/hastakshep-prod/media/post_banners/OigOfUkjXMtz3enpycNJ.jpg)
पिछले दशकों में पूरब के बदलते राजनीतिक और आर्थिक हालात : कुछ घटनाएँ और संस्मरण
देवरिया शहर में पश्चिमी ओवरब्रिज के नीचे, देवरिया शुगर मिल (Deoria Sugar Mill) के बहुत करीब अचानक एक ठेले वाले ने आवाज दी, “नेताजी कहाँ जा रहे हैं, हमारी भी बात सुन लीजिए”।
पीछे मुड़ के देखा तो ठेले के पास खड़े एक आदमी ने हाथ हिला कर मुझे बुलाया। पास पहुचने पर मैंने उससे पूछा, “यहाँ क्या कर रहे हो”?
उसने जवाब दिया, “हमने यहीं ठेला लगा लिया है और यही सत्तू बेच रहा हूँ”।
मैं उसे चेहरे से पहचानता था। वो देवरिया शुगरमिल में मजदूर था, उसने बड़े दुखी मन से कहा,
“गौरी बाजार मिल तो बिक गयी और बंद हो गयी और देवरिया मिल भी महीने दिन चल कर बंद हो जाती है। मैं इसमे परमानेंट मजदूर था पर अब महीने दो महीने ही काम मिल पाता है। और अब इसी ठेला से मुश्किल से रोजी रोटी का काम चल पा रहा है”।
उस ठेले पर एक लड़का भी खड़ा था जिसकी उम्र चौदह पंद्रह साल होगी। मैंने उस लड़के के बारे में पूछा तो बताया कि मेरा ही लड़का है नवी में पढ़ता था। पढ़ाई अब बंद हो गयी है ठेले पर अब मेरा सहयोग करता है।
इसी तरह एक और आदमी को मैने देखा जब मैं सिवल लाइन से गुज़रता था वो भी मिल का हाल पूछता था।
मैं शुरू में आश्चर्य मे पड़ गया था कि होमगार्ड का सिपाही मिल के बारे मे क्यों पूछ रहा है? मैंने उससे पूछताछ कि तो उसने जवाब दिया कि मैं पहले मिल में ही नौकरी करता था। छः महीने मिल चलती थी और उसके अलावा भी काम मिलता रहता था पर अब तो एक महीने काम मिलता है। मजबूरी मे होमेगार्ड की नौकरी करनी पड़ती है उसमे भी किसी किसी दिन ही नौकरी लगती है। उस समय वो कलक्टर के बंगले पर था। मैं जब भी निकलता और उसकी वहाँ ड्यूटी होती तो वो मुझे नमस्कार बोलता और सिर्फ और सिर्फ मिल का हालचाल पूछता।
उस क्षेत्र में मिल में काम करने वालों के बारे में कहा जाता था कि लोग प्राइमरी में अध्यापक की नौकरी छोड़कर मिल में नौकरी करते थे। जब अध्यापक की तनख्वाह पैंतीस रुपये थी तब मिल में पैंसठ रुपये तनख्वाह थी और क्षेत्र के मजदूरों को घर से आने-जाने की सुविधा भी थी। सम्पन्न परिवारों के लोग भी मिल में नौकरी को आते थे।
चूंकि गन्ना एक नकदी फसल है, ये मिलें किसानों और मजदूरों के लिए काफी सुविधाजनक थी। मिलों और उनसे जुड़ी गन्ना समितियों ने क्षेत्र में बुनियादी सुविधायें जैसे पुल-पुलिया, सड़क, विद्यालय, महाविद्यालय खोलने का काम भी किया।
ये सभी बातें इसलिए कह रहे है कि जो दो बड़ा अंतर मिल चलने और बंद होने या बंद करने की प्रक्रिया में दिखाई दे रहा है, ये उसके उदाहरण हैं। इस तरह से पूरे गन्ना क्षेत्र में जहां भी मिले बंद हुईं या बेच दी गयीं, वहाँ किसानों-मजदूरों की हालत दयनीय होती गयी। किसान मजदूर एक साथ होकर संघर्ष करता रहा और प्रताड़ित भी होता रहा। उस दौर की सरकारों का दमन चलता रहा और अंत में चारों तरफ सन्नाटा छा गया।
इस संदर्भ में मैं देवरिया की एक महत्वपूर्ण घटना की चर्चा इस लेख के माध्यम से कर रहा हूँ।
गौरी बाजार मिल (Gauri Bazaar Mill) के बिक जाने के बाद किसानों मजदूरों के अंदर आक्रोश था। अपनी रोजी रोटी छिन जाने और सरकार या न्यायालय से कोई उम्मीद न मिलने पर किसान मजदूर संगठन के बैनर तले यह निर्णय लिया गया कि सभी किसान मजदूर कचहरी में चलकर कलक्टर के माध्यम से सरकार को अपना माँगपत्र सौंपे और एक जनदबाव लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के तहत बने। चूंकि लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार पर सामूहिकता का दबाव बनने की तथा सरकार द्वारा जनता की बात सुने जाने की संभावना होती है और सरकार का दायित्व भी बनता है कि वह जनता की बात प्राथमिक रूप से सुने। अतएव एक माँगपत्र तैयार किया गया जिसमें मुख्य रूप से गौरीबाज़र मिल को चलाने, किसानों के गन्ने के बकाया का तत्काल भुगतान करने तथा मिल मजदूरों की बकाया मजदूरी का भुगतान करने (मिल मजदूरों की बकाया मजदूरी भुगतान के लिए धरना-प्रदर्शन आज भी निरंतर जारी है) की मांगें मुख्य रूप से शामिल थी।
यहाँ आपको यह बताते चलें कि गौरी बाजार की शुगर मिल 1969 के अधिग्रहण के बाद केन्द्रीय सरकार के कपड़ा उद्योग मंत्रालय के अंतर्गत आ गई थी और इसे 1999 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार में जो केंद्र और प्रदेश में मौजूद थी, ने निजी हाथों में बेच दिया गया था जिसके बाद से मिल बंद पड़ी थी।
9 अगस्त 2004 को किसानों-मजदूरों की उपरोक्त मांगों को लेकर भारी संख्या मे लोग देवरिया टाउनहॉल मे इकट्ठा हुए और एक जनसभा के बाद मेरे और मजदूर नेता आर. एस. राय के नेतृत्व में जिला कलेक्टर, जो कि जिले में सरकार का प्रतिनिधि होता है, को माँगपत्र सौंपने तथा उनसे मिल कर किसानों मजदूरों की समस्याओं से अवगत कराना चाहते थे।
कचहरी परिसर में पहुंचने के बाद यह मामूली सी बात कि जिला कलेक्टर स्वयं किसानों-मजदूरों के बीच आकर माँगपत्र स्वीकार करते हुए लोगों की बात सुन लें, कलेक्टर साहब को बहुत ही नागवार गुजरी। कलेक्टर को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं कि देश के आम जन के बीच में खड़े होकर या चेम्बर से बाहर मजदूरों से मिल करके माँगपत्र लें और यह कोई अपवाद नहीं था, बल्कि देश में नौकरशाही की हालत बहुत ही अलोकतांत्रिक और तानाशाहीपूर्ण है इसमें किसी किस्म के किन्तु परंतु की गुंजाइश नहीं हो सकती है।
बड़ी शाजिश के तहत परिसर में किसानों मजदूरों से यह कहते हुए अपील की गयी कि आपलोग बैठिए, कुछ मिनट में जिलाधिकारी महोदय आपलोगों से मिलेंगे, आपकी बात सुनेंगे और ज्ञापन लेंगे। यह बात कोई और नहीं जिले के जिम्मेदार अपर जिलाधिकारी प्रशासन के. के. त्रिपाठी ने कही थी। सीधे-साधे मजदूर किसान पढ़े लिखे के रूप में पहचाने जाने वाले अफसरों पर या देश में प्रतिष्ठित पदों पर प्रतिस्थापित लोगों पर हमेशा से भरोसा करते आए हैं और ठगे जाते रहे हैं। उस दिन भी ऐसा ही हुआ और उन धूर्त अफसरों की बात पर विश्वास करके लोग शांतिपूर्वक बैठ गए।
देखते-देखते 20 से 25 मिनट के अंदर कचहरी छावनी बन गयी, निहत्थे लोग चारों तरफ से घेर लिए गए और लाठियों और बंदूक के बटों की बौछार शुरू हो गयी। बड़ी संख्या में किसानों-मजदूरों को चोटे आईं।
कचहरी में भगदड़ मच गयी जो फरियादी भी अगर दिखाई दिया तो उनपर भी लाठियाँ बरसाई गईं। जिसमे कामरेड काशीनाथ कुशवाहा जो अन्य किसी मुद्दे को लेकर ज्ञापन देकर वापस लौट रहे थे, पुलिस की लाठी से उनका एक हाथ फ्रेकचर हो गया। साथ ही कार्यक्रम में, शामिल के के राय एवं उपाध्याय जी को चोट आई।
आर एस राय जो काफी उम्रदराज थे पुलिस ने उनकी कमर पर लठियों की बौछार की जिसमें उन्हें काफी चोटें आईं।
चूंकि हम लोग चैम्बर के करीब ही बैठे थे और चारों ओर से घिरे हुए थे, कई थाना अध्यक्ष जिसमें सी ओ एन के सिंह (जो देवरीया में एक जालिम के रूप में जाने जाते थे और देवरिया के समाजवादी पार्टी के बड़े लीडर से प्रत्यक्ष या परोक्ष रिश्तेदारी होने के कारण उनकी निरंकुशता और बढ़ गयी थी) और अन्य थे, मेरे ऊपर मृतप्राय होने की हालत तक लाठियाँ, बूट और बट चलाए और फिर छोड़ कर चले गए।
उसी हालत में मुझे आरेस्ट कर कोतवाली में लाया गया और कई एक मुकदमे लादे गए।
तब तक इस घटना की खबर पूरे जिलें में फैल चुकी थी और हजारों लोग गाँव व कस्बों से चल कर शहर में पहुँच गए तथा कोई प्रशासनिक भवन नहीं बचा जिसे घेर न लिया गया हो। भारी जन दबाव के बाद मुझे अस्पताल में एडमिट कराया गया।
जैसा कि सरकारों द्वारा कार्यवाही के रूप में होता है अफसरों की जिले में ही तबादले के रूप में दिखवाटी कार्यवाही की गयी। आनन-फानन में घटना की मजिस्ट्रेट जांच का आदेश दे दिया गया जो अखबारों में कार्यवाही के रूप में बड़ी बात दिखती थी। लेकिन जिले की इतनी बड़ी घटना के बावजूद सरकारी तौर पर कोई नुमाइंदा उस समय के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने औपचारिकता बस भी नहीं भेजा जबकि इस घटना को जान कर देश के गृह राज्य मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल ने वहाँ मौके पर पहुँच कर घटना का हाल जाना तथा अस्पताल में आकर हमारे स्वास्थ्य का हाल भी जाना। पूरी घटना के बारे में हमने उनको अवगत कराया। साथ ही कॉंग्रेस के जिला अध्यक्ष अजय शर्मा ने इस घटना को बहुत गंभीरता से लेते हुए हर जरूरी पहल की जिससे एक जन आंदोलन खड़ा हुआ।
उस समय जिले के सभी राजनैतिक एवं सामाजिक कार्यकर्ता, मजदूरों किसानों के प्रतिनिधि, सभी पत्रकार बुद्धिजीवी, सभी कर्मचारी संगठनों के नेता, जिले के सभी डॉक्टर्स, पूर्वमंत्री सूर्य प्रताप शाही, वरिष्ठ नेता शैलेश मणि त्रिपाठी, पूर्व विधायक रूद्र प्रताप सिंह, विधायक दीनानाथ कुशवाहा, रामायण राव, और मण्डल भर से लोग आए और इस घटना की बहुत निंदा की।
यही नहीं एक बात जो बहुत महत्वपूर्ण थी कि इलाके की महिलायें घटना की अगली सुबह ही 5 बजे मीलों पैदल चलकर अस्पताल पहुँच गयी थी। उनकी पीड़ा हृदयविदारक एवं असहनीय थी।
यह घटना सिर्फ इस देश और समाज में एक बहुत छोटी सी पुलिसिया कार्यवाही के रूप में दिखी और हफ्तों जिले में किसानों मजदूरों जनसंगठनों, सामाजिक संगठनों महिला संगठनों, छात्र संगठनों और बुद्धिजीवियों ने धरना एवं विरोध प्रदर्शनों के माध्यम से इस घटना की कटु आलोचना एवं निंदा की जाती रही और अखबारों ने इस घटना को प्रमुखता से जगह दी।
यहाँ इस घटना का जिक्र इस लिए कर रहा हूँ कि सरकार व राज्य का चरित्र आम लोगों के समझ में आ सके। सरकार एवं प्रशासन का सबसे बड़ा हथकंडा जांच प्रक्रिया के रूप में दिखता है।
अब मजिस्ट्रेट जांच शुरु की जाती है और जांच उसी कलेक्टर के अधीनस्थ ए डी एम (एफ आर) को सौंपी जाती है जो कलेक्टर जनता के बीच आकर ज्ञापन लेना भी अपना अपमान समझता है और जिसके चेम्बर के सामने और परिसर में किसानों और मजदूरों पर सैकड़ों पी ए सी के जवान, दर्जनों पुलिस अधिकारी तथा उनके सी ओ, एस डी एम, ए डी एम तथा स्वयं कलेक्टर की मौजूदगी में शक्ति प्रदर्शन करते हैं।
जांच की प्रक्रिया शुरू होने पर गवाह के रूप में सौ से ज्यादे प्रत्ययक्षदर्शी घटना के चश्मदीद उपस्थित होते हैं और घटना के बारे में सच-सच बयान करते है। लंबी प्रक्रिया के बाद जैसा कि तय शुदा होता है वही बात फाइंडिंग के रूप में (आम मुलाकात में बातचीत के दौरान उस अफसर ने विवशता जाहिर की) उत्तर प्रदेश शासन प्रमुख सचिव गृह को भेजी जाती है और उसके बाद वह फाइंडिंग मुझे उपलब्ध कराई जाती है।
जांच की रिपोर्ट पढ़ने के बाद बिल्कुल हास्यास्पद लगता है कि बड़ी बेबाकी से बेलज्ज अधिकारी ने केवल यह ही नहीं लिखा है कि इस परिसर में कोई लाठीचार्ज हुआ ही नहीं है बल्कि एक कदम आगे बढ़कर कहा गया कि शिवाजी राय वांटेड थे, गिरफ्तार करने की कोशिश में कुछ चोटें आई होंगी।
बात को थोड़ा आगे बढ़ाते हैं। जब न्याय का सवाल खड़ा हो या हक की बात हो तो तय हो चुका था कि सरकारी अमले से न जनता का भला हो सकता है और न जनता को हक मिल सकता है और न ही जनता को उनसे उम्मीद करनी चाहिए। इसके उपरांत भी हमने न्यायालय में जाने का फैसला लेते हुए माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद के लखनऊ बेंच में एक जन हित याचिका दाखिल की जहां मैं स्वयं न्यायालय में उपस्थित होकर अपना पक्ष रख रहा था। लेकिन स्टैंडिंग काउंसिल स्थायी अधिवक्ता तनुजा सोमवंशी ने जनहित याचिका के एडमिट किये जाने को लेकर सवाल खड़ा करते हुए कहा कि ये जनहित याचिका नहीं हो सकती और जुरिस्डिक्शन( क्षेत्राधिकार) के सवाल को भी उठाया।
माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष उपस्थित होकर काउंसिल के बीच कानूनी दांवपेच के साथ बहस करने का अभी तक का मेरा पहला अनुभव था। बड़ी जद्दोजहद के बाद माननीय उच्च न्यायालय ने मैंडमस ऑर्डर करते हुए उत्तर प्रदेश शासन के प्रमुख सचिव गृह, जो कि एक पक्षकार भी थे, को चार सप्ताह के अंदर मामले को निपटाने के लिए आदेशित कर दिया।
उस आदेश को लेकर मैंने प्रॉपर तरीके से प्रमुख सचिव गृह आलोक सिन्हा को मिलकर आदेश उनके सुपुर्द किया और पूरी घटना से अवगत भी कराया। माननीय उच्च न्यायालय द्वारा आदेशित चार सप्ताह के अंदर मामले के निपटारे के बावजूद छः महीने बीत जाने पर और प्रमुख सचिव गृह द्वारा भी कोई कार्यवाही न होने पर माननीय उच्चन्यायालय के समक्ष अवमानना याचिका दाखिल करने के बाद चार सप्ताह के अंदर जवाब देने के लिए आदेशित किया गया। इसके बाद प्रमुख सचिव गृह द्वारा वही कागजात उपलब्ध कराए गए जो मजिस्ट्रेट जांच की रिपोर्ट मुझे दी गयी थी।
मैंने पुनः पूरे प्रकरण पर एक जनहित याचिका माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद के लखनऊ बेंच में दाखिल की जो कि पुनः बड़ी जद्दोजहद के बाद एडमिट कर ली गयी। चार हफ्ते के भीतर शासन से जवाब के लिए नोटिस इशू कर दिया गया लेकिन जैसा कि प्रशासन का रवैया होता है और कुछ अन्य मामलों का भी अनुभव बताता है कि न्यायालय के आदेश के बावजूद भी जब तक कई बार रिमाइन्डर न जाए प्रशासन जवाब नहीं देता। इसमे भी छः महीने बाद जवाब आया जिसका रीजॉइन्डर लगाया गया। पर उसके बाद केस इन-पर्सन होने के कारण कोई सूचना नहीं मिल पाई और बाद में पता यह चला कि मेरी अनुपस्थिति के आधार पर केस को डिसमिस कर दिया गया। हालांकि फिर मामले को रीस्टोर कराया गया गया।
ये बातें यह साबित कर रही थीं कि न्यायालय में काउंसिल को रखना एक विवशता है जिससे सहज न्याय की अवधारणा को भारी चोट पहुँचती है। और ये महसूस हुआ कि यदि वादी का अपना पक्ष स्वयं रखना इतना मुश्किल है तो न्यायालय में किसानों मजदूरों की आवाज पहुंचना लगभग असंभव सा है और ऐसे में किसान मजदूर के सवाल और उसके लिए न्याय उसकी पहुँच से बाहर हैं।
इस सम्पूर्ण घटना के जिक्र का आशय यह है कि जिस समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की अवधारणा के साथ हम आगे बढ़ रहे थे वह आगे बढ़ते हुए समाजवादी या बहुजनवादी और सम्प्रदायवादी ताकतों के प्रभाव में उजड़ता जा रहा था। मजदूर-किसान सड़कों पर लठियाँ खा रहा था, चुनी हुई सरकारें तानाशाही रवैय्या अपना ली थी और किसी भी तरह से फासीवादी ताकतों से अपने को कम नहीं पा रही थी। समाजवाद के नाम पर जातिवादी ताकतों का ध्रुवीकरण हो रहा था और पूरे समाज को जाति या धर्म में बाँट कर देखने का नजरिया पूरे तरह से काम कर रहा था।
विद्वान ऐड्वोकेट रमजान अली ने 31 दिसंबर 2000 को लोकबंधु राजनरायन की पुण्यतिथि पर अनायास ही नहीं कहा था कि “हम सोशलिस्ट हैं, और जब कोई हमें समाजवादी कहता है तो मुझे गाली लगती है"।
इसके साथ ही मैं एक अन्य घटना का जिक्र करना चाहता हूँ। पूर्व साँसद मोहन सिंह समाजवादी पार्टी के बड़े लीडरों में शुमार हुआ करते थे। (वे छात्र आंदोलन से लेकर जनता दल और समाजवादी पार्टी तक समाजवादी विचारधारा से जुड़े रहे) एक बार जब 2002 में मैं देवरिया में उनके घर के रास्ते से गुजर रहा था, मेरे साथ हमारे आंदोलन के साथी मुकेश पांडेय भी थे तब मोहन सिंह जी ने अपने आवास पर से हमें देख लिया और किसी से आवाज दिलवायी, हमलोग उनके पास गए। चूंकि जिले में वरिष्ठ होने के नाते दलीय भेदभाव छोड़कर आपसी बातचीत एवं आदर भाव एक दूसरे के प्रति बना रहता था और इसीलिए आपस में बेहिचक बातचीत हो जाया करती थी।
हम लोगों के दिमाग में पूर्वांचल के बिगड़ते हालात, लगातार खत्म होते रोजगार के साधन एवं तेजी से बढ़ते पलायन के प्रति चिंताएँ बढ़ती जा रही थी। चिंता यह कि जो पूर्वांचल आजादी की लड़ाई में सक्रिय भूमिका में रहा, जहां शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण संस्थान स्थापित हुए और साथ ही रिकार्ड के रूप में देवरिया जिले में आजादी से पूर्व स्थापित चौदह शुगर मिलों का होना एवं हर जिले में अलग अलग छोटे बड़े ट्रेड सेंटर का होना निश्चित रूप से बड़ी उपलब्धि के रूप में मौजूद था वह अपनी अस्मिता को खोता जा रहा था और पूर्व में उसकी स्थापना करने एवं बचाने के लिए जो लोग लड़ रहे थे आज वे सभी लोग इन उजड़ते हालात में बिखरे हुए थे। और इसी चिंता ने मुझे मोहन सिंह जी से यह कहने के लिए विवश किया कि
"आप समाजवादी पार्टी छोड़ दीजिए और ये पूर्वांचल नेतृत्व विहीन है, आप जैसे लोगों के नेतृत्व की पूर्वांचल को जरूरत है। अगर आप जैसे लोग खड़े हो जाएंगे तो हमारे जैसे नवजवान छात्र मजदूर किसान का एका हो सकता है और इस इलाके को उजड़ने और पलायन से बचाया जा सकता है। और ऐसा ही मैंने उनसे कहा"।
कुछ देर के लिए वे गंभीर हो गए और फिर गंभीर मुस्कान के साथ अन्य बातों पर चर्चा शुरू कर दी। इसका उन्होंने मुझे कोई उत्तर नहीं दिया। उसके बाद भी कई बार मुलाकात होने के बाद भी इस बात पर कोई चर्चा न उन्होंने ही की न ही मैंने उनसे की।
पूर्वांचल जिसे सोशलिज़्म और कम्यूनिज़्म का गढ़ माना जाता था और किसानों मजदूरों के आंदोलन और लाल झंडे और हरे झंडे से आंदोलनों में सड़के पटी रहती थी, उस क्षेत्र में जाति और सांप्रदायिक आधार पर सामाजिक विभाजन तेजी से होता चला गया और सोशलिस्ट खेमे से लेकर के कम्युनिस्ट खेमे तक के बड़े-बड़े नेता जैसे जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, राजकुमार राय, मित्रसेन यादव, बृजभूषण तिवारी, भगवती सिंह, रेवती रमन सिंह, राम गोविंद चौधरी एवं अन्य लोहिया के लोगों ने जातिवादी ताकतों का दामन थाम लिया। जो लोग बच गए थे वे दृढ़ संकल्पित थे, जिन्हें सिद्धांतों और विचारों पर ही बलि देनी थी और आज भी बलि देते आ रहे हैं।
जिले और प्रदेश में इस जातीय उभार में विधानसभाओं या लोकसभाओं की सीटें स्पष्ट रूप से जातीय आधार पर दो हिस्से में बंटती साफ देखी जा रही थी। उसके इतर चाहे सोशलिस्ट विचारधारा हो या कम्युनिस्ट विचारधारा हो या कॉंग्रेस से हो, दूर-दूर तक उनकी सीटें निकलती नहीं नजर आ रही थी।
बाद में मुझे महसूस हुआ कि मोहन सिंह जी की हंसी और चुप्पी अनायास नहीं थी। 2004 के चुनाव में मोहन सिंह जी समाजवादी पार्टी से साँसद चुने गए, बाद में 2009 में चुनाव हारने के बाद उन्हें राज्यसभा में मेम्बर बना दिया गया। जनेश्वर जी को मुलायम सिंह ने राज्यसभा भेजा था। राजकुमार जी को मरने से कुछ दिन पहले मुलायम सिंह जी ने राज्यमंत्री का दर्ज दे दिया था। मित्रसेन यादव बसपा में आकर साँसद हो गए थे और उनके बेटे बसपा से विधायक हो गए थे।
यानी मोहन सिंह जी समेत ये सारे लोग इस बात को भलीभाँति समझ रहे थे कि यदि इस दौर में हमें प्रतिष्ठित होना है तो जातीय ताकतों का दमन थामना पड़ेगा। यदि ये आंदोलन में जाते हैं तो भविष्य का आकलन करना उनके लिए मुश्किल था।
सभी प्रमुख राजनेताओं के जातीय और धार्मिक गठबंधन में ही अपना रास्ता चुनने के बाद जो मुट्ठी भर लोग बचे रह गए थे उनके पास राजनैतिक इच्छाशक्ति के अलावा और कुछ नहीं था। अपने आंदोलनों के बल पर वे सवालों को कुछ हद तक जिंदा तो रख पाए मगर राजनीति को वैचारिक दिशा नहीं दे सके। उनकी चिंतायें जायज थी पर धार्मिक और जातीय आधार पर बंटता हुआ समाज उजड़ता एवं पलायन करता चला गया।
ये लोग इस उम्मीद में लड़ते रहे कि जो लोग जा रहे हैं वे लौटेंगे जरूर, क्योंकि पूर्वांचल जैसे बहुत सारे क्षेत्र इसी सामाजिक विभाजन में उजड़ तो गए लेकिन जिन शहरों में ये लोग जा रहे हैं उनकी इतनी बड़ी बिसात नहीं है कि विषम परिस्थिति में उन्हे वे बर्दाश्त कर सकें।
यह लेख कुछ घटनाओं और संस्मरणों के माध्यम से पिछले दो दशकों के पूरब के बदलते आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य को समझने की एक कोशिश है। साथ ही प्रशासन और न्यायपालिका के रवैये को भी देखने समझने में मददगार साबित हो सकता है।
रोजगार के संसाधनों के उजड़ने के केवल आर्थिक ही नहीं भयावह सामाजिक परिणाम भी होते हैं जो सामाजिक संस्थाओं के ढहने, शिक्षा और स्वास्थ संस्थानों के बदहाल होने के रूप मे दिखते हैं। अपनी पढ़ाई छोड़कर पिता के साथ ठेले पर वह बच्चा बहुत समय तक काम नहीं किया होगा और संभवतः उसने भी मजदूरी की तलाश में किसी शहर का रुख का लिया होगा। चूंकि परिस्थितियाँ हमेशा एक तरह से नहीं रहती, वे बदल जाती हैं और उसके साथ बहुत सी चीज़े बदलती हैं। महामंदी के बढ़ते प्रभाव से जिस गति से पूंजी का केन्द्रीयकरण होता जा रहा है उससे आम आदमी की क्रय शक्ति खत्म करने के साथ ही आम दुकानदार, छोटे व्यापारी, छोटे एवं मझोले उद्योग धंधे नष्ट होते हा रहे हैं।
पिछले कुछ समय से ही अर्थशास्त्रियों ने गरीबों को कम से कम हर परिवार के हाथ में 6 हजार रुपये मासिक देने की पैरवी की थी। अब कोरोना संकट काल में भी सभी अर्थशास्त्रियों ने तत्काल के लिए सिर्फ एक ही रास्ता बताया है कि किसानों मजदूरों को जिंदा रखना है तो कम से कम 10 हजार रुपये कुछ महीने तक कैश के रूप में उनके हाथ में दिया जाना जरूरी है।
/hastakshep-prod/media/post_attachments/gsjeiwGwZxq1vV2KJyKL.jpg)
निश्चित ही ये कहा जा सकता है कि कोरोना ने घाव में खाज का काम किया है यानि जनता पर दोहरी मार। अब हमें पुनः विचार करना है कि किसान मजदूरों के इस बिगड़ते हालत में उन्हीं के कंधे पर जिम्मेदारी आ पड़ी है जो सैद्धांतिक रूप से कामगारों और किसानों नौजवानों के हिमायती हैं और स्वभावगत इनके प्रति जिम्मेदारियाँ ली है उनके हिस्से का काम आ गया है।
ये लड़ाई बहुत कठिन है, साधन का अभाव है और दुश्मन दैत्याकार है। मतलब कि पूंजीवाद और उनके वाहक पूंजी, जाति और संप्रदाय के रूप में हमारे खिलाफ कंधा अड़ाए खड़े हैं। उनके खिलाफ कामगारों, किसानों और नौजवानों की मजबूत मोर्चेबंदी के लिए कम्यूनिस्टों एवं सोशलिस्टों को, देश के सभी जन संगठनों को जो किसानों मजदूरों नौजवानों के हिमायती हैं, देश के सभी ट्रेड यूनियनों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों के एक विशाल मोर्चे तले आकर इन पूंजीवादी ताकतों को खत्म करना होगा।
शिवाजी राय
अध्यक्ष- किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा