी तकनीकी का विकास करें जिससे कि इमारतें भूकंप के भीषण झटके को सहन कर सकें। भूकंप में सर्वाधिक नुकसान भवनों इत्यादि के गिरने से होता है। दुनिया के सर्वाधिक भूकंप जापान में आते हैं। इसलिए उसने अपनी ऐसी आवास-व्यवस्था विकसित की है जो भूकंप के अधिकतर झटकों को सहन कर लेती है।

सरकार एवं स्वयंसेवी संस्थाओं को चाहिए कि वह आपदा के समय किए जाने वाले कार्य व व्यवहार के बारे में जनता को प्रशिक्षित करें। बेहतर तो यह होगा कि मानव जाति प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए प्रकृति से सामंजस्य बिठाए। पर विडंबना है कि विकास की अंधी दौड़ में मानव प्रकृति से कोसों दूर ही नहीं बल्कि उसके विनाश पर आमादा है।

संकट में है जैव विविधता

यह तथ्य है कि अंधाधुंध विकास के नाम पर मानव प्रति वर्ष 7 करोड़ हेक्टेयर वनों का विनाश कर रहा है। पिछले सैकड़ों सालों में उसके हाथों प्रकृति की एक तिहाई से अधिक प्रजातियां नष्ट हुई हैं। जंगली जीवों की संख्या में 50 फीसद कमी आयी है। जैव विविधता पर संकट है। वनों के विनाश से प्रतिवर्ष 2 अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाइऑक्साइड वायुमण्डल में घुल-मिल रहा है। बिजली उत्पादन के लिए नदियों के सतत प्रवाह को रोककर बांध बनाए जाने से खतरनाक पारिस्थितिकीय संकट खड़ा हो गया है। जल का दोहन स्रोत सालाना रिचार्ज से कई गुना बढ़ गया है।

पेयजल और कृषि जल का संकट गहराने लगा है। भारत की गंगा और यमुना जैसी अनगिनत नदियां सूखने के कगार पर हैं। वे प्रदूषण से कराह रही हैं। सीवर का गंदा पानी और औद्योगिक कचरा बहाने के कारण क्रोमियम और मरकरी जैसे घातक रसायनों से उनका पानी जहर बनता जा रहा है। जल संरक्षण और प्रदूषण पर ध्यान नहीं दिया गया तो 200 सालों में भूजल स्रोत सूख जाएगा। किंतु भोग में डूबा मानव इन संभावित आपदाओं से बेफिक्र है। नतीजतन उसे मौसमी परिवर्तनों मसलन ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन क्षरण, ग्रीन हाउस प्रभाव, भूकंप, भारी वर्षा, बाढ़ और सूखा जैसी अनेक विपदाओं से जूझना पड़ रहा है। हालांकि प्रकृति में हो रहे बदलाव से मानव जाति चिंतित है और इसके लिए 1972 में स्टाकहोम सम्मेलन, 1992 में जेनेरियो, 2002 में जोंहासबर्ग, 2006 में मांट्रियाल, 2007 में बैंकॉक और 2015 में पेरिस सम्मेलनों के जरिए चिंता जतायी गयी। पर्यावरण संरक्षण के लिए ठोस कानून भी बनाए गए। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह कि उस पर अमल नहीं हो रहा है और मानव अपने दुराग्रहों के साथ है। लिहाजा प्रकृति भी प्रतिक्रियावादी हो गयी है। समझना होगा प्रकृति सार्वकालिक है।

मनुष्य अपनी वैज्ञानिकता के चरम बिंदू पर क्यों न पहुंच जाए उसकी एक छोटी-सी खिलवाड़ भी सभ्यता का सर्वनाश कर सकती है। लेकिन विडंबना है कि मनुष्य प्रकृति की भाषा और व्याकरण को समझने को तैयार नहीं। वह अपनी समस्त उर्जा प्रकृति को ही अधीन करने में झोंक रहा है। लेकिन यह समझना होगा कि जब तक प्रकृति से एकरसता स्थापित नहीं होगी तब तक प्रकृति के गुस्से का कोपभाजन बनना होगा।

गौर करना होगा कि सिंधु घाटी की सभ्यता हो या मिस्र की नील नदी घाटी की सभ्यता या दजला-फरात हो या ह्नांगहों घाटी की सभ्यता सभी में प्रकृति के प्रति एकरसता थी। इन सभ्यताओं के लोग प्रकृति को ईश्वर का प्रतिरूप मानते थे। इन सभ्यताओं में वृक्ष पूजा और नागपूजा के स्पष्ट प्रमाण हैं। यह इस बात का संकेत है कि हजारों वर्ष पूर्व मानव जाति प्रकृति के निकट और सापेक्ष था। उसकी प्रकृति से समरसता और आत्मीयता थी। उसकी सोच व्यापक और उदार थी।

मौजूदा समय में भी स्वयं को बचाने के लिए प्रकृति के निकट जाना होगा। यह समझना होगा कि अमेरिका, जापान, चीन और कोरिया जिनकी वैज्ञानिकता और तकनीकी क्षमता का दुनिया लोहा मानती है, वे भी प्रकृति की कहर के आगे घुटने टेक चुके हैं। अलास्का, चिली और कैरीबियाई द्वीप के आइलैंड हैती में आए भीषण भूकंप की बात हो या जापान में सुनामी के कहर की, बचाव के वैज्ञानिक उपकरण धरे के धरे रह गए। लेकिन विडंबना है कि इस ज्ञान के बावजूद भी 21 वीं सदी का मानव प्रकृति की भाषा को समझने को तैयार नहीं। एकमात्र उसका चरम लक्ष्य प्रकृति की चेतना को चुनौती देकर अपनी श्रेष्ठता साबित करना है। किंतु मानव को समझना होगा कि उसका यह आचरण समष्टि विरोधी है। प्रकृति पर प्रभुत्व की लालसा विनाश का रास्ता है। मानव जाति को समझना होगा कि आए दिन आ रहे भूकंप प्रकृति की एक छोटी-सी प्रतिक्रिया भर है। अगर मानव जाति प्रकृति के प्रति अपने क्रूरता का परित्याग नहीं किया तो उसका अस्तित्व मिटना तय है।

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